(आदिपुराण में श्री बाहुबली के ध्यानावस्था में मन:पर्ययज्ञान एवं अनेक ऋद्धियाँ मानी है।)
—चौबोल छंद—
श्री जिन श्रुत गुरु वंदन करके, वृषभदेव को नमन करूँ।
गुणमणि पूज्य बाहुबलि प्रभु के, चरण कमल का ध्यान करूँ।।
श्री श्रुतकेवलि भद्रबाहु मुनि, चन्द्रगुप्त नेमीन्दु नमूँ।
शांति सिंधु गणि वीर सिंधु नमि, बाहुबली शुभ चरित कहूँ।।१।।
युग की आदि में वृषभदेव प्रभु, मरुदेवी उर जन्म लिया।
पृथ्वी तल को तत्त्व रहस्य रु, धर्मामृत का बोध दिया।।
श्री नाभेय अयोध्या पुरि में, पूर्ण प्रभावी अधिप हुये।
इन्द्रादिक नुत धर्म नीतिमय, प्रजानुपालन सुखद किये।।२।।
यशस्वती सुनंदा रानी, सरस्वति लक्ष्मी सदृश थीं।
इक सौ तीन सुपुत्र पुत्रिसह, शाश्वत कीर्ति प्रसरित थी।।
वृषभदेव ने पुत्र पुत्रि सब, विद्या शास्त्र प्रवीण किये।
शस्त्राभ्यासाध्यात्मवादमय, विश्व चतुरता रूप किये।।३।।
इन्द्रियजित प्रभु राज काज में, योग क्षेम उपकार किये।
असि मसि आदिक षट्कर्मों को, सुबोध आदि ब्रह्म हुये।।
सुर निर्मित पुरि इक्यासी तल, रत्नमयी प्रासाद महा।
इन्द्रादिक नित सेवा में रत, अखंड वसुधा राज्य महा।।४।।
जहाँ जहाँ भगवान प्रजापति, प्रजा के सुख सौभाग्य अहो।
वर्णन कोई नहीं कर सकते, सुवर्ण युग साक्षात् अहो।।
इक्ष्वाकुवंशज कीर्ति पताका, लहराती है नभगण में।
महा महिम महनीय त्रिजग पति, त्रिवर्ग दर्शक थे जग में।।५।।
राज्य सभा में सुरेन्द्र प्रेरित, निलांजना ने नृत्य किया।
त्रिज्ञानधारी वृषभ देव को, उसी समय वैराग्य हुआ।।
राज्यपट्ट भरतेश्वर का कर, शत सुत में भी बांट दिया।
लौकांतिकनुत दीक्षा ले प्रभु, स्वात्म सुधारस पान किया।।६।।
भरत अयोध्यापति बाहुबलि, पोदनपुर का राज्य किया।
उभय भ्रात में अमेय शक्ती, दल बल महा प्रभाव हुआ।।
उधर वृषभजिन बहु तप करके, केवलज्ञान वुंâ प्राप्त किया।
इधर भरत के आयुध गृह में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ।।७।।
भवन में पुत्र जन्म वृत्तांत, युगपत त्रय को विदित किया।
प्रथम kलाश गिरि पर जाकर, प्रभु की पूजा भक्ति किया।
धनद रचित शुभ समवसरण में, सद्धर्मामृत वरष रहा।।
शिवपथ पथिक भव्य जन का मन, चातक सम अति हरष रहा।।८।।
धर्मकल्पद्रुम फल अर्थादिक, धर्म प्रथम यह प्रगट किया।
पुन विधिवत् षट्खंड जीतकर, भारत भू यह नाम दिया।।
योगाभ्यासी भरतचक्रधर बिन, श्रम सुर नर वशित किये।
सहस बतीस मुकुटबद्धाधिप, चरणों में सब नमित किये।।९।।
चौदह रत्न के सहस सहस सुर, रक्षक विभव विशालता।
भरतेश्वर प्रमुदित मन अनुदिन, रुचि से जिन पूजन करता।।
दानशील उपवास महोत्सव, गृहि षट्कर्मी उदारता।
बहु पुण्योदय भोगी ज्ञानी, चित्सुख अनुभव सुलीनता।।१०।।
महामहिम भरतेश्वर जब, साकेतपुरी प्रस्थान किया।
चक्ररत्न पुर बाह्य रुक गया, अभ्यंतर न प्रवेश किया।।
सेनापति अमात्य राजा गण, सब दल विस्मय चकित हुआ।
अपूर्व लख यह भरतेश्वर का, आस्य चन्द्र निस्तेज हुआ।।११।।
रहसि बुलाकर ज्योतिर्विद को, कारण क्या यह प्रश्न किया।
छ: खंड वसुधा जीती प्रभु तुम, अनुजों को पर वश न किया।।
तब चक्रेश्वर अमात्य गण सह, विमर्श करके कार्य किया।
कुशल दूत कर पत्र दिया, शत-भ्रात निकट को भेज दिया।।१२।।
सब भाई मिल विमर्श कर, कैैलाश गिरी पर जा करके।
आदीश्वर पितु चरण कमल में, भक्ती से शीश नमा करके।।
जैनी दीक्षा ले तप करते, निज स्वतंत्र सुख पाना है।
भरत राज इस घटना को सुन, मन में बहु दु:ख माना है।।१३।।
पुन: मंत्रिगण सह विचारते, बाहुबलि प्रति क्या करना।
स्वाभिमानयुत बहु बलशाली, स्वानुकूल कैसे करना।।
प्रियवादी व्यवहार कुशल अति, श्रेष्ठ दूत को बुला लिया।
युक्ति से कार्य करो तुम जाकर, पोदनपुर को भेज दिया।।१४।।
दूत गया सविनय प्रणाम कर, सर्व दिग्विजय कथन किया।
नीतिप्रवण बाहुबलि ने भी, दूत का बहु सन्मान किया।। प्रभो!
