श्रुतधर आचार्यों की परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य कौन हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर इतिहासकारों ने बड़े आदर से महान आचार्यश्री गुणधर देव का नाम लिया है। श्रीगुणधर और धरसेन ये दोनों आचार्य श्रुत के प्रतिष्ठापकरूप से प्रसिद्ध हुए हैं फिर भी गुणधरदेव, धरसेनाचार्य की अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे और लगभग उनके दो सौ वर्ष पूर्व हो चुके हैं ऐसा विद्वानों का अभिमत है अतएव आचार्य गुणधर को दिगम्बर परम्परा में लिखितरूप से प्राप्त श्रुत का प्रथम श्रुतकार माना जा सकता है। धरसेनाचार्य ने किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की, जब कि गुणधराचार्य ने पेज्जदोसपाहुड ग्रन्थ की रचना की है।
आचार्य का समय
ये गुणधराचार्य किनके शिष्य थे इत्यादि रूप से इनका परिचय यद्यपि आज उपलब्ध नहीं है तो भी उनकी महान कृति से ही उनकी महानता जानी जाती है।
यथा-
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वो: पूर्वापरक्रमोऽस्माभि:। न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात्।।५१।।
गुणधर और धरसेन की पूर्वापर गुरु परम्परा हमें ज्ञात नहीं है क्योंकि इसका वृत्तांत न तो हमें किसी आगम में मिला और न किसी मुनि ने ही बतलाया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्रनंदि आचार्य के समय तक आचार्य गुणधर और धरसेन का गुरु शिष्य परम्परा का अस्तित्व स्मृति के गर्भ में विलीन हो चुका था फिर भी इतना स्पष्ट है कि श्री अर्हद्बलि आचार्य द्वारा स्थापित संघों में गुणधर संघ का नाम आया है। नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली में अर्हद्बलि का समय वीर नि.सं. ५५६ अथवा वि. सं. ९५ है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गुणधर देव अर्हद्बलि के पूर्ववर्ती हैं पर कितने पूर्ववर्ती हैं, यह निर्णयात्मकरूप से नहीं कहा जा सकता। यदि गुणधर की परम्परा को ख्याति प्राप्त करने में सौ वर्ष का समय मान लिया जाए तो षट्खंडागम के प्रवचनकर्ता धरसेनाचार्य से कसायपाहुड के प्रणेता गुणधराचार्य का समय लगभग दो सौ वर्ष पूर्व सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार आचार्य गुणधर का समय विक्रम पूर्व प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है।
कषायपाहुड़ ग्रन्थ रचना
भगवान महावीर की दिव्यध्वनि को सुनकर श्री गौतमस्वामी ने उसे द्वादशांगरूप से निबद्ध किया। यह द्वादशांग श्रुत अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु आचार्य तक पूर्णरूप से विद्यमान रहा पुन: धीरे-धीरे ह्रास होते हुए अंग और पूर्व के एकदेशरूप ही रह गया तब श्रुतरक्षा की भावना से पे्ररित हो कुछ आचार्यों ने उसे ग्रन्थरूप से निबद्ध किया।
