बृहत्प्रतिक्रमण अर्थात् पाक्षिक प्रतिक्रमण जो कि मुनियों एवं आर्यि्काओ के लिए कहा गया है। उसकी टीका करते श्री प्रभाचंद्राचार्य कहते हैं-
दोषा दैवसिकप्रतिक्रमणतो नश्यन्ति ये नृणां।
तन्नाशार्थमिमां ब्रवीति गणभृच्छ्रीगौतमो निर्मलाम्।।
सूक्ष्मस्थूलसमस्तदोषहननीं सर्वात्मशुद्धिप्रदां।
यस्मान्नास्ति बृहत्प्रतिक्रमणतस्तन्नाशहेतु: पर:।।१।।
श्रीगौतमस्वामी दैवसिकादिप्रतिक्रमणादिभिर्निराकर्तुमशक्यानां दोषाणां निराकरणार्थं बृहत्प्रतिक्रमणलक्षणमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलाद्यर्थमिष्ट-देवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह१— ‘‘णमो जिणाणमित्यादि’’।
मनुष्यों के अर्थात् मुनि—आर्यिका पूज्य संयमियों के जो दोष दैवसिक प्रतिक्रमण से नष्ट नहीं होते हैं उन दोषों को नष्ट करने के लिये श्रीगणधरदेव सूक्ष्म और स्थूल ऐसे समस्त दोषों को नष्ट करने वाली, संपूर्णरूप से आत्मा की शुद्धि करने वाली ऐसी निर्मल बृहत्प्रतिक्रमण विधि को कहते हैं, क्योंकि बृहत्प्रतिक्रमण को छोड़कर और कोई भी उपाय उन दोषों को दूर करने के लिये नहीं है। पुन: गद्य में उत्थानिकारूप में कहते हैं— श्री गौतमस्वामी दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक आदि के द्वारा दूर होने से अशक्य ऐसे दोषों का निराकरण करने के लिए ‘‘बृहत्प्रतिक्रमण’’ लक्षण उपाय को बतलाते हुये उस प्रतिक्रमण की आदि में मंगल आदि के लिये इष्ट देवता विशेष को नमस्कार करते हुये ‘‘णमो जिणाणं’’ इत्यादि रूप से मंत्रसूत्र कहते हैं— विशेष—इस प्रतिक्रमणग्रंथत्रयी नाम के टीका ग्रंथ में अड़तालीस ‘‘गणधरवलय’’ मंत्र नाम के सूत्र हैं। क्रियाकलाप ग्रंथ में—प्रसिद्ध पाक्षिकप्रतिक्रमण पाठ में अड़तालीस मंत्र हैं एव ‘‘षट्खंडागम’’ महाग्रंथ के चतुर्थ खंड के प्रारम्भ में अर्थात् हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित नवमी पुस्तक में ‘‘चवालीस’’ गणधरवलय मंत्र—मंगलसूत्र हैं। यहाँ इसी नवमी पुस्तक के मंत्र एवं धवला टीका के आधार से इन गणधरवलय मंत्रों का अर्थ दिया जा रहा है। स्थान—स्थान पर ‘‘प्रतिक्रमणग्रंथत्रयी’’ ग्रंथ के टीका के आधार से भी प्रकरण लिया गया है। (१। जिनों को नमस्कार हो।।१।। यह सूत्र मंगल के लिये है। पूर्वसंचित कर्मों के विनाश को मंगल कहते हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से ‘जिन’ चार प्रकार हैं। ‘जिन’ शब्द नामजिन है। स्थापनाजिन सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना के भेद से दो प्रकार हैं। जिन भगवान के आकाररूप से स्थित द्रव्य सद्भाव स्थापनाजिन हैं। जिनाकार से रहित जिस द्रव्य में जिन भगवान की कल्पना की जाय वह द्रव्य असद्भाव स्थापनाजिन है। भविष्य काल में जिन पर्याय से परिणमन करने वाला भावी द्रव्यजिन है और जिनपर्याय से परिणत जीव तत्परिणत भावजिन हैं।
शंका—इन चार प्रकार के जिनों में यहां किस जिन को नमस्कार किया है ?
समाधान—यहाँ भाव जिन और स्थापना जिन को नमस्कार किया है।
शंका—जिन गुण से रहित पाषाण की मूर्ति स्थापना निक्षेप है उसमें विघ्नकारक कर्मों के क्षय करने की शक्ति का अभाव है अत: स्थापना जिन को नमस्कार नहीं करना चाहिये ?
समाधान—वास्तव में जिनदेव भी अपनी वंदना करने वालों के पापों के विनाशक नहीं हैं अन्यथा उनके वीतरागता का अभाव हो जावेगा तथा वे वंदना करने वाले का पाप नष्ट नहीं करते ऐसा कहने से तो वंदना करना ही व्यर्थ हो जावेगा। निष्कर्ष यह है कि जिनेन्द्रदेव के गुणों से परिणत स्वयं के भाव ही पाप के विनाशक है। जिस प्रतिमा में जिनेन्द्रदेव के गुणों का अध्यारोप किया गया है उनकी भक्ति से परिणत भाव भी जिनेन्द्रदेव की भक्ति से परिणत भाव के समान ही है। इसी कारण जिनेन्द्र नमस्कार के समान जिनिंबब स्थापना नमस्कार भी पाप का विनाशक है। यहाँ उपर्युक्त सूत्र के द्वारा पांचों परमेष्ठी को एवं उनकी स्थापना—प्रतिबिम्बों को भी नमस्कार किया गया है। कहा भी है—जिन के दो भेद हैं—सकल जिन और देश जिन। जो घातियाँ कर्मों का क्षय कर चुके हैं, वे सकल जिन है। इनमें अरहंत और सिद्ध दोनों लिये जाते हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु तीव्रकषाय, इंद्रिय एवं मोह के जीत लेने से देश जिन हैं२।
शंका—सकल जिनों को नमस्कार पाप का नाशक भले ही हो किन्तु देश जिनों का नमस्कार पापनाशक वैâसे होगा ?
समाधान—ऐसा नहीं कहना, क्योंकि सकल जिन के समान देश जिन में भी तीन रत्न पाये जाते हैं और तीन रत्न ही देवत्व के कारण हैं।
शंका—सकल जिन और देश जिन के तीन रत्नों में समानता नहीं हो सकती, क्योंकि परिपूर्ण और अपरिपूर्ण से अंतर स्पष्ट है ?