भरतपति छ: खंड जयकर, भ्रातृ प्रेम स्मरण किया।
भ्रात मिलन कर सुख अनुभव हो, अत: प्रभो! यह विनय किया।।१५।।
बहुत दिवस से नहीं मिले प्रभु, भरत हृदय बहु उत्सुक है।
भाई भाई मिल कुशल क्षेम कह, मन हरषाओ यह शुभ है।।
सूक्ष्मग्राहि बाहुबलि बोले!, पितु ने राज्य विभक्त किया।
पूज्य पिता की दी पृथ्वी पर, हमने स्वाधीपत्य किया।।१६।।
अग्रज पितुसम धर्म नीति से, नमस्कार हम कर सकते।
पर जब खड्ग लिये शिर ऊपर, भ्रात प्रेम क्या कह सकते।।
भरत रहो सुख से निज पुर में, हम निजपुर सुख से रहते।
उभय प्रजा पालन सुख करिये, नहिं उनसे हम कुछ चहते।।१७।।
षट्खंडाधिप चव्रेâश्वर हैं, रहें हमें तो क्या करना।
राजनीति से राज राज कह, नहिं लेना उनका शरणा।।
पूज्य पिता कृत है गौरव मम, फिर भी यदि गर्विष्ठ भरत।
वश करना चाहें मुझको तो, रण में ही दो शक्ति विदित।।१८।।
दूत ने आ भरताधिप से सब समाचार को स्पष्ट कहे।
भरत ने चिंतित होकर मन में, बहुत प्रकार विचार किये।।
बाहुबलि नुति बिना चक्र यह, पुर प्रवेश नहिं कर सकता।
गौरवशाली पोदनेश भी, मम अनुकूल न हो सकता।।१९।।
और भ्रात सब पितु शरणागत, बाहुबली अवशेष अनुज।
युद्ध बिना यह चक्र विरोधी, करने से हो लोक विरुद्ध।।
बहु विमर्श कर भरतेश्वर ने, कुपित हो रण प्रयाण किया।
उभय पक्ष में रण भेरी हुई, सब जग विस्मय चकित हुआ।।२०।।
महा महिम भगवंत के पुत्र, अतुलबली अरु साम्यबली।
महावीर्य युत उभय पक्ष में, वरण करेगी किसे जयश्री।।
सुर विद्याधर बड़े-बडे नृप, सब सुन रण में पहुँच गये।
योद्धागण हुंकार महा रव, से पृथ्वीतल वंâपा दिये।।२१।।
हाथी घोड़े रथ सैनिकगण, का विचित्र संघट्ट हुआ।
महाभयंकर कल कल ध्वनि से, शब्दात्मक यह जगत हुआ।।
सुर नर किन्नर यक्ष विद्याधर, असंख्य जन विस्मित होकर।
बहु कौतुकवश युद्ध देखने, चले सभी परिकर लेकर।।२२।।
नये नये भावों की लहरी, सबके मन में उठती थीं।
उभय भ्रात सौंदर्य गुण कथा, सबके मन को हरती थीं।।
सब नर नारी विस्मित चिंतित, विद्वद्जन स्वभाव जग का।
चिंतन करते साम्यभाव से, जगत सौख्य बहु दु:खप्रदा।।२३।।
कोई भरत गुण स्तवन करते, बाहुबली गुण कोई गाते।
कामदेव चक्रीश उभय गुण, शक्ति की तुलना नहिं पाते।।
अपूर्व साहस उभय भ्रात का, सु देख मंत्री विचारते।
शक्य पराभव किसी का नहीं, है यह मन में चितारते।।२४।।
चरम शरीरी आदीश्वर सुत, आदिचक्रपति आदि मदन।
उभय भ्रात को इस ही भव में, करेगी मुक्तिरमा वरण।।
इति मंत्री गण विमर्श करके, त्वरित भरत के पास गये।
देव देव! मम सुनो प्रार्थना, हम सब कहते खोल हिये।।२५।।
विवेकशाली धर्म नीति प्रिय, त्रिजग ईश के पुत्र उभय।
धर्म अहिंसा प्राण उभय का, हाथ जोड़ हम करें विनय।।
आप प्रभो सम वीर्य पराक्रम, उभय हार में शंका है।
ऐसा कोई उपाय करिये, जिसमें धर्म की रक्षा है।।२६।।
असंख्य प्राणी हिंसा होगी, महा युद्ध यह करने से।
प्रजा हानि सर्वस्व हानि सम, धर्म हानि के बढ़ने से।।
राजा प्रजा को प्राण समझे, प्रजा के प्राण प्रिय राजा।
प्रजापति युग स्रष्टा ब्रम्हा के, सुत जग यश विख्याता।।२७।।
उभय भ्रात में धर्म युद्ध हो, हार जीत उसमें निश्चित।
दृष्टि युद्ध, जल, मल्ल युद्ध ये, धर्म युद्ध हैं पाप रहित।।