श्रीगुणधराचार्य को पाँचवे ज्ञानप्रवाद पूर्व की दशवीं वस्तु के तीसरे पेज्जदोसपाहुड का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त था जबकि षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों के प्रणेताओं को उक्त ग्रन्थों की उत्पत्ति के आधारभूत महाकम्मपयडिपाहुड का आंशिक ही ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस प्रकार से गुणधराचार्य ने कसायपाहुड़ जिसका अपरनाम पेज्जदोसपाहुड भी है, उसकी रचना की है। १६००० पद प्रमाण कसायपाहुड़ के विषय को संक्षेप से एक सौ अस्सी गाथाओं में ही उपसंहृत कर दिया है।
पेज्ज नाम प्रेयस् या राग का है और दोस नाम द्वेष का है। यत: क्रोधादि चारों कषायों में माया, लोभ को रागरूप से और क्रोध, मान को द्वेषरूप से, ऐसे ही नव नोकषायों का विभाजन भी राग और द्वेषरूप में किया है अत: प्रस्तुत ग्रन्थ का मूल नाम पेज्जदोसपाहुड है और उत्तर नाम कसायपाहुड है।
कषायों की विभिन्न अवस्थाओं का एवं इनसे छूटने का विस्तृत विवेचन इस ग्रन्थ में किया गया है अर्थात् किस कषाय के अभाव से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है, किस कषाय के क्षयोपशम आदि से देशसंयम और सकलसंयम की प्राप्ति होती है, यह बतला करके कषायों की उपशमना और क्षपणा का विधान किया गया है। तात्पर्य यही है कि इस ग्रन्थ में कषायों की विविध जातियां बतला करके उनके दूर करने का मार्ग बतलाया गया है।
इस ग्रन्थ की रचना गाथासूत्रों में की गई है। आचार्य गुणधरदेव स्वयं कहते हैं-
वोच्छामि सुत्तगाहा जपिगाहा जम्मि अत्थम्मि
जिस अर्थाधिकार में जितनी-जितनी सूत्र गाथायें प्रतिबद्ध हैं, उन्हें मैं कहूँगा।
इस ग्रन्थ में कुल २३३ गाथायें हैं, जिन्हें कसायपाहुड सुत्त की प्रस्तावना में पं. हीरालाल जी ने श्रीगुणधराचार्य रचित ही माना है अर्थात् ५३ गाथाओं में विवाद होकर भी गुणधराचार्य रचित ही निर्णय मान्य होता है।
‘‘इस प्रकार के उपसंहृत एवं गाथासूत्र निबद्ध द्वादशांग जैन वाङ्मय के भीतर अनुसंधान करने पर यह ज्ञात हुआ है कि कसायपाहुड ही सर्वप्रथम निबद्ध हुआ है। इससे प्राचीन अन्य कोई रचना अभी तक उपलब्ध नहीं है।’’ अत: श्री गुणधराचार्य दिगम्बराचार्य की परम्परा में प्रथम सूत्रकार माने जाते हैं।
ग्रन्थ की महत्ता
आचार्य इन्द्रनंदि ने अपने श्रुतावतार में कहा है कि कसायपाहुड ग्रन्थ पर आचार्य यतिवृषभ ने ६,००० श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र रचे हैं।
उच्चारणाचार्य ने १२,००० श्लोक प्रमाण में उच्चारणावृत्ति रची है। शामकुन्डाचार्य ने ४८,००० श्लोक प्रमाण में पद्धति नाम से व्याख्या रची है। तुम्बलूराचार्य ने ८४,००० श्लोक प्रमाण में चूड़ामणि टीका रची है और आचार्यश्री वीरसेन तथा जिनसेन ने ६०,००० श्लोक प्रमाण में जयधवला नाम से टीका लिखी है। उपलब्ध जैन वाङ्मय में से कसायपाहुड पर ही सबसे अधिक व्याख्यायें और टीकायें रची गई हैं। यदि उक्त समस्त टीकाओं के परिमाण को सामने रखकर मात्र २३३ गाथाओं वाले कसायपाहुड को देखा जाए तो वह दो लाख प्रमाण से भी ऊपर सिद्ध होता है। वर्तमान में मूल गाथाएँ यतिवृषभाचार्यकृत चूर्णिसूत्र और जयधवला टीका ही उपलब्ध है, बाकी टीकाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