समाधान—ऐसा नहीं कहना, क्योंकि असमान का कार्य असमान ही हो ऐसा नियम नहीं है। देखो, परिपूर्ण अग्नि के द्वारा किया जाने वाला दाह कार्य उसके अवयव में भी पाया जाता है अथवा अमृत के सैकड़ों घड़ों से किया जाने वाला निर्विषीकरणादि कार्य चुल्लूभर अमृत में भी पाया जाता है। इसलिये आचार्य, उपाध्याय और साधुओं में भले ही अपरिपूर्ण रत्नत्रय है फिर भी वे ‘देशजिन’ होने से ‘जिन’ कहलाते हैं। एवं दव्वट्ठिय—जणाणुग्गहट्ठं णमोक्कारं गोदमभडारओ महाकम्म—पयडिपाहुडस्स आदिम्हि काऊण पज्जवट्ठियणयाणुग्गहट्ठमुत्तरसुत्ताणि भणदि। इस प्रकार द्रव्यार्थिक जनों के अनुग्रहार्थ श्री गौतम भट्टारक महाकर्म—प्रकृति प्राभृत के आदि में नमस्कार करके पर्यायार्थिकनययुक्त शिष्यों के अनुग्रहार्थ उत्तरसूत्रों को कहते हैं अर्थात् संक्षिप्त में समझने वाले शिष्यों के लिये ‘णमो जिणाणं’ ऐसा एक सूत्र ही पर्याप्त है किन्तु विस्तार से समझने वाले शिष्यों के लिये आगे के नमस्कार सूत्र हैं। उन्हीं में से अब दूसरा सूत्र कहते हैं— (२) णमो ओहिजिणाणं।।२।। अवधिजिनों को नमस्कार हो।।२।। ‘अवधि’ इस शब्द से ‘देशावधि’ को ही लेना है, क्योंकि आगे सूत्रों में अन्य अवधिज्ञानों के नाम आयेंगे। रत्नत्रयसहित अवधिज्ञानी मुनि अवधिजिन हैं यहाँ ऐसा समझना क्योंकि महाव्रतों से रहित सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इन दो रत्नों के धारक अवधिज्ञानी को नमस्कार नहीं किया जा सकता है। अब तीसरा सूत्र कहते हैं— (३) णमो परमोहिजिणाणं।।३।। परमावधि जिनों को नमस्कार हो।।३।। यह परमावधि ज्ञान देशावधि की अपेक्षा महाविषयवाला है, मन:पर्यय ज्ञान के समान संयत मुनियों के ही होता है। इसी भव में केवलज्ञान उत्पन्न कराने वाला है और यह अप्रतिपाती है अर्थात् इस ज्ञान के धारी मुनि सम्यक्त्व और चारित्र से च्युत नहीं होते हैं ऐसा नियम है। (४) णमो सव्वोहिजिणाणं।।४।। सर्वावधि जिनों को नमस्कार हो।।४।। सर्व, विश्व और कृत्स्न ये पर्यायवाची शब्द हैं। परमावधि की अपेक्षा भी सर्वावधि का विषय अधिक है। इस ज्ञान के धारी समस्त जीवद्रव्य और समस्त पुद्गल द्रव्य को जान लेते हैं। यह अवधि भी तद्भव से मोक्ष प्राप्त करने वाले मुनि के ही होती है और अप्रतिपाती है। (५) णमो अणंतोहिजिणाणं।।५।। अनंतावधि जिनों को नमस्कार हो।।५।। अंत और अवधि जिसके नहीं है वह अनंतावधि है। ‘‘अणंतोहिजिणा णाम केवलिणो’’, अनंतावधि जिन केवलज्ञानी को कहते हैं।
शंका—अनंतावधि का अर्थ केवलज्ञानी होने से ये सर्वावधि से महान हैं पुन: इनको पहले नमस्कार क्यों नहीं किया ?
समाधान—ऐसा नहीं कहना, क्योंकि केवलज्ञान के माहात्म्य का ज्ञान करानेरूप गुण की अपेक्षा केवलज्ञान से सर्वावधि महान हैं अत: उसे पहले ही नमस्कार करने में दोष नहीं है।
शंका—तब तो मिथ्यात्व से चूँकि सम्यक्त्व का माहात्म्य जाना जाता है, अत: सम्यक्त्व की भक्ति में मिथ्यात्व को नमस्कार क्यों नहीं किया ?
समाधान—ऐसा नहीं कहना, क्योंकि जिस प्रकार मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानों से केवलज्ञान का माहात्म्य जाना जाता है उस प्रकार मिथ्यात्व से सम्यक्त्व का माहात्म्य नहीं जाना जाता है। दूसरी बात यह है कि जो जिसका भक्त अथवा मित्र होता है वह उसके विरोधियों की भक्ति नहीं करता है, क्योंकि ऐसा करने में विरोध है अथवा पश्चादानुपूर्वी-विपरीत क्रम दिखलाने के लिये देशावधि जिनादिकों को पहले नमस्कार किया है। अब श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान तथा तप आदि चूँकि मतिज्ञानपूर्वक होते हैं अत: मतिज्ञान में श्रद्धा उत्पन्न होने से श्री गौतम भट्टारक उत्तर सूत्रों से मतिज्ञानियों को नमस्कार करते हैं— (६) णमो कोट्ठबुद्धीणं।।६।। कोष्ठबुद्धि धारक जिनों को नमस्कार हो।।६।। जौ, गेहूँ आदि को रखे जाने के स्थान कोष्ठ कहलाते हैं। ऐसे ही समस्त द्रव्य व पर्यायों को धारण करनेरूप गुण से कोष्ठ के समान होने से उस बुद्धि को भी कोष्ठ कहा जाता है। कोष्ठरूप जो बुद्धि वह कोष्ठबुद्धि है। इसके अर्थ को धारण करने का काल जघन्य से संख्यात वर्ष और उत्कृष्ट से असंख्यात वर्ष है, क्योंकि असंख्यात और संख्यात काल तक धारण रहती है, ऐसा सूत्र पाया जाता है। धारणावरणीय कर्म के तीव्र क्षयोपशम से यह ऋद्धि होती है। यह धारणावरणीय ज्ञानावरण मतिज्ञान का एक अवांतर भेद है क्योंकि एक—एक कर्मों के असंख्यात भेद भी हो सकते हैं। यथा—‘‘तं पुण अट्ठविहं वा अडदालसयं असंखलोगं वा’’ (गोम्मटसार कर्मकांड) कर्मों के आठ भेद हैं, एक सौ अड़तालीस भेद हैं अथवा असंख्यात लोक प्रमाण भी भेद हो जाते हैं। यहाँ ‘जिन’ शब्द से संयत—मुनि ही विवक्षित हैं। (७) णमो बीजबुद्धीणं।।७।। बीज बुद्धिधारक जिनों को नमस्कार हो।।७।। ‘जिन’ शब्द की अनुवृत्ति चली आने से प्रत्येक सूत्र के अर्थ में जिन लगाना ही चाहिये। जिस प्रकार बीज, अंकुर, पत्ते आदि के लिये आधार है, उसी प्रकार बारह अंगों के अर्थ का आधारभूत जो पद है वह बीजतुल्य होने से बीज है। बीजपदविषयक मतिज्ञान भी कार्य में कारण के उपचार से बीज है। संख्यात शब्दों के अनंत अर्थों से संबद्ध अनंत लिंंगों के साथ बीज पद को जानने वाली बीजबुद्धि है, यह तात्पर्य हैं
शंका—बीजबुद्धि यदि अनंत अर्थों से संबंधित अनंतलिंगरूप बीजपद को जान लेगी तो वह क्षायोपशमिक कैैंसे कही जावेगी प्रत्युत वह केवलज्ञानरूप क्षायिक हो जावेगी ?