अमात्यवर्य की विज्ञप्ति से, धर्माधर्म विचार किया।
स्वीकृत कर त्रय युद्ध भरत ने, उभय सैन्य को विदित किया।।२८।।
सुर नर विद्याधर राजागण, बहु विस्मय युत देख रहे।
भुवनाकाश हुवा जन व्यापक, जन जन तनु रोमांच बहे।।
दोनों भ्राता दृष्टि युद्ध में, अनिमिष दृग कर आपस में।
मानों तृप्त नहीं होते हैं, चिर वियुक्त अब मिलने में।।२९।।
भरत देह है पंचशतक धनु, भुजबलि पंच शतक पच्चीस।
ऊँचे अधिक बाहुबलि अग्रज, नेत्र हुए टिमकार सहित।।
पुन: सरोवर में प्रविष्ट हो, जल से क्रीड़ा युद्ध किया।
अग्रज के मुख पर बहु जल से, व्याकुल करके जीत लिया।।३०।।
पुन: रंगभूमी में उतरे, बाहू युद्ध महान हुआ।
मानो भ्रात मिलन आलिंगन, प्रेम करें यह भास हुआ।।
युद्ध कुशल व्यायाम सुदृढ़तनु, सब जन मन को चकित किया।
लीला मात्र से बाहुबलि ने, चक्राधिप को उठा लिया।।३१।।
छ: खंड वसुधापति अग्रज की, अविनय करना उचित नहीं।
अत: बिठाया निज कंंधे पर, गौरव को रख लिया सही।।
जय जय बाहुबली बलशाली, जय जय जय जयकार हुआ।
अहो चक्रिजित्! अहो पराक्रम! सुर नर सब जयघोष किया।।३२।।
लज्जित खिन्न कुपित चक्रेश्वर, चक्र रत्न संस्मरण किया।
भुजबलि वध करने को उत्सुक, चक्र घुमाकर चला दिया।।
घृणित भाव से कर्ण बंद कर, जनता की ध्वनि प्रकट हुई।
बस बस साहस बस होवे अब, देख नहीं यह सके मही।।३३।।
ज्वलित चक्र ज्योतिर्मय जगमग, प्रभु से सब दिश व्याप्त किया।
सब जन दृग को चकाचौंध कर, बाहुबली के पास गया।।
अवध्य वंशज बाहुबली की, त्रय प्रदक्षिणा दे करके।
प्रभा रहित रुक गया चक्र श्री, बाहुबलि शिष्य सम बनके।।३४।।
पूर्ण विजय श्री वरमाला ले, बाहुबली को वरण किया।
परन्तु अग्रज निर्दयता ने, भुजबलि हृदय विरक्त किया।।
अहो! भरत बहु विवेक पटु हो, कैसे यह अन्याय किया।
अहो! अवध्य जान करके भी, गोत्रज प्रति दुर्भाव किया।।३५।।
धिव्â धिव्â राज्य भोग सुख वैभव, भ्रात प्रेम का घात करें।
धिक धिक मोह महा माया मय, इन्द्रिय सुख बहु दु:ख भरे।।
नहीं रही है नहीं रहेगी, लक्ष्मी विद्युत समाचला।
रहती सदा कीर्ति शुभ रमणी, अविनाशी जग में अचला।।३६।।
जग जीवन में भोग भोग कर, कितने जन्म बिताये हैं।
फिर भी तृप्ति न हुई कदाचित्, तृष्णा में दु:ख पाये हैं।।
अगणित बार स्वर्ग में जाकर, दिव्य महा सुख भोगे हैं।
अगणित बार नरक में जा जा, महा दु:ख भी भोगे हैं।।३७।।
इन्द्रों के वैभव को पाकर, भी संतोष नहीं आवे।
आकिंंचन्य भाव ही ऐसा, जिससे शाश्वत सुख पावे।।
बाहुबलि बोले हे अग्रज!, चक्री पद ऐश्वर्य अहो!
शाश्वत है क्या समझ रहें तुम, जरा विचारों बंधु अहो।।३८।।
अनंत चक्री तुम समान ही, भोग भोग कर चले गये।
अनंत होंगे इस ही भू पर, अरे विचारो खोल हिये।।
सभी आप सम समस्त वसुधा, जीती है और जीतेंगे।
पुन: सभी ऐश्वर्य छोड़कर, चले गये और जावेंगे।।३९।।
वेश्या सम इस लक्ष्मी को पा, इसको अचला मान अरे!
उच्छिष्ट भोगी बन करके भी, वैभव का अभिमान अरे।।
अथिर राज्य है इन्द्र जालसम, स्वप्न सदृश हैं भोग मधुर
। पुत्र मित्र परिजन पुरजन सब, प्रेम करें हैं स्वार्थ चतुर।।४०।।
सुन्दर ललनाओं की लीला, ललित लास्य लावण्य अहो!