चूर्णिसूत्रकार ने और जयधवलाकार ने तो इनकी गाथाओं को बीजपदरूप और अनंतार्थगर्भी कहा है। ‘‘कसायपाहुड की किसी-किसी गाथा के एक-एक पद को लेकर एक-एक अधिकार का रचा जाना तथा तीन गाथाओं का पांच अधिकारों में निबद्ध होना ही गाथाओं की गम्भीरता और अनंत अर्थगर्भिता को सूचित करता है। वेदक अधिकार की जो जंसंकामेदिय’’ (गाथांक ६२) गाथा के द्वारा चारों प्रकार के बंध, चारों प्रकार के संक्रमण, चारों प्रकार के उदय, चारों प्रकार की उदीरणा और चारों प्रकार के सत्व सम्बन्धी अल्पबहुत्व की सूचना निश्चयत: उसके गांभीर्य और अनन्तार्थगर्भित्व की साक्षी है। यदि इन गाथा सूत्रों में अंतर्निहित अनंत अर्थ को चूर्णिकार व्यक्त न करते, तो आज उनका अर्थबोध होना असम्भव था।
इस ग्रंथ का भगवान महावीर स्वामी से सीधा सम्बन्ध है। देखिए-स्वयं जयधवलाकार प्रस्तुत ग्रंथ के गाथासूत्रों और चूर्णिसूत्रों को किस श्रद्धा और भक्ति से देखते हैं, यह उन्हीं के शब्दों में देखिए। एक स्थल पर शिष्य के द्वारा यह शंका किए जाने पर कि यह वैâसे जाना ? इसके उत्तर में वीरसेनाचार्य कहते हैं-
अर्थात् विपुलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रकट होकर गौतम, लोहार्य (सुधर्मा स्वामी) और जम्बूस्वामी आदि की आचार्य परम्परा से आकर और गुणधराचार्य को प्राप्त होकर गाथास्वरूप से परिणत हो पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ति द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त होकर और उनके मुख- कमल से चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते हैं।
‘‘पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि जो दिव्यध्वनि भगवान महावीर से प्रगट हुई है वही गौतमादि के द्वारा प्रसारित होती हुई गुणधराचार्य को प्राप्त हुई और फिर उनके द्वारा गाथारूप से परिणत होकर आचार्य परम्परा द्वारा आर्यमंक्षु और नागहस्ति को प्राप्त होकर उनके द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त हुई और फिर वही दिव्यध्वनि चूर्णिसूत्रों में निर्दिष्ट प्रत्येक बात दिव्यध्वनिरूप ही है। इसमें किसी प्रकार के संदेह या शंका की कुछ भी गुंजाइश नहीं है। अस्तु! कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों में जिस ढंग से वस्तुतत्त्व का निरूपण किया गया है, उसी से वह सर्वज्ञ कथित है’’ यह सिद्ध होता है।
इस उपर्युक्त प्रकरण से आचार्य परम्परा और श्रुत परम्परा का अविच्छेद भी जाना जाता है।
जयधवलाकार तो इस कषायपाहुड के ऊपर रचे गए चूर्णिसूत्रों को षट्खण्डागम सूत्रों के सदृश सूत्र- रूप और प्रमाण मानते हैं। देखिए-किसी स्थल पर चूर्णिकार यतिवृषभ और षट्खंडागम के कर्ता भूतबलि के मत में कुछ अन्तर होने पर श्री वीरसेनाचार्य कहते हैं कि
इन दोनों उपदेशों में से सत्य तो एक ही होना चाहिए किन्तु किसी एक की सत्यता का निर्णय आज केवली या श्रुतकेवली के न होने से सम्भव नहीं है अतएव दोनों का ही संग्रह करना चाहिए।
श्री वीरसेनाचार्य ने भगवान की दिव्यध्वनि को सूत्र कहा है पुन: श्रीगणधरदेव और गणधरदेव के वचनों को भी सूत्र सम कहकर प्रमाणता दी है तथा सूत्र के लक्षण के बाद प्रश्न होता है कि-