समाधान—ऐसा नहीं कहना, क्योंकि जिस प्रकार क्षयोपशमजन्य परोक्ष श्रुतज्ञान के द्वारा केवलज्ञान से विषय किये गये अनंत अर्थों का परोक्षरूप से ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार मतिज्ञान के द्वारा भी सामान्यरूप से अनंत अर्थों को ग्रहण किया जाता है, इसमें कोई विरोध नहीं है। यह बीजबुद्धि विशिष्ट अवग्रह आवरणीय कर्म के क्षयोपशम से होती है। (८) णमो पदाणुसारीणं।।८।। पदानुसारी ऋद्धि के धारक जिनों को नमस्कार हो।।८।। यहाँ प्रमाण और मध्यम आदि पदों को नहीं लेना है बल्कि बीजपद को लेना है। पद को जो अनुसरण या अनुकरण करती है वह पदानुसारी बुद्धि है। बीजबुद्धि से बीजपद को जानकर यहाँ यह इन अक्षरों का लिंंग होता है और उनका इनका नहीं, इस प्रकार विचार कर समस्त श्रुत के अक्षर पदों को जानने वाली पदानुसारी बुद्धि है। वह पदानुसारी बुद्धि अनुसारी, प्रतिसारी और तदुभयसारी के भेद से तीन प्रकार है। जो बीजपद से अधस्तन पदों को ही बीजपद स्थित िंलग से जानती है वह प्रतिसारी बुद्धि है। जो उपरिम पदों को ही जानती है वह अनुसारी बुद्धि है। दोनों पाश्र्वस्थ पदों को नियम से अथवा बिना नियम के भी जो जानती है वह उभयसारी बुद्धि है। इन पदानुसारी जिनों को मैं पृथ्वी पर मस्तक टेककर साष्टांग नमस्कार करता हूँ। यह ऋद्धि ईहा—आवरणीय और अवाय—आवरणीय के तीव्र क्षयोपशम से होती है१। ‘‘आदि, अंत के या यत्र—तत्र किसी भी एक पद को ग्रहण करके समस्त ग्रंथ के अर्थ का अवधारणा जिस बुद्धि में हो जाता है वह पदानुसारी बुद्धि है वह तप के माहात्म्य से जिनको होती है उन्हें मेरा नमस्कार हो।२’’ (९) णमो संभिण्णसोदाराणं।।९।। संभिन्न श्रोता जिनों को नमस्कार हो।।९।। सं—भले प्रकार श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम से जो भिन्न—संबद्ध हैं, वे संभिन्न हैं, संभिन्न ऐसे जो श्रोता वे संभिन्नश्रोता हैं। कथंचित् युगपत् प्रवृत्त हुये अक्षर—अनक्षर स्वरूप अनेक शब्दों के श्रोता संभिन्नश्रोता हैं ऐसा निर्देश किया गया है। एक अक्षौहिणी सेना में नौ हजार हाथी, एक—एक हाथी के आश्रित सौ—सौ रथ, एक—एक रथ के आश्रित सौ—सौ घोड़े और एक—एक घोड़े के आश्रित सौ—सौ मनुष्य होते हैं। यह एक अक्षौहिणी का प्रमाण है। ऐसी यदि चार अक्षौहिणी अक्षर—अनक्षर स्वरूप अपनी—अपनी भाषा में युगपत् बोलें तो भी संभिन्न श्रोता मुनि युगपत् सब भाषाओं को ग्रहण करके उत्तर दे देते हैं। इनसे संख्यातगुणी भाषाओं से भरी हुई तीर्थंकर के मुख से निकली ध्वनि के समूह को युगपत् ग्रहण करने में समर्थ ऐसे संभिन्न श्रोता के विषय में यह कोई आश्चर्य नहीं है। यह ऋद्धि बहु, बहुविध और क्षिप्र ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से होती है। श्री गणधर देवों के कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारिबुद्धि और संभिन्नश्रोतृबुद्धि ये चारों निर्मल बुद्धियाँ देखी जाती हैं, क्योंकि उनके बिना बारह अंगों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। श्री गणधर देवों के कोष्ठबुद्धि के बिना समस्त श्रुतज्ञान का अवस्थान नहीं बन सकता। बीजबुद्धि के बिना तीर्थंकर के मुख से निकले हुये अक्षर और अनक्षर स्वरूप बीजपदों का ज्ञान न होने से द्वादशांग के ज्ञान का अभाव हो जावेगा। ऐसे ही पदानुसारी बुद्धि के बिना श्रुतज्ञान तथा अक्षर, पद, वाक्य और उनके अर्थ विषयक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति नहीं बन सकती तथा उनमें संभिन्न श्रोतृत्व को न मानने से अक्षर—अनक्षरात्मक सात सौ लघु भाषा और अठारह महाभाषा स्वरूप, नाना भेदों से भिन्न बीजपदरूप वे प्रत्येक क्षण में भिन्न—भिन्न स्वरूप को प्राप्त होने वाली ऐसी दिव्यध्वनि का ग्रहण न होने से द्वादशांग की उत्पत्ति नहीं हो सकती है अत: श्रीगणधरगुरु को ये चारों ऋद्धियाँ निश्चित हैं। ‘‘सं—सम्यक् प्रकार से संकर—मिश्रण, व्यतिकर दोषों के बिना भिन्न—विविक्त—पृथक्—पृथक् शब्दों को जो सुन लेते हैं वे संभिन्नश्रोतृ ऋद्धिधारी मुनि हैं। बारह योजन—९६ मील लंबे और नव योजन अर्थात् ७२ मील विस्तृत ऐसे चक्रवर्ती के कटक में उत्पन्न हुये मनुष्यों के और हाथी, घोड़े, ऊँट आदि के अक्षरात्मक—अनक्षरात्मक शब्दों के समूह को परस्पर में भिन्न—भिन्न ही जो एक साथ समझ लेते हैं वे संभिन्नश्रोतृऋद्धि मुनि हैं।१ यह तप के प्रभाव से ही होती है। (१०) णमो सयंबुद्धाणं२।। स्वयंबुद्ध जिनों को नमस्कार हो।। किंचित्मात्र वैराग्य के कारण को देखकर पर के उपदेश की अपेक्षा न करके जो स्वयं ही वैराग्य को प्राप्त हो जाते हैं वे स्वयंबुद्ध कहलाते हैं यहाँ उन्हें नमस्कार किया है। (११) णमो पत्तेयबुद्धाणं१।। प्रत्येकबुद्ध जिनों को नमस्कार हो।। किसी एक निमित्तविशेष से जो प्रतिबोध को प्राप्त होते हैं वे प्रत्येक बुद्ध कहलाते हैं। जैसे नीलांजना के विलीन हो जाने से भगवान ऋषभदेव विरक्त हुये थे। यहाँ ऐसे प्रत्येकबुद्ध ऋद्धिधारी मुनियों को नमस्कार किया है। (१२) णमो बोहियबुद्धाणं२।। बोधितबुद्ध जिनों को नमस्कार हो।। भोग में आसक्त जनों को शरीर आदि में क्षणिकादिरूप दिखाकर वैराग्य प्राप्त कराया गया है वे बोधितबुद्ध हैं उन्हें नमस्कार हो। (१३) णमो उजुमदीणं।।१०।। ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानियों को नमस्कार हो।।१०।। दूसरे की मति अर्थात् मन में स्थित अर्थ उपचार से मति कहा जाता है। ऋजु का अर्थ वक्रतारहित है। सरलता से मनोगत, सरलता से वचनगत और सरलता से कायगत ऋजु अर्थ को जानने वाला ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान है। यह ज्ञान काल की अपेक्षा जघन्य से दो, तीन भवों को और उत्कृष्ट से सात—आठ भवों को जानता है। अतीत और अनागत के सात और वर्तमान का एक मिलाकर आठ ऐसा समझना। (१४) णमो विउलमदीणं।।११।। विपुलमति जिनों को नमस्कार हो।।११। विपुल का अर्थ विस्तीर्ण है। सरल या वक्र मन, वचन व काय में स्थित अप्राप्त और अर्थप्राप्त वस्तु को भी यह ज्ञान जान लेता है। उत्कृष्ट से यह मानुषोत्तर पर्वत के भीतर की बात जानता है, बाहर की नहीं। तात्पर्य यह है कि पैंतालीस लाख योजन घनप्रतर को जानता है। ‘मानुषोत्तर पर्वत के भीतर’ यह वचन क्षेत्र का नियामक नहीं है किन्तु मानुषोत्तर पर्वत के भीतर पैंतालीस लाख योजनों का नियामक है, क्योंकि विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान के उद्योत सहित क्षेत्र को घनाकार से स्थापित करने पर पैंतालीस लाख योजन मात्र ही होता है अथवा उपदेश प्राप्त कर इस विषय का व्याख्यान करना चाहिये। काल की अपेक्षा यह जघन्य से सात—आठ भवों को और उत्कृष्ट से असंख्यात भवों को जानता है। भाव की अपेक्षा जो—जो द्रव्य ज्ञात है उस—उस की असंख्यात पर्यायों को जानता है ऐसा समझना। (१५) णमो दसपुव्वियाणं१।।१२।। दशपूर्वीक जिनों को नमस्कार हो।।१२।। यहाँ भिन्न और अभिन्न के भेद से दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें ग्यारह अंगों को पढ़कर पश्चात् परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका, इन पांच अधिकारों सहित दृष्टिवाद अंग के पढ़ते समय उत्पादपूर्व को आदि करके पढ़ने वालों के दशम पूर्व विद्यानुप्रवाद के समाप्त होने पर सात सौ क्षुद्र विद्याओं से युक्त रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्यायें उपस्थित होकर कहती हैं—‘‘भगवन्! क्या आज्ञा देते हैं ?’’ इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओं के लोभ को जो प्राप्त हो जाते हैं वे ‘भिन्नदशपूर्वी’ हैं किन्तु जो कर्मक्षय के अभिलाषी हुये उनमें लोभ नहीं करते हैं वे ‘अभिन्नदशपूर्वी’ हैं। इन ‘अभिन्नदशपूर्वी’ मुनियों को नमस्कार हो। (१६) णमो चोद्दसपुव्वियाणं२।।१३।। चौदश पूर्वीक जिनों को नमस्कार हो।।१३।।
प्रश्न—शेष अधस्तनर्पूिवयों को नमस्कार क्यों नहीं किया ?