मधुर वचन श्रृँगार हास्यमय, वीणा की झांकृत्य अहो!।।
केवल मन को रम्य भासते, हैं इन्द्रियसुख रागी को।
किन्तु अग्नि विष विषधर से भी, अति भयप्रद वैरागी को।।४१।।
वृषभदेव सुत भरतेश्वर ने, निज कुल का उद्धार किया। अहो!
भ्रातृवर इस पृथ्वी पर, तुमने यह शुभ नाम किया।।
यह वैभव सुख रहे आपका, आप इसे अनुभव कीजे।
बाल बुद्धि से किया युद्ध मैं, यह अपराध क्षमा कीजे।।४२।।
अहो पूज्य! पितु तुल्य आप हैं, यह कह सविनय नमन किया।
बड़े जनों का बड़ा हृदय है, क्षमा करो यह विनय किया।।
आज्ञा दो जिनदीक्षा लेंगे, यही मुझे अब इच्छा है।
जग वैभव तन सुख असार है, यही पिता की शिक्षा है।।४३।।
भरत हृदय में चक्ररत्न भी, असह्य दु:खस्वरूप हुआ।
बाहुबली वच श्रवण से हृदय, शोक पूर्ण दुखरूप हुआ।।
भ्रातृप्रेम की गंगा ही क्या, भीतर नहीं समाती है।
नेत्र मार्ग से बह करके ही, पृथ्वीतल पर आती है।।४४।।
क्रोध मान कुछ क्षण पहले का, मोह प्रेम में बदल गया।
मन बहु पश्चात्ताप कर रहा, बंधु भाव भी प्रखर हुआ।।
अहो भ्रात! तुम बिन पृथ्वी का, भोग मुझे क्या रुचिकर हैं।
दीक्षा का यह समय नहीं है, यह चर्चा मम दुखकर है।।४५।।
सब लघु भ्राता दीक्षा लेवें, हम एकाकी राज्य करें।
हे भ्राता! ऐसा मत कहिये, अहो! महा विपरीत अरे।।
कुछ दिन भाई-भाई मिलकर, राज-काज शुभ काम करें।
फिर दीक्षा ले योगी बनकर, कर्म शत्रु का नाश करें।।४६।।
अग्रज की सुन मृदुमय वाणी, भुजबलि सविनय विनय करें। अहो!
विज्ञ! दुख शोक तजो अब, अनुग्रह हो हम गमन करें।।
इस आश्चर्यमयी घटना से, सब जन हा-हाकार करें।
अविरल अश्रुधारा से भुजबलि, चरणों का प्रक्षाल करें।।४७।।
धन्य-धन्य ये त्याग अहो!, धन धन्य आपका भुज विक्रम।
षट्खंडाधिप को भी जीते, अहो वीर्य है महानतम।।
मुकुटबद्ध भूपति खेचरपति, बाहुबलि ढिग आते हैं।
बहु स्तवन प्रशंसन कर, चरणों में शीश झुकाते हैं।।४८।।
बाहुबली सब राज्य मोह सुख, तजकर वन को जाते हैं।
पुत्र मित्र मंत्री जन पुरजन, सब जन दु:ख मनाते हैं।।
इस घटना से अंत:पुर में, हा-हाकार महान हुआ।
मात सुनंदा सभी रानियों, का मिल करुण विलाप हुआ।।४९।।
अहो! एक क्षण भी पहले, जो समरभूमि कहलाती है।
वहीं स्वजन के दु:ख वियोग से, अश्रु नदी बह जाती है।।
कुछ क्षण पहले जहाँ विविध, वाद्यों की सुंदर ध्वनी हुई। अहो!
वहीं सब दिशा व्याप्त कर, करुणा क्रन्दन ध्वनी हुई।।५०।।
परिजन रोये पुरजन रोये, जग का भी कण-कण रोया।
भरत हृदय अति द्रवित हो गया, देवों का भी मन रोया।।
उसी समय से पृथ्वी देवी, नदियों के कल-कल रव से।
रुदन कर रही है ही मानो, शोक पूर्ण कंठ स्वर से।।५१।।
भरतराज यह दृश्य देखकर, मन में बहु दुख पाते हैं।
प्रियहित मधुरमयी वाणी से, सब जन को समझाते हैं।।
अनहोनी हो गई दुखद यह, मन ही मन सकुचाते हैं।
माता के चरणों में नत हो, करनी पर पछताते हैं।।५२।।
सभी रानियाँ विचार करतीं, हम भी कर्म का नाश करें।
दीक्षा लेकर आर्यिका की, क्रम से शिवसुख प्राप्त करें।।
समवसरण में गुरुचरणों का, आश्रय ले सुख पाती हैं।
तत्त्वज्ञान वैराग्य भाव से, वियोग दु:ख भुलाती हैं।।५३।।
दीक्षा लेकर तप आचरतीं, स्त्रीलिंग को नाशेंगी।
दिव्य स्वर्ग सुख भोग मनुज, तन पाकर मुक्ति जावेंगी।।
भरताधिप का क्षीरोदधि जल, मंगल वाद्य महोत्सव से।
महाराज्य अभिषेक किया सब, सुर नर खगपति मिल करके।।५४।।
छत्र फिरे ढुर रहे चमर शुभ, एक छत्र शासन जग में।