‘इस वचन से ये गाथाएँ सूत्र नहीं हैं क्योंकि गणधर, प्रत्येक बुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वी के वचन सूत्र माने गए हैं किन्तु भट्टारक गणधरादि नहीं हैं तो आचार्य कहते हैं कि नहीं, गुणधर भट्टारक की गाथाएँ निर्दोष, अल्पाक्षर एवं सहेतुक होने से सूत्र के समान हैं अत: इन्हें सूत्र ही माना गया है।’’ ऐसे ही कई स्थलों पर जयधवला में उल्लेख है।
इन सभी बातों से आचार्य गुणधर देव कितने महान थे और उनका यह कसायपाहुड ग्रन्थ कितना महान है, इसका बोध सहज ही हो जाता है।
महत्त्वपूर्ण गाथा-
उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति का पूरा वर्णन करके सम्यक्त्व के लक्षण को बतलाते हुए श्रीगुणधरदेव कहते हैं सम्माइट्ठी जीवो पवयणं णियमसा दु उवइट्ठं।। सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा।।१०७।।
अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है किन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान कर लेता है।
यह गाथा किसी ग्रंथ में इसी रूप में अथवा कहीं पर किंचित् परिवर्तित रूप में कई ग्रन्थों में आती है। लब्धिसार में गाथा का पूर्वार्ध बदला हुआ है और उत्तरार्ध यही है। वहां पर अजाणमाणो गुरुणिओगा का अर्थ टीकाकर ने ऐसा किया है कि गुरु यदि विस्मरण से, दुष्ट अभिप्राय से अथवा ज्ञान से कुछ गलत अर्थ भी कह रहे हैं और शिष्य गुरु के वचन पर श्रद्धान कर रहा है तो वह सम्यग्दृष्टि ही है, मिथ्यादृष्टि नहीं है। पुन: आगे गाथा में कहते हैं कि यदि किसी अन्य आचार्य ने सूत्र से सही अर्थ को दिखा दिया है और फिर वह पूर्व के हठ को नहीं छोड़ता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
इस उपर्युक्त गाथा से गुरु के वचन का महत्त्व दिख रहा है तथा पुनरपि अन्य गुरु के द्वारा आगम पंक्ति दिखाए जाने पर भी यदि कोई दुराग्रह को नहीं छोड़ता है तो वास्तव में अपने सम्यक्त्वरत्न को छोड़ देता है अत: आचार्यों के वचनों पर हमें दृढ़ श्रद्धान होना चाहिए क्योंकि आज हमारे सामने केवली या श्रुतकेवली नहीं हैं। वर्तमान के उपलब्ध प्रामाणिक ग्रन्थ ही उनकी वाणीरूप होने से श्रद्धान करने योग्य हैं और सर्वथा मान्य हैं तथा पूर्व में आचार्य ग्रन्थों को गुरुमुख से ही पढ़ते थे पुन: उस पर टीका या भाष्य आदि लिखते थे, यह भी स्पष्ट दिख रहा है।
गुणधर देव के इस इतिहास से हमें यह समझना है कि ये आचार्य विक्रम पूर्व की प्रथम शताब्दी में हुए हैं अत: ये षट्खण्डागम के उपदेष्टा श्री धरसेनाचार्य व कुन्दकुन्दाचार्य आदि से प्रथम हुए हैं। इनका ग्रन्थ कसायपाहुड महान सूत्र ग्रन्थ है जो कि चूर्णिसूत्र व हिन्दी सहित वीर सेवा मन्दिर से छप चुका है और जयधवला टीका भी (मथुरा संघ से) कई भागों में छप चुकी है। जयधवला टीका के अध्ययन से इस ग्रन्थ के रहस्य को कुछ समझ सकते हैं एवं उपर्युक्त गाथा नं. १०७ को यदि पाठकगण हृदय में अंकित कर लेंगे तथा उसके अनुरूप आचार्यों की वाणी पर पूर्ण श्रद्धान करेंगे तो अवश्य ही इस सम्यग्दर्शन के बल पर संसार समुद्र को पार कर लेंगे।