उत्तर—उनको भी नमस्कार किया ही है क्योंकि अधस्तन पूर्वों के बिना चौदह पूर्व घटित ही नहीं होते। फिर भी विद्यानुप्रवाद की समाप्ति के समान चौदह पूर्व की समाप्ति में भी जिनवचन पर विश्वास देखा जाता है अर्थात् अतिशय विशेष पाया जाता है। चौदह पूर्वों को समाप्त करके रात्रि में कायोत्सर्ग से स्थित साधु की प्रभात समय में भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों द्वारा शंख, काहल और तूर्य शब्द से व्याप्त महापूजा की जाती है। इन दो स्थानों में जिनवचनों पर विश्वास देखा जाता है। जिनवचनरूप से सब अंग और पूर्वों में सदृशता के होने पर भी विद्यानुप्रवाद और लोकिंबदुसार का महत्त्व है क्योंकि इनमें ही देवपूजा पाई जाती है। चौदह पूर्व का धारक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता और उस भव में असंयम को भी प्राप्त नहीं होता, यह इसकी विशेषता है। (१७) णमो अट्ठंगमहाणिमित्तकुसलाणं।।१४।। अष्टांग महानिमित्त में कुशलता को प्राप्त जिनों को नमस्कार हो।।१४।। अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न, भौम, स्वप्न और अंतरिक्ष ये महानिमित्तों के आठ अंग हैं। इन निमित्तों से आराधनीय साधु जनसमूह के शुभ—अशुभ को जान लेते हैं। मनुष्य और तिर्यंचों के शरीर के वर्ण, निम्न, उन्नत आदि से उनके जीवन, मरण, सुख—दु:ख आदि को जान लेना अंग निमित्त है। उल्लू, काक आदि एवं मनुष्यों के शब्दों से लाभ—अलाभ आदि जान लेना स्वर निमित्त है। तिल, मशा आदि से सुख—दु:खादि जान लेना व्यंजन निमित्त है। उर, ललाट, हस्ततल, पादतल आदि में एक सौ आठ आदि लक्षणों को देखकर तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि के लक्षण जान लेना लक्षण निमित्त है। शरीर छाया की विपरीतता, वस्त्र अलंकार आदि के छेद तथा मनुष्य आदि की चेष्टा से शुभ—अशुभ जानना छिन्न निमित्त है। भूमिगत लक्षणों से ग्राम, घर आदि की वृद्धि, हानि जान लेना भौम निमित्त है। वृषभ, हाथी आदि के स्वप्न से शुभ—अशुभ जान लेना स्वप्न निमित्त है। चन्द्र, सूर्य, ग्रह आदि के उदय, अस्त आदि से शुभ—अशुभ जान लेना अंतरिक्ष निमित्त है। यहां जिन शब्द की अनुवृत्ति चली आ रही है। अत: असंयत और संयतासंयत निमित्तज्ञों को नमस्कार नहीं किया है ऐसा समझना। चारित्र के फल से विशेषता को प्राप्त जिनों को नमस्कार करते हुए कहते हैं— (१८) णमो विउव्वणपत्ताणं१।।१५।। विक्रियाऋद्धि को प्राप्त हुये जिनों को नमस्कार हो।।१५।। अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व और कामरूपित्व इस प्रकार विक्रिया ऋद्धि आठ प्रकार की है। परमाणु प्रमाण शरीर से स्थित हो जाना ‘अणिमा’ है। मेरुपर्वत सदृश शरीर कर लेना ‘महिमा’ है। मेरू प्रमाण से मकड़ी के तंतुओं पर चल लेना ‘लघिमा’ है। भूमि में खड़े ही हाथ से चन्द्र—सूर्य के िंबब को छू लेना ‘प्राप्ति’ है। कुलाचल और मेरु के पृथ्वीकायिक जीवों को बाधा न पहुँचाकर गमन करने की शक्ति प्राप्त कर लेना ‘प्राकाम्य’ है। सब जीवों पर प्रभुता की शक्ति ‘ईशित्व’ है। मनुष्य, हाथी आदिरूप इच्छानुसार विक्रिया बना लेना ‘वशित्व’ है और इच्छितरूप के ग्रहण करने की शक्ति ‘कामरूपित्व’ है। ये आठ प्रकार की विक्रिया ऋद्धि हैं। इनके एक संयोगी, द्विसंयोगी आदि भंगों से २५५ भेद हो जाते हैंं। इन विक्रियायुक्त जिनों को—मुनियों को नमस्कार हो।
प्रश्न—इन आठ विक्रियायुक्त देवों को नमस्कार क्यों नहीं किया ?
उत्तर—नहीं, क्योंकि ‘जिन’ शब्द की अनुवृत्ति होने से असंयमी देवों को नमस्कार संभव नहीं है। (१९) णमो विज्जाहराणं।।१६।। विद्याधर जिनों को नमस्कार हो।।१६।। जाति विद्या, कुलविद्या और तपविद्या के भेद से विद्यायें तीन प्रकार हैं। इन विद्याओं में स्वकीय मातृपक्ष से प्राप्त हुई विद्यायें जाति विद्यायें हैं। पितृपक्ष से प्राप्त हुई विद्याएं कुल विद्यायें हैं और बेला, तेला आदि उपवासों से सिद्ध की गई विद्यायें तपविद्यायें हैं। ये तीनों विद्यायें विजयार्ध पर्वत पर रहने वाले विद्याधरों के होती है। वहाँ के मनुष्य सब विद्याओं को छोड़कर संयम ग्रहण करके मुनि हो जाते हैं तब भी वे विद्याधर श्रमण कहलाते हैं, क्योंकि विद्याविषयक विज्ञान उनके पाया जाता है। जिन मुनियों ने विद्यानुवाद को पढ़ लिया है वे भी विद्याधर कहलाते हैं, क्योंकि उनके भी विद्याविषयक विज्ञान पाया जाता है। प्रश्न—पहले तीन प्रकार के विद्याधर बताये हैं उनमें से यहाँ किनको लेना है ? उत्तर—विजयार्ध पर्वत पर उत्पन्न होने वाले असंयत मनुष्यों को यहाँ नहीं लेना। पारिशेष न्याय से संयुत मुनि ही आते हैं।
प्रश्न—यहाँ दशपूर्वधरों को ग्रहण करने से पुनरुक्त दोष आ जाता है ?
उत्तर—ऐसा नहीं है। यहाँ दशपूर्व विषयक ज्ञान से उपलक्षित जिनों—संयतों को नमस्कार किया था, किन्तु यहाँ सिद्ध हुई समस्त विद्याओं के कार्य के परित्याग से उपलक्षित जिनों को विद्याधर स्वीकार किया गया है। जो सिद्ध हुई विद्याओं से काम लेने की इच्छा नहीं करते केवल अज्ञान निवृत्ति के लिये उन्हें धारण ही करते हैं, वे विद्याधर जिन हैं उनके लिये नमस्कार हो। (२०) णमो चारणाणं।।१७।। चारणऋद्धिधारक जिनों को नमस्कार हो।।१७।। जल, जंघा, तंतु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणी के भेद से चारणऋद्धिधारक आठ प्रकार हैं। जो ऋषि जलकायिक जीवों को पीड़ा न पहुँचाकर, जल को न छूते हुये इच्छानुसार भूमि के समान जल में गमन करने में समर्थ हैं वे जलचारण कहलाते हैं। तंतुचारण, फलचारण, पुष्पचारण और बीजचारण का स्वरूप भी जलचारणों के समान कहना चाहिये। भूमि में पृथ्वीकायिक जीवों को बाधा न करके अनेक सौ योजन गमन करने वाले जंघाचारण कहलाते हैं। धूम, अग्नि, पर्वत और वृक्ष के तंतुसमूह पर से ऊपर चढ़ने की शक्ति से संयुक्त श्रेणी चारण हैं। चार अंगुलों से अधिक प्रमाण में भूमि से ऊपर आकाश में गमन करने वाले ऋषि आकाशचारण कहे जाते हैं।
प्रश्न—आकाशचारण और आगे कहे जाने वाले आकाशगामी में क्या भेद हैं ?