परन्तु अनुजों में न विभाग, किया यह राज्य दु:ख मन में।।
अहो भ्रात बिन सार्वभौम मय, चक्ररत्न क्या सुखकारी।
स्वाद रहित अलवण भोजन सम, भ्रातवियोग दुखद भारी।।५५।।
अहो! जगत में दैव बली है, सुघटित को विघटित करता।
अनिर्वार अवितर्विâत अघटित, दुर्घटनाओं को करता।।
गर्व रहित तत्त्वज्ञ चक्रपति, विधिवैचित्र्य विचार करें।
भोग भाग्यमय विधिनियोग से, अनासक्तमन राज्य करें।।५६।।
बाहुबली कैलाशगिरी पर, जाकर जिनदीक्षा लेकर।
एक वर्ष का महायोग ले, खड़े हुए निश्चल होकर।।
भोग चक्रेश्वर भोग भोगते, छ्यानवे सहस रानियों में।
फिर भी योगी योगाभ्यासी, जैसे कमल रहे जल में।।५७।।
काम चक्रेश्वर कामभोग तज, कामदेव मद हरते हैं।
एक वर्ष तक योग लीन हो, योग चक्रेश्वर बनते हैं।।
रहसि खड़े निश्चल कल्पद्रुम, हरित वर्ण तनु शोभ रहा।
लता छद्म से मुक्ती कन्या, सवर्ण प्रभु को देख अहा।।५८।।
वर्ण रूप कुल गुण सदृश लख, पुष्प माल ले वरती है।
शुभ एकांत प्रदेश देखकर, प्रेमालिंगन करती है।।
परमानंद सुखामृत अनुभव, से कुछ-कुछ दृग् मुकुलित हैं।
अविच्छिन्न सुख से ही मानों, कायोत्सर्ग तनु अचलित हैं।।५९।।
भक्ति भाव से दर्शन वंदन, करके भाक्तिक गण आकर।
मानों पूजें चरण कमल युग, नील कमल को ला-लाकर।।
ऐसा भान कराते अजगर, सर्प फिरे ऊँचे फण कर।
चरणों में बल्मीक बनावें, पँुâकारें निर्भय होकर।।६०।।
बड़े प्रेम से हरिणी भी, सिंहों के बच्चे पाल रही।
ब्याघ्र शिशू को दूध पिलाकर, गाय अहो फिर चाट रही।।
जात विरोधी जीव सभी, आपस में मैत्री भाव करें।
हाथी सिंह शृगाल सर्प, खरगोश सभी मिलकर विचरें।।६१।।
सौम्य मूर्ति को शांत छवि को, देख-देख अनुकरण करें।
शांत भाव से जन्म जात भी, व्रूâर वैर दुर्भाव हरे।।
वन के वृक्ष पुष्प फल युत हो, अतिशय झुकते जाते हैं।
मानों भक्ति में विभोर हो, झुक झुक शीश नमाते हैं।।६२।।
लता वल्लरी निज पुष्पों से, पुष्प वृष्टि करती रहतीं।
मधुकर के मधुर स्वर से, गुण गान सदा करती रहती।।
सुखद पवन बह रही सुगंधित, लता डालियाँ हिलती हैं।
मानों वन लक्ष्मी भुजप्रसरित, लय से नर्तन करती है।।६३।।
षट् ऋतु के सब फल पुष्पादिक, फलित फ़ूलते हैं वन में।
योगीश्वर दर्शन से मानों, हर्षित होते हैं मन में।।
वनक्रीड़ा के लिए वहाँ पर, विद्याधरियाँ आती हैं।
योगीश्वर को नमस्कार कर, कर विस्मित हो जाती हैं।।६४।।
योगलीन तनु पर बिच्छू, सर्पादिक क्रीड़ा करते हैंं।
लता भुजाओं तक चढ़ती हैं, बहु वनजंतु विचरते हैं।।
लता मंजरी हटा हटा कर, सर्प को दूर भगाती हैं।
फिर भी मानों अधिक प्रेम से, ही आ आ लग जाती हैं।।६५।।
अहो! ध्यान है धन्य धन्य, धन धन्य योगमय मुद्रा है।
सदा खड़े हैं धर्म ध्यान में, नहीं कदाचित् तंद्रा है।।
विद्याधर ज्योतिव्र्यंतर, सुर के विमान रुक जाते हैं।
उतर उतर कर सब दर्शन, पूजन करके सुख पाते हैं।।६६।।
हाथी हथिनी कमल पत्र में, प्रीती से जल लाते हैं।
भक्ति भाव से बाहुबलि के, श्री चरणों में चढ़ाते हैं।।
अहो! प्रभु की अद्भुत महिमा, देख देख सब चकित हुए।
मनो मोहिनी सुंदर छवि को, देख देख सब मुदित हुए।।६७।।
प्रिया हजारों छोड़ीं फिर भी, मुक्तिरमा से प्रीति करें।
राज्य भोग संपत्ति में निस्पृह, कर्मशत्रु से युद्ध करें।।
मनसिज हो मन को वश में कर, मनोज मद का नाश किया।
इन्द्रिय सुख में निस्पृह हो भी, निरुपम सुख की आश किया।।६८।।
चतुराहार त्याग है तो भी, स्वात्म सुधारस पीते हैं।
क्रोध मान से रहित अहो!, फिर भी कषाय अरि जीते हैं।।
षट्कायों की दया पालते, मोहराज प्रति निर्दयता।
चरित्र व्रत गुण में ममत्व है, निज शरीर में निर्ममता।।६९।।
सब जीवों में प्रेमभाव है, नहीं किसी से मत्सर द्वेष।
पंचम गति को मन उत्सुक है, चतुर्गती दुख से विद्वेष।।
रत्नत्रय निधि के स्वामी हैं, फिर भी आकिंचन्य अहो!।
पंच परावर्तन से डर कर, पाया निर्भय पंथ अहो!।।७०।।
सब जग से वैरागी होकर, आत्म गुणों में रागी हैं।
योगी निजानंद सुख भोगी, शुद्धातम अनुरागी हैं।।
ज्ञानी ध्यानी मौनी त्यागी, अकंप निश्चल सुमेरु सम।
महामना हे महाप्रभावी, दृढ़प्रतिज्ञ हैं महानतम।।७१।।
बाहुबली भुजबली दोर्बली, मनोबली हैं कायबली।
निर्बल भी प्रभु से बल पाते, आत्मबली भी महाबली।।
शीत तुषार ग्रीष्म वर्षादिक सभी परिषह सहते हैं।
महा परीषह विजयी स्वामी, महोग्रोग्रतप करते हैं।।७२।।
महातप:प्रभाव से बुद्धी, विक्रिय सर्वौषधि ऋद्धी।
आदि सभी ऋद्धियाँ प्रगट हो, करती जन जन की सिद्धी।।
दिव्य मन:पर्यय ज्ञानद्र्धि, घोर पराक्रम दीप्त महा।
अणिमा महिमादिक आमर्श, जल्लौषधि औ क्षीरस्रवा।।७३।।
अमृतस्रावी मधुरस्रावी, महानसालय अक्षीण है।
काय वचन मन बल ऋद्ध्यादिक, मुक्तिवधू दूतीसम है।।
परन्तु योगी योग लीन हैं, नहीं प्रयोजन इनसे है।
जन-जन आकर विष रोगादिक, कष्ट निवारण करते हैं।।७४।।
महा तपोबल से देवों के, आसन कंपित हो जाते।
बार बार सब शीश झुकाते, नमस्कार हैं कर जाते।।
सब संकल्प विकल्प रहित प्रभु, आत्म ध्यान में निश्चल हैं।
एक वर्ष उपवास पूर्ण कर, शुक्ल ध्यान के सन्मुख हैं।।७५।।
उस ही दिन भरतेश्वर आकर, विधिवत् पूजा करते हैं।
बाहुबली तत्काल परम, केवलज्ञानेश्वर बनते हैं।।
बाहुबलि का हृदय कदाचित्, स्वल्प विकल्पित हो जाता।
भरत को मुझसे क्लेश हो गया, भ्रातृप्रेम यह जग जाता।।७६।।
अत: भरत के पूजन करते, केवलज्ञान प्रकाश हुआ।
निज अपराध निवारण कारण, भरत प्रथमत: नमन किया।।
केवलज्ञान सूर्य के उगते, देवों के आसन कांपे।
मुकुट कोटि झुक गये स्वयं, कल्पद्रुम से सुपुष्प बरसे।।७७।।
स्वर्गों से इन्द्रादिक आकर, जय जय जय ध्वनि करते हैं।
गंधकुटी की रचना करके, प्रभु की पूजा करते हैं।।
छत्र फिरे ढुर रहे चंवर, सिंहासन दुंदुभि ध्वनि होती।
मंद सुगंधित पवन चल रही, पुष्पों की वृष्टी होती।।७८।।
भरतेश्वर बहु हर्षित होकर, अनुपम पूजा करते हैं।
नहीं समर्थ है सरस्वती, जन क्या वर्णन कर सकते हैं।।
भ्रातृप्रेम धर्मानुराग, जन्मान्तर का संस्कार महान।
केवलपद की भक्ति चार के, मिलने से वैशिष्ट्य महान।।७९।।
अहो एक के ही निमित्त से, भाक्तिक जन का मन खिलता।
फिर जब चारों ही मिल जावें, हर्ष पार क्या हो सकता।।
गंगाजल की ही जलधारा, गंध सुगंधित चंदन है।
मोती के अक्षत कल्पद्रुम, पारिजात के शुभ सुम हैं।।८०।।
अमृतमय नैवेद्य रत्न के, दीप मलयगिरि धूप महा।
कल्पवृक्ष के फल रत्नों के, अघ्र्य चढ़ावें श्रेष्ठ अहा।।
षट्खंडाधिप भरत चव्रेâश्वर, स्वयं पुजारी भक्त जहाँ।
योग चक्रेश्वर पूज्य केवली, पूजन का क्या ठाठ वहां।।८१।।
सुर किंनर गंधर्व खगेश्वर, नरपति पूजन करते हैं।
जय जय महाबली बाहूबलि, जय जयकार उचरते हैं।।
केवलज्ञान ज्योति से प्रभु ने, जगत चराचर देख लिया।
सबके स्वामी अंतर्यामी, सबको हित उपदेश दिया।।८२।।
इन्द्र नरेन्द्र मुनींद्र मध्य से, बाहुबली प्रभु शोभ रहे।