उत्तर—जीव पीड़ा के बिना पैर उठाकर आकाश में गमन करने वाले आकाशचारण हैं। पल्यंकासन, कायोत्सर्गासन, शयनासन और पैर उठाकर इत्यादि सब प्रकारों से आकाश में गमन करने में समर्थ ऋषि आकाशगामी कहे जाते हैं। यहाँ चारण ऋषियों के एकसंयोग, द्विसंयोग आदि के क्रम से दो सौ पचपन भंग हो जाते हैं। वे सभी भेद इन्हीं आठों के अंतर्गत होने से उपर्युक्त आठ भेद ही इस ऋद्धि के प्रमुख हैं। जैसे—कीचड़, भस्म, गोबर और भूसे आदि के ऊपर से गमन करने वालों का जंघाचारणों में अंतर्भाव हो जाता है, क्योंकि भूमि से कीचड़ आदि में कथंचित् अभेद है। कुंंथुजीव, खटमल और पिपीलिका आदि के ऊपर से संचार करने वालों का फलचारणों में अंतर्भाव हो जाता है, क्योंकि इनमें त्रस जीवों के परिहार की कुशलता की अपेक्षा कोई भेद नहीं है। पत्र, अंकुर, तृण और प्रवाल—कोंपल आदि पर से संचार करने वालों का पुष्पचारणों में अंतर्भाव हो जाता है, क्योंकि हरितकाय जीवों के परिहार की अपेक्षा इनमें समानता है। ओस, ओला, कुहरा और बर्फ आदि के ऊपर गमन करने वाले चारणों का जलचारणों में अंतर्भाव हो जाता है, क्योंकि इनमें जलकायिक जीवों के परिहार की कुशलता के प्रति समानता देखी जाती है। धूम, अग्नि, वायु और मेघ आदि के आश्रय से चलने वाले चारणों का तंतु, श्रेणी चारणों में अंतर्भाव हो जाता है, क्योंकि वे अनुलोम और प्रतिलोम गमन करने में जीवों को पीड़ा न करने की शक्ति से संयुक्त हैं। इसी प्रकार अन्य चारणों का भी इनमें भी अंतर्भाव समझना चाहिये। (२१) णमो पण्णसमणाणं।।१८।। प्रज्ञाश्रमणों को नमस्कार हो।।१८।। औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी इस तरह प्रज्ञा के चार भेद हैं—जन्मांतर में चार प्रकार की निर्मल बुद्धि के बल से विनयपूर्वक बारह अंगों का अवधारण करके देवों में उत्पन्न होकर पश्चात् अविनष्ट संस्कार के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होने पर इस भव में पढ़ने, सुनने व पूछने आदि के बिना भी जीव की जो प्रज्ञा है वह औत्पत्तिकी है। कहा भी है— विनय से पढ़ा गया श्रुतज्ञान यदि प्रमाद से या किसी प्रकार से विस्मृत भी हो जाता है तो उसे यह औत्पत्तिकी प्रज्ञा परभव में उपस्थित कर देती है और केवलज्ञान को प्राप्त करा देती है। ये औत्पत्ति प्रज्ञाश्रमण छह मास के उपवास से कृश होते हुये भी उस बुद्धि के माहात्म्य को प्रगट करने के लिये पूछनेरूप क्रिया में प्रवृत्त हुये चौदहपूर्वी को भी उत्तर दे देते हैं। विनय से बारह अंगों के पढ़ने वाले के उत्पन्न हुई बुद्धि का नाम वैनयिक है अथवा परोपदेश से उत्पन्न बुद्धि भी वैनयिक है। गुरू के उपदेश के बिना तपश्चरण के बल से उत्पन्न बुद्धि कर्मजा है अथवा औषधिसेवन के बल से उत्पन्न बुद्धि भी कर्मजा है। अपनी—अपनी जातिविशेष से उत्पन्न बुद्धि पारिणामिका हैं।
शंका—तीर्थंकर देव के मुख से निकले हुये बीजपदों के अर्थ का निश्चय करने वाले वृषभसेन आदि गणधर देवों की प्रज्ञा का किसमें अंतर्भाव होगा ?
समाधान—उसका पारिणामिकी प्रज्ञा में अंतर्भाव होता है क्योंकि वह विनय, उत्पत्ति और कर्म के बिना उत्पन्न होती है। यहाँ चारों ही प्रज्ञाश्रमणों का ग्रहण है। असंयत प्रज्ञाश्रमण नहीं लेना चाहिये क्योंकि जिन शब्द की अनुवृत्ति चली आ रही है।
शंका—प्रज्ञा और ज्ञान के बीच क्या भेद है ?
समाधान—गुरु के उपदेश से निरपेक्ष ज्ञान के लिये हेतुभूत जीव की शक्ति का नाम ‘प्रज्ञा’ है और उसका कार्य ‘ज्ञान’ है। इस तरह कार्य—कारण भेद है। (२२) णमो आगासगामीणं।।१९।। आकाशगामी जिनों को नमस्कार हो।।१९।। आकाश में इच्छानुसार मानुषोत्तर पर्वत के अंतर्गत इच्छित प्रदेश में गमन करने वाले आकाशगामी ऋषि है। यहाँ देव और विद्याधरों को नहीं लेना क्योंकि जिन शब्द की अनुवृत्ति है।
शंका—आकाशचारण व आकाशगामी में क्या भेद हैं ?
समाधान—चरण, चारित्र, संयम व पापक्रियानिरोध ये पर्यायवाची हैं। इनमें जो कुशल हैं वे ‘चारण’ है। तप विशेष से उत्पन्न हुई आकाश स्थित जीवों के वध के परिहार की कुशलता से जो सहित हैं वे ‘आकाशचारण’ हैं और आकाश में गमन करने मात्र से संयुक्त आकाशगामी कहलाते हैं। (२३) णमो आसीविसाणं।।२०।। आर्शीिवष जिनों को नमस्कार हो।।२०।। अविद्यमान अर्थ की इच्छा का नाम आशिष् है और विष के समान वचन विष है। जैसे ‘मर जावो’, ‘तुम्हारे शिर का छेद हो जावे’, ‘तू भीख मांगे’ इत्यादि वचन जिसके प्रति बोल देवें उसका वैसा ही हो जावे ऐसे वे आर्शीिवष नामक साधु हैं। पुन:—आशिष् है अविष अर्थात् अमृत जिनका वे आर्शीिवष हैं। स्थावर या जंगम विष से वचन व्याप्त जीवों के प्रति ‘निर्विष हो जावे’ ऐसा निकला हुआ वचन उन्हें निर्विष कर दे—जीवित कर दे। व्याधि, वेदना से और दारिद्र्य से पीड़ित के प्रति जिन मुनि के वचन निकलें तो वह व्याधि, वेदना से और दरिद्रता से रहित होकर स्वस्थ, सुखी, धनी हो जावे वे मुनि भी आर्शीिवष हैं। तप के प्रभाव से जो मुनि इस तरह जीवों के निग्रह—शाप और अनुग्रह करने में समर्थ हैं वे आर्शीिवष हैं फिर भी ये मुनि ऐसा निग्रह—अनुग्रह नहीं करते हैं, क्योंकि यहाँ ‘जिन’ शब्द की अनुवृत्ति चली आ रही है। यदि वे साधु ऐसे शाप वचन या अनुग्रह वचन से अपकार—उपकार करने लगें तो क्रोध और हर्ष के निमित्त से उनके द्वेष—राग स्पष्ट होने से वे वीतरागी दिगम्बर जैन साधु नहीं रहेंगे क्योंकि जिन साधु का और राग—द्बेष का परस्पर में विरोध है। मात्र तपस्वी साधु में ऐसी ऋद्धि का होना होता है ऐसे आशीर्विष साधु को मैं पृथ्वी पर मस्तक टेक कर पंचांग या अष्टांग नमस्कार करता हूँ। (२४) णमो दिट्ठिविसाणं।।२१।। दृष्टिविष जिनों को नमस्कार हो।।२१।। दृष्टि शब्द से यहाँ चक्षु और मन का ग्रहण है। रुष्ट होकर साधु यदि ‘यह मर जावे’ ऐसे भाव से किसी को देख ले तो वह मर जावे। ऐसे ही क्रोधपूर्वक देखने से यह जिसका जो भी अनिष्ट सोचे वह हो जावे वे ‘दृष्टिविष’ मुनि हैं। इसी तरह विष का अर्थ अविष करके ऐसा समझना कि वे मुनि जिसके प्रति स्नेह भाव से देखकर सोचें कि ‘इसका विष उतर जावे’ और भी कुछ हित सोचें कि यह ‘धनी हो जावे’, ‘स्वस्थ हो जावे’, ‘संतान आदि से भरपूर हो जावे’ तो वे वैसे ही सुखी हो जावें यह भी ‘दृष्टिविष’ ऋद्धि है। यद्यपि कोई दिगम्बर जैन साधु इस ऋद्धि से संपन्न हो जाते हैं लेकिन वे ऐसा प्रयोग नहीं करते हैं क्योंकि यहाँ ‘जिन’ शब्द की अनुवृत्ति है। इन शुभ—अशुभ लब्धि से सहित तथा हर्ष व क्रोध से रहित छह प्रकार के ही दृष्टिविष जिनों को—साधुओं को नमस्कार हो। (२५) णमो उग्गतवाणं।।२२।। उग्रतप जिनों को नमस्कार हो।।२२।। उग्रतप ऋद्धि धारक दो प्रकार हैं—उग्रोग्र तप ऋद्धिधारक और अवस्थित उग्रतप ऋद्धिधारक। जो मुनि एक उपवास करके पारणा कर दो उपवास करते हैं, पुन: पारणा कर तीन उपवास करते हैं। इस प्रकार एक अधिक वृद्धि के साथ जीवनपर्यंत तीन गुप्तियों से रक्षित होकर उपवास करने वाले उग्रोग्र तप ऋद्धि के धारक हैं।
प्रश्न—ऐसा होने पर तो छह मासों से अधिक उपवास हो जावेंगे, यह कैसे संभव है ?
उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि घातायुष्क मुनियों के छह मासों के उपवास का नियम है, अघातायुष्क मुनियों के लिये नहीं, चूँकि उनका अकाल में मरण नहीं होता।
प्रश्न—अघातायुष्क भी छह मास तक ही उपवास करने वाले होंगे, क्योंकि इसके आगे संक्लेशभाव उत्पन्न हो जावेंगे ?
उत्तर—ऐसा नहीं है, संक्लेश सहित और सोपक्रमायुष्क मुनियों के लिये यह नियम भले ही हो, किन्तु संक्लेश भाव से रहित निरूपक्रमायुष्क और तप के बल से उत्पन्न हुये वीर्यांतराय के क्षयोपशम से संयुक्त तथा उसके बल से असातावेदनीय के उदय को मंद कर चुकने वाले साधुओं के लिये यह नियम नहीं है, क्योंकि उनमें इसका विरोध है।
प्रश्न—ऐसी शक्ति किन्हीं श्रेष्ठ पुरुष के उत्पन्न होती है यह कैसे जाना जाता है ?
उत्तर—इसी सूत्र से जाना जाता है, क्योंकि छह मासों से ऊपर उपवास का अभाव मानने पर उग्रोग्र तप बन नहीं सकता। अब उग्र तप के द्वितीय भेद का वर्णन करते हैं—कोई महापुरुष दीक्षा के लिये एक उपवास करके पारणा करें पश्चात् एक उपवास एक पारणा करते हुये किसी निमित्त षष्ठोपवास—बेला हो गया। फिर उस बेला से पुन: बेला पारणा करते हुये विहार करने वाले के अष्टमोपवास—तेला हो गया। इस दशम, द्वादशम—चौला, पांच उपवास आदि के क्रम से नीचे न गिरकर जो जीवन पर्यंत विहार करते हैं वे अवस्थित—उग्रतप ऋद्धि के धारक कहे जाते हैं। इन दोनों तपों का उत्कृष्ट फल मोक्ष है और अन्य फल अनुत्कृष्ट है। इन उग्रतप ऋद्धिधारक जिनों को—महामुनियों को नमस्कार हो। (२६) णमो दित्ततवाणं।।२३।। दीप्ततप ऋद्धिधारक जिनों को नमस्कार हो।।२३।। दीप्ति का कारण होने से तप दीप्त कहा जाता है। चतुर्थ व छट्ठम—बेला, तेला आदि उपवासों के करने पर जिनका शरीर तेज, तपजनित लब्धि के माहात्म्य से प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्र के समान बढ़ता जाता है, वे ऋषि दीप्ततप हैं। उनकी केवल दीप्ति ही नहीं बढ़ती किन्तु बल भी बढ़ता है क्योंकि शरीर बल, मांस और रुधिर की वृद्धि के बिना शरीर की दीप्ति बढ़ ही नहीं सकती है। इसीलिये उनके आहार भी नहीं होता, क्योंकि उसके कारणों का अभाव है। यदि कहा जाय कि भूख के दु:ख को शांत करने के लिये वे भोजन करते हैं, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि उनके भूख के दु:ख का अभाव है, अर्थात् उन मुनि के भूख का अभाव है यह कैसे जाना जाता है? उसका समाधान यह है कि ‘दीप्ति, बल और शरीर की वृद्धि’ से ही जाना जाता है। सो ही देखिये— ‘‘तेण ण तेिंस भुत्ती वि तक्कारणाभावादो। ण च भुक्खादुक्खुवसमणट्ठं भुंजंति तदभावादो। तदभावो मुदो वग्गम्मदे ? दित्तिबल सरीरोवचयादो।१’’ (२७) णमो तत्ततवाणं।।२४।। तप्ततप ऋद्धि धारकों को नमस्कार हो।।२४।। जिस तप के द्वारा मूत्र, मल और शुक्र आदि तप्त—दग्ध—विनष्ट कर दिये जाते हैं वह उपचार से तप्त तप है। जिनके ग्रहण किये हुये चार प्रकार के आहार का तपे हुये लोह पिंड द्वारा आकृष्ट पानी के समान नीहार नहीं होता है वे तप्ततप ऋद्धि के धारक हैं। (२८) णमो महातवाणं।।२५।। महातप ऋद्धिधारक जिनों को नमस्कार हो।।२५।। जो अणिमा आदि आठ गुणों से सहित हैं, जल चारण आदि आठ प्रकार के चारण गुणों से अलंकृत हैं, प्रकाशमान शरीर प्रभा से संयुक्त हैं, दो प्रकार की अक्षीण ऋद्धि से युक्त हैं, सर्वौषधि स्वरूप हैं, पाणिपात्र में गिरे हुये सब आहारों को अमृत स्वरूप परिर्वितत करने में समर्थ हैं, समस्त इंद्रों से भी अनंतबल के धारक हैं, आर्शीिवष और दृष्टिविष लब्धियों से समन्वित हैं, तप्ततप ऋद्धि से संयुक्त हैं, समस्त विद्याओं के धारक हैं तथा मति, श्रुत, अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञानों से तीनों लोक के व्यापार को जानने वाले हैं वे मुनि महातप ऋद्धि के धारक हैं। (२९) णमो घोरतवाणं।।२६।। घोरतप ऋद्धि धारक जिनों को नमस्कार हो।।२६।। उपवासों में छह मास का उपवास, अवमोदर्य तपों में एक ग्रास, वृत्त—परिसंख्यानों में चौराहे में भिक्षा की प्रतिज्ञा, रस परित्याग में उष्ण जल युक्त ओदन का भोजन, विविक्त शय्यासनों में वृक, व्याघ्र आदि िंहसक जीवों से सेवित सह्य, िंवध्य आदि अटवियों में निवास, कायक्लेशों में तीव्र हिमालय आदि के अन्तर्गत देशों में खुले आकाश के नीचे अथवा वृक्षमूल में ध्यान—ग्रहण करना। इसी प्रकार अभ्यंतर तपों में भी उत्कृष्ट तप को ग्रहण करना चाहिये। ये बारह प्रकार ही तप कायरजनों को भयोत्पादक हैं, इसी कारण घोरतप कहलाता है। इन बारह प्रकार के तपों की उत्कृष्ट अवस्था में वर्तमान साधु घोरतप कहलाते हैं। यह भी तपजनित ऋद्धि ही है। (३०) णमो घोरगुणाणं।।२७।। घोरगुण जिनों को नमस्कार हो।।२७।। घोर—उत्कृष्ट पराक्रम सहित हैं गुण जिनके वे घोरगुण कहे जाते हैं। शंका—चौरासी लाख गुणों के घोरत्व वैâसे संभव है ?