चक्रवर्ति जित घातिकर्मजित, अनुपम सुख को प्राप्त हुए।।
मनसिज मर्दन मनुकुल वर्धन, कर्माटवि को दहन किया।
मुनिजन हृदय सरोरुह भास्कर, स्वात्मसौख्य आनंद लिया।।८३।।
देश देश में बिहार करते, धर्मामृत बरसाते हैं।
केवलज्ञान सूर्य किरणों से, भव्य कमल विकसाते हैं।।
चतुर्गती परिवर्तन के दुख से, भव्यों को बचा लिया।
शिवपथ भ्रष्ट पथिक जन-जन को, मुक्तिमार्ग शुभ दिखा दिया।।८४।।
अष्टापद गिरि पर जाकर के, त्रिकरण योगनिरोध किया।
कर्म अघाती भी विनाश कर, नि:श्रेयस सुख प्राप्त किया।
परमानंद सुखास्पद अनुपम, लोक शिखर पर जाते हैं।
शतेन्द्र वंदित मुनिजन र्कीितत, त्रिजग ईश कहलाते हैं।।८५।।
जय जय हे त्रैलोक्य शिखामणि! जय इक्ष्वाकु वंश भूषण!।
जय जय जन्म जरामृति भयहर! जय जय मोह मल्ल चूरण!।।
जय जय कर्मशत्रु मदभंजन, नित्य निरंजन नमो नमो।
सिद्ध शुद्ध परमात्म चिदंबर, चिन्मय ज्योती नमो नमो।।८६।।
भरतराज ने पोदनपुर में, बाहुबली की मूर्ति महा।
भक्ति भाव से की स्थापित, पंचशतक धनु तुंग महा।।
सुर नर मुनि जन प्रतिदिन पूजें, भक्ति भाव से दर्श करें।
महा महिम जिनबिंब दर्श से, जन्म जन्म के पाप हरें।।८७।।
कर्नाटक में श्रवणबेलगुल, अतिशय क्षेत्र प्रसिद्ध महा।
भद्रबाहु श्रुतकेवलि गुरु की, हुई समाधी श्रेष्ठ जहाँ।।
चन्द्रगुप्त सम्राट् दिगंबर, मुनिवर की गुरु भक्ती का।
दृश्य दिखा स्मरण कराता, गुरुभक्ति भवाब्धि नौका।।८८।।
नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती, गुरुवर के शिष्य प्रधान।
चामुंडराय प्रथित गुणभूषित, श्रावककुल अवतंस महान।।
विंध्यगिरी पर्वत के ऊपर, सत्तावन फुट तुंग महा।
अति मनोज्ञ मूर्ति स्थापित की, वीतराग की छवी महा।।८९।।
धैर्य वीर्य गांभीर्य सौम्य शुभ, गुण मूर्ती में प्रगट अहो।
सचमुच में ही दर्श दे रहे, बाहुबली साक्षात् अहो।।
लंबित हैं घुटनों तक बाहू, नासा दृष्टि विकार रहित।
स्मित मुख प्रकटित करता, अन्त:कालुष्य विषाद रहित।।९०।।
सर्पों के मुख की विष अग्नि, चरणों का आश्रय पाकर।
शांत हो गई जय जय भुजबलि, शांति सुधामय रत्नाकर।।
जय जय सकल मध्य युद्ध-त्रय में भरतेश्वर को जीता।
राज्यभोग सुख त्याग मुक्ति, के लिए ग्रहण की जिनदीक्षा।।९१।।
भरतराज ने सकल दिग्विजय, कर जो जयकीर्ति पाई।
वो ही चक्ररूप मूर्तिक बन, जगमग ज्योति ज्वलित आई।।
सब जन बीच बाहुबलि प्रभु की, प्रदक्षिणा त्रय दीनी थी।
फिर भी प्रभु से त्यक्त तिरस्कृत, लज्जित सम ही उस क्षण थी।।९२।।
वही कीर्ति श्री योग रूढ़ को, लता छद्म से वेढ़ लिया।
अद्यावधि माहात्म्य प्रकट कर, रही जगत सब व्याप्त किया।।
स्वानुभूति रस रसिक जनों के, मन समुद्र की वृद्धि करे।
ध्यानामृत का बोध करा कर, सब संकल्प विकल्प हरे।।९३।।
करना नहीं रहा कुछ भी, कृतकृत्य प्रभो! भुज लंबित हैं।
नहीं भ्रमण करना जग में अब, अत: चरण युग अचलित हैं।।
देख चुके सब जग की लीला, अंंतरंग अब देख रहे।
सुन सुन करके शांति न पाई, अत: विजन में खड़े हुये।।९४।।
वर्षा ऋतु में मेघदेव, भक्ती से जल अभिषेक करें।
शीत काल में हिम कण सुन्दर, शर्वâरसम अभिषेक करें।।
मेघ पंक्तियाँ घिर घिर आती, इक्षु रस इव दिखती हैं।
पुन: सूर्य की किरण सुनहरी, घृत अभिसिंचन करती हैं।।९५।।
पूर्ण चंद्र रात्री में आकर, भक्ति भाव से मुदित हुआ।
दुग्धाब्धि अमृतसम किरणों, से प्रभु का बहु न्वहन किया।।