समाधान—घोर कार्यकारी शक्ति को उत्पन्न करने के कारण उनके घोरत्व संभव है। यहाँ भी ‘जिन’ शब्द की अनुवृत्ति होने से उन घोरगुण जिनों को नमस्कार किया है। गुण से उत्पन्न हुई शक्ति का नाम ही पराक्रम है। (३१) णमो घोरपरक्कमाणं।।२८।। घोर पराक्रम ऋद्धि धारक जिनों को नमस्कार हो।।२८।। तीनों लोकों का उपसंहार करने, पृथ्वीतल को निगलने, समस्त समुद्र के जल को सुखाने, अग्नि एवं शिला पर्वतादि के बरसाने की शक्ति का नाम घोर पराक्रम है। घोर है पराक्रम जिन जिनों का—मुनियों का वे घोरपराक्रम है। यहाँ ‘जिन’ शब्द की अनुवृत्ति चली आ रही है अत: क्रर कर्म करने वाले असुरों को नमस्कार करने का प्रसंग नहीं आता। (३२) णमो घोरगुणबंभचारीणं।।२९।। अघोरगुण ब्रह्मचारी जिनों को नमस्कार हो।।२९।। ब्रह्म का अर्थ पांच व्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योंकि वह शांति के पोषण का हेतु है। अघोर अर्थात् शांत हैं गुण जिसमें वह अघोरगुण है। अघोर—शांतगुण ब्रह्म का आचरण करने वाले मुनि अघोरगुण ब्रह्मचारी है। जिनमें तप के प्रभाव से डामरादि—राष्ट्रीय उपद्रव आदि, रोग, दुर्भिक्ष, वैर, कलह, वध, बंधन और रोध आदि को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हुई है उन अघोरगुण ब्रह्मचारी मुनियों को नमस्कार किया है।
शंका—‘णमो घोरगुणबंभचारीणं’ सूत्र में ‘अघोर’ शब्द नहीं है सो अर्थ में कैसे लिया ?
समाधान—यहां ‘णमो अघोर’ में प्राकृत व्याकरण से संधि होकर अकार का लोप हो गया है। अघोर ब्रह्मचारियों की लब्धियाँ सर्वांगगत असंख्यात हैं। इन ऋद्धिवाले शरीर से स्र्पिशत वायु में भी समस्त उपद्रवों को नष्ट करने की शक्ति देखी जाती है। (३३) णमो आमोसहिपत्ताणं।।३०।। आमर्षौषधि प्राप्त ऋषियों को नमस्कार हो।।३०।। जिन मुनियों का आमर्ष—स्पर्श समस्त औषधिरूप है वे आमर्षौषधि ऋद्धि वाले मुनि हैं। (३४) णमो खेल्लोसहिपत्ताणं।।३१।। खेलौषधि प्राप्त ऋषियों को नमस्कार हो।।३१।। श्लेष्म, लार,सिहाण और विप्रुष् आदि की खेल संज्ञा है। जिनका यह खेल औषधिरूप हो गया हो, वे खेलौषधिप्राप्त मुनि हैं। (३५) णमो जल्लोसहिपत्ताणं।।३२।। जल्लौषधि प्राप्त जिनों को नमस्कार हो।।३२।। अंग का बाह्य मल ‘जल्ल’ कहलाता है। तप के प्रभाव से जिनके वह जल्ल औषधिरूप हो गया हो वे जल्लौषधि प्राप्त ऋषि हैं। (३६) णमो विट्ठोसहिपत्ताणं१।।३३।। विष्ठौषधि प्राप्त जिनों को नमस्कार हो।।३३।। जिनके विष्ठा—मल, मूत्रादि औषधिपने को प्राप्त हो गये हैं वे विष्ठौषधि प्राप्त ऋषि हैं। (३७) णमो सव्वोसहिपत्ताणं।।३४।। सर्वौषधि प्राप्त जिनों को नमस्कार हो।।३४। रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा, शुक्र, पुâप्पुâस, खरीष, कालेय, मूत्र, पित्त, अंतड़ी, उच्चार आदि सब जिनके औषधिरूप को प्राप्त हो गए हैं, वे सर्वौषधि प्राप्त जिन हैं। यहाँ लोक में जितनी व्याधियाँ हैं उन सबको स्थापित कर आमर्षौषधि, खेलौषधि, जल्लौषधि, विष्ठौषधि और सर्वौषधि के एक संयोगादिरूप भंगों की नाना काल संबंधी ऋद्धियों का आश्रय लेकर प्ररूपण करना चाहिये, क्योंकि विचित्र चारित्र से लब्धियों की विचित्रता में कोई विरोध नहीं है। (३८) णमो मणबलीणं।।३५।। मन बल ऋद्धियुक्त जिनों को नमस्कार हो।।३५।। बारह अंगों में निर्दिष्ट त्रिकालविषयक अनंत अर्थपर्यायों और अनंत व्यंजन पर्यायों से व्याप्त छह द्रव्यों का निरंतर चिंतन करने पर भी खेद को प्राप्त न होना मनबल है। यह मनबल भी लब्धि है, क्योंकि यह विशिष्ट तप के प्रभाव से उत्पन्न होती है। अन्यथा बहुत वर्षों में बुद्धिगोचर होने वाला बारह अंगों का अर्थ भला एक मुहूर्त में चित्तखेद को वैâसे नहीं करेगा ? अर्थात् करेगा ही। उन मनबली ऋषियों को नमस्कार किया है। (३९) णमो वचिबलीणं।।३६।। वचनबली ऋषियों को नमस्कार हो।।३६।। बारह अंगों का बहुत बार प्रतिवाचन करके भी जो खेद को प्राप्त नहीं हो वह वचनबल है यह तप के माहात्म्य से जिनके प्रगट हुआ है वे वचनबल ऋद्धिधारी मुनि हैं। (४०) णमो कायबलीणं।।३७।। कायबली ऋषियों को नमस्कार हो।।३७।। जो तीनों लोकों को हाथ की अंगुली पर उठाकर अन्यत्र रखने में समर्थ हैं वे कायबली हैं। यह कायशक्ति भी चारित्र विशेष से ही उत्पन्न होती है। (४१) णमो खीरसवीणं।।३८।। क्षीरस्रवी मुनियों को नमस्कार हो।।३८।। क्षीर का अर्थ दूध है। विष सहित वस्तु से भी क्षीर को बनाने वाले क्षीरस्रवी कहलाते हैं। हाथ रूपी पात्र में गिरे हुये सब आहारों को क्षीरस्वरूप बनाने वाली शक्ति भी कारण में कार्य के उपचार से क्षीरस्रवी कही जाती है।
शंका—अन्य रसों में स्थित द्रव्यों का तत्काल ही दूधरूप से परिणमन कैसे संभव है ?