शशि ज्योत्स्ना शुक्ल ध्यान सम, शुभ्र दही ले आती हैं।
भक्ति भाव से स्नपन करती, रहती तृप्ति न पाती हैं।।९६।।
भास्कर देव सहस्र करों से, केशर चंदन को लेकर।
हर्षित प्रेम भक्ति से गद्गद्, हो अभिषेक करें दिनभर।।
प्रकृती देवी निज सुषमा से, नित प्रति पूजन करती हैं।
मधुर हास्यमय सुमन वृष्टि कर, जन जन का मन हरती हैं।।९७।।
मुनिजन श्रावकगण आ आकर, दर्शन वंदन करते हैं।
भक्ति से हर्षित मन गद् गद्, हो बहु स्तवन उचरते हैं।।
सौम्य मूर्ति को देख देखकर, रोमांचित हो जाते हैं।
जन्म जन्म कृत पाप दूर कर, प्रेमाश्रु को बहाते हैं।।९८।।
देश विदेशों से जन आते, कौतुक से दर्शन करते।
शिल्पकला सौंदर्य देखते, मन में बहु हर्षित होते।।
उनके मन का हर्ष भाव भी, पापपुंज का नाश करे।
भक्ति बिना अज्ञातरूप ही, पुण्य कर्म का बंध करे।।९९।।
प्राकृत रूप अनूप निरंबर, निराभरण तनु शोभ रहा।
जग की कला सृष्टि में अनुपम, कला रूप सौंदर्य अहा!।।
दर्शकगण अपूर्व शांतीरस, का अनुभव कर सुख पाते।
यही रूप इक परम शांतिप्रद, नहीं और यह कह जाते।।१००।।
नास्तिकवादी भी दर्शन कर, बहु विस्मित हो जाते हैं।
जिनमत द्विष मिथ्यादृष्टि के, भी मस्तक झुक जाते हैं।।
धर्मद्रोहि मूर्तिध्वंसक भी, चरणों में नत हुए अहो।
चमत्कार से जन जन के मन, आश्चर्यान्वित हुए अहो।।१०१।।
दक्षिणवासी जैनेतर भी, प्रभु को इष्ट देव कहते।
मनोकामना पूरी होती, दु:ख दारिद्र कष्ट हरते।।
चिंतामणि पारस कल्पद्रुम, मन चिंतित फलदायक है।
वीतराग छवि दर्श अहो!, अनुपम अचिंत्य फलदायक है।।१०२।।
युग युग से यह मूर्ति जगत को, शुभ संदेश सुनाती है।
यदि सुख शांति विभव चाहो, सब त्याग करो सिखलाती है।।
यदि नश्वर धन इन्द्रिय सुख तज, तन निर्मम बन जावोगे।
अविनश्वर अनंत सुख पा, त्रैलोक्य धनी बन जावोगे।।१०३।।
जय जय संवत्सर निश्चल तनु!, जय जय महा तपस्वी हे।
जात रूपधर! विश्व हितंकर!, जय जय महा मनस्वी हे।।
नाभिराज के पौत्र मदनतनु, पुरुदेवात्मज नमो नमो।
मात सुनंदासुत भरताधिप-नुत पादाम्बुज नमो नमो।।१०४।।
इन्द्र नरेन्द्र मुनीन्द्र भक्ति से, घिस घिस शीश प्रणाम करें।
लिखी भाल में कुकर्म रेखा, मानों घिस घिस नाश करें।।
चित्सुखशांति सुधारस दाता, भविजन त्राता नमो नमो।
शिवपथनेता शर्म विधाता, मन वच तन से नमो नमो।।१०५।।
जो जन भक्ति भाव से प्रभु का, गुण संकीर्तन करते हैं।
नर सुर के अभ्युदय भोगकर, नि:श्रेयस को पाते हैं।।
मुनि जन हृदय सरोरुहबंधु!, भवि कुमुदेंदु! नमो नमो।
भुक्तिमुक्ति फलप्रद! गुण सिंधु!, हे जग बंधु! नमो नमो।।१०६।।
हे दु:खित जन वत्सल! शरणागत-प्रतिपालक! बाहुबली।
त्राहि त्राहि हे करुणासिंधो, पाहि जगत से महाबली।।
जय जय मंगलमय लोकोत्तम, जय जय शरणभूत जग में।
जय जय सकल अमंगल दु:खहर, जय जयवंतो प्रभु जग में।।१०७।।
जय जय हे जग पूज्य! जिनेश्वर, जय जय श्री गोम्मटेश्वर की।
जय जय जन्म मृत्यु हर! सुख कर! जय जय योग चक्रेश्वर की।।
जय जय हे त्रैलोक्य हितंकर, सब जग में मंगल कीजे।
जय जय मम रत्नत्रय पूर्ती, कर जिनगुणसंपद दीजे।।१०८।।
-दोहा- ‘‘वीर’’ अब्द चउवीस शत, इक्यानवे प्रमान।
आश्विन श्यामा द्वादशी, रचना पूरन जान।।१०९।।
यावत रवि शशि मेदिनी, का है जग में वास।
श्री बाहुबलि चरित ये, तावत् करो प्रकाश।।११०।।
‘‘ज्ञानमती’’ प्रभु दीजिये, हरिये तम अज्ञान।
पढ़िये भविजन भाव से, लहिये पद निर्वाण।।१११।। ।।