समाधान—जैसे अमृतसमुद्र में गिरे हुये विष का अमृतरूप परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है, वैसे ही पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तियों से घटित अंजलिपुट में गिरे हुये सब आहारों का क्षीररूप परिणत होने में कोई विरोध नहीं है। यहाँ उन्हीं क्षीरस्रवी महाऋषियों को नमस्कार किया है। (४२) णमो सप्पिसवीणं।।३९।। र्सिपस्रवी जिनों को नमस्कार हो।।३९।। र्सिपष् शब्द का अर्थ घृत है। जिनके तप के प्रभाव से अंजलिपुट में गिरे हुये सब आहार घृतरूप से परिणमते हैं वे र्सिपस्रवी महाऋषि हैं। (४३) णमो महुसवीणं१।।४०।। मधुस्रवी जिनों को नमस्कार हो।।४०।। मधु शब्द से गुड़, खांड और शक्कर आदि का ग्रहण किया गया है, क्योंकि मधुर स्वाद के प्रति इनमें समानता पायी जाती है। जो मुनि हाथ में आये हुये समस्त आहारों को मधु, गुड़, खांड और शक्कर के स्वादस्वरूप परिणमन कराने में समर्थ हैं वे मधुस्रवी महामुनि हैं यहाँ उन्हें ही नमस्कार किया गया है। (४४) णमो अमडसवीणं२।।४१।। अमृतस्रवी जिनों को नमस्कार हो।।४१।। जिनके हाथ को प्राप्त हुआ आहार अमृतस्वरूप से परिणत होता है वे अमृतस्रवी जिन हैं—मुनि हैं। यहाँ अवस्थित रहते हुये जो देवाहार—देवताओं के समान अमृत जैसे आहार को ग्रहण करने वाले हैं, उन अमृतस्रवी महामुनियों को नमस्कार किया गया है। (४५) णमो अक्खीणमहाणसाणं।।४२।। अक्षीणमहानस जिनों को नमस्कार हो।।४२।। यहाँ चूँकि अक्षीण महानस शब्द देशामर्शक है, अतएव उससे वसति अक्षीण जिनों का भी ग्रहण होता है। जिसके भात, घृत व भिगोया हुआ—बनाया हुआ अन्न स्वयं परोस लेने के पश्चात् चक्रवर्ती की सेना को भोजन कराने पर भी समाप्त नहीं होता है वह अक्षीणमहानस ऋद्धिधारक कहलाता है अर्थात् जिस चौके में इन ऋद्धिवाले मुनि का आहार हो जाता है उस चौके के भोजन से सारी चक्रवर्ती की सेना को भी भोजन करा दो परन्तु वह घटे नहीं। उन मुनि की यह ऋद्धि ‘अक्षीणमहानस’ है। जिन मुनि के चार हाथ प्रमाण भी गुफा में रहने पर चक्रवर्ती का सैन्य भी उस गुफा में रह सकता है, वे ‘अक्षीणावास’ ऋद्धिधारक हैं। इन उभय प्रकार के मुनियों को नमस्कार हो।
शंका—इन शक्तियों को—ऋद्धियों को कैसे जाना जाता है ?
समाधान—इसी सूत्र से उनकी ऋद्धियों का अस्तित्व जाना जाता है, क्योंकि जिन भगवान् अन्यथावादी नहीं है। (४६) णमो वड्ढमाणाणं। चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान भगवान को नमस्कार हो। (४७) णमो लोए सव्वसिद्धायदणाणं।।४३।। णमो सिद्धायदणाणं।।१ लोक में सब सिद्धायतनों को नमस्कार हो।।४३।। ‘सब सिद्ध’ इस वचन से पूर्व में कहे हुये समस्त जिनों को ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जिनों से पृथग्भूत देशसिद्ध व सर्वसिद्ध पाये नहीं जाते। सब सिद्धों के जो आयतन हैं वे सर्व सिद्धायतन हैं। इससे कृत्रिम व अकृत्रिम जिनमंदिर, जिनप्रतिमा तथा ईषत्प्राग्भार—सिद्धशिला, ऊर्जयंत, चंपापुर व पावापुर आदि क्षेत्रों व निषीधिकाओं का भी ग्रहण करना चाहिये। उन सभी जिनायतनों को नमस्कार हो। (४८) णमो वड्ढमाणबुद्धरिसिस्स।।४४।। णमो भयवदो महदिमहावीरवड्ढमाण-बुद्धिरिसिणो चेदि।।२ वर्धमान बुद्ध ऋषि को नमस्कार हो।।४४।।
शंका—जबकि वर्धमान भगवान् को पूर्व में नमस्कार किया जा चुका है तो फिर यहाँ दुबारा नमस्कार किसलिये किया गया है ?
समाधान— जस्संतियं धम्मपहं णिगच्छे, तस्संतियं वेणयियं पउंजे। कायेण वाचा मणसा वि णिच्चं, सक्कारए तं सिरपंचमेण।।‘जिनके समीप धर्मपथ प्राप्त हो, उनके निकट विनय का व्यवहार करना चाहिये तथा उनको शिर झुकाकार पाँच अंग—पंचांग एवं काय, वचन और मन से नित्य ही सत्कार—नमस्कार करना चाहिये।’ इस आचार्य परम्परागत नियम को बतलाने के लिये पुन: नमस्कार किया गया है। प्रतिक्रमणग्रंथत्रयी में इस मंत्र का ऐसा अर्थ किया है— णमो भयवदो महदिमहावीरवड्ढमाणबुद्धरिसिणो चेदि। जो भगवान् सहज विशिष्ट मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञान के धारी और पूजा के अतिशय को प्राप्त हैं, महति, महावीर और वर्धमान नाम के धारक अंतिम तीर्थंकर हैं, बुद्र्धिष—प्रत्यक्षवेदी—केवलज्ञान के धारी हैं। रुद्र के द्वारा किये गये उपसर्ग को जीतने से ‘महतिमहावीर’ यह नाम प्रसिद्ध हुआ है। इन अंतिम तीर्थंकर के वर्धमान, वीर, महावीर, सन्मति और महतिमहावीर’ ऐसे पांच नाम विख्यात हैं। ऐसे वर्धमान भगवान को नमस्कार होवे। श्री गौतमस्वामी के ये सभी ऋद्धियां थीं। ऐसा महाशास्त्र धवला ग्रंथ में लिखा है। यथा—‘पांच महाव्रत, तीन गुप्ति और पांच समितियों से युक्त, आठ मद और सात भयों से रहित, बीज, कोष्ठ, पदानुसारी व संभिन्नश्रोतृत्व बुद्धिऋद्धियों से सहित, उत्कृष्ट अवधिज्ञान से असंख्यात लोक प्रमाण तथा काल से अतीत, अनागत व वर्तमान में परमाणुपर्यंत समस्त मूर्तद्रव्य एवं उनकी पर्यायों को जानने वाले, तप्ततपऋद्धि के प्रभाव से मल—मूत्र रहित, दीप्ततप लब्धि के बल से सर्वकाल उपवासयुक्त होकर भी शरीर के तेज से दशों दिशाओं को आलोकित करने वाले, सर्वौषधि लब्धि के निमित्त से सर्व औषधियों स्वरूप, अनंतबल युक्त होने से हाथ की कनिष्ठ अंगुली द्वारा तीनों लोकों को चलायमान करने में समर्थ, अमृतस्रावी आदि ऋद्धियों के बल से हस्तपुट में गिरे हुये सब आहारों को अमृतस्वरूप परिणमाने वाले, महातप गुण से कल्पवृक्ष के समान, अक्षीण महानस ऋद्धि से आहार में अक्षयता को करने वाले, अघोर तप के प्रभाव से जीवों के समस्त कष्टों को दूर करने वाले, संपूर्ण विद्याओं द्वारा सेवित चरणमूल से युक्त, आकाशचारण गुण से सर्व जीवों की रक्षा करने वाले, वचन एवं मन से समस्त पदार्थों के संपादन में समर्थ, अणिमादि ऋद्धियों से देव समूहों को जीतने वाले, तीनों लोकों के जनों में श्रेष्ठ, परोपदेश के बिना अक्षर—अनक्षररूप सब भाषाओं में कुशल, समवसरण में स्थित जनमात्र के रूप के धारी होने से ‘हमारी—हमारी भाषाओं से हमारे—हमारे लिए ही उपदेश दे रहे हैं। इस प्रकार सबको विश्वास कराने वाले तथा समवसरण में स्थित जनों के कर्ण इंद्रियों में अपने मुख से निकली हुई अनेक भाषाओं के सम्मिश्रित प्रवेश के निवारक ऐसे गणधर देव ग्रंथकर्ता हैं, क्योंकि ऐसे स्वरूप के बिना ग्रंथ की प्रमाणता का विरोध होने से धर्म रसायन द्वारा समवसरण के जनों का पोषण बन नहीं सकता है। सो ही कहते हैं— बुद्धि—तव—विउवणोसह—रस—बल—अक्खीण—सुस्सरत्तादी। ओहि मणपज्जवेहि य, हवंति गणवालया सहिया।। गणधर देव बुद्धि, तप, विक्रिया, औषधि, रस, बल, अक्षीण, सुस्वरत्वादि ऋद्धियों तथा अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञान से सहित होते हैं। इन उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री गौतमस्वामी आहार न करके सर्वकाल उपवास करने वाले थे और सर्वऋद्धियों से सहित थे। ऐसे श्री गौतम गणधर देव को तथा सर्वऋद्धिधारी महाऋषियों को और सर्वऋद्धियों को मेरा मन, वचन, काय से नमस्कार होवे।