Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
Search
विशेष आलेख
पूजायें
जैन तीर्थ
अयोध्या
भगवान चन्द्रप्रभु पूजा
July 13, 2020
पूजायें
jambudweep
भगवान श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा
अथ स्थापना
नरेन्द्र छंद
अर्धचन्द्र सम सिद्ध शिला पर, श्रीचन्द्रप्रभ राजें।
चन्द्रकिरण सम देह कांति को, देख चन्द्र भी लाजे।।
अतः आपके श्री चरणों में, हुआ समर्पित चंदा।
आह्वानन कर चन्द्रप्रभू का, मेरा मन आनंदा।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक
नरेन्द्रछंद
गंगा सरिता का निर्मल जल, रजत कलश भर लाऊँ।
श्री चन्द्रप्रभ चरण कमल में, धारा तीन कराऊँ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
निज समरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन केशर घिस, गंध सुगंधित लाऊँ।
जिनवर चरण कमल में चर्चूं, निजानंद सुख पाऊँ।।मुनि.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्रकिरणसम उज्ज्वल तंदुल, लेकर पुंज रचाऊँ।
अमल अखंडित सुख से मंडित, निजआतम पद पाऊँ।।मुनि.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्ली बेला कमल केवड़ा, पुष्प सुगंधित लाऊँ।
जिनवर चरण कमल में अर्पूं, निजगुण यश विकसाऊँ।।मुनि.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतपिंड सदृश चरु ताजे, घेवर मोदक लाऊँ।
जिनवर आगे अर्पण करते, सब दुःख व्याधि नशाऊँ।।
मुनि मनकुमुद विकासी चंदा, चन्द्रप्रभू को पूजूँ।
निज समरस सुख सुधा पान कर, भव भव दुःख से छूटूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक में ज्योति जलाकर, करूँ आरती भगवन्।
निज घट का अज्ञान दूर हो, ज्ञानज्योति उद्योतन।।मुनि.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर तगर चंदन से मिश्रित, धूप सुगंधित लाऊँ।
अशुभ कर्म के दग्ध हेतु मैं, अग्नी संग जलाऊँ।।मुनि.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम अंगूर सरस फल, लाके थाल भराऊँ।
जिनवर सन्निध अर्पण करते, परमानंद सुख पाऊँ।।मुनि.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत कुसुमावलि, आदिक अर्घ बनाऊँ।
उसमें रत्न मिलाकर अर्पूं, ‘ज्ञानमती’ निधि पाऊँ।।मुनि.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
पद्मसरोवर नीर से, चन्द्रप्रभ चरणाब्ज।
त्रयधारा विधि से करूँ, मिले शांति साम्राज्य।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जुही गुलाब सुगंधियुत, वर्ण वर्ण के फूल।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले सौख्य अनुकूल।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
पंचकल्याणक अर्घ
गीताछंद
जिनचंद्र विजयंते अनुत्तर, से चये आये यहाँ।
महासेन पितु माँ लक्ष्मणा के, गर्भ में तिष्ठे यहाँ।।
शुभ चंद्रपुरि में चैत्रवदि, पंचमि तिथी थी शर्मदा।
इंद्रादि मिल उत्सव किया, मैं पूजहूँ गुणमालिका।।१।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णापंचम्यां श्रीचंद्रप्रभजिनगर्भकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चन्द्र जिनवर पौष कृष्णा, ग्यारसी शुभयोग में।
जन्में उसी क्षण सर्व बाजे, बज उठे सुरलोक में।।
तिहुँलोक में भी हर्ष छाया, तीर्थकर महिमा महा।
सुरशैल पर जन्माभिषव को, देखते ऋषि भी वहाँ।।२।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनजन्मकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
आदर्श में मुख देखकर, वैराग्य उपजा नाथ को।
वदि पौष एकादशि दिवस, इंद्रादि सुर आये प्रभो।।
पालकी विमला में बिठा, सर्वर्तुवन में ले गये।
स्वयमेव दीक्षा ली किया, बेला जगत वंदित हुए।।३।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाएकादश्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदी सप्तमि तिथी, सर्वर्तुवन में आ गये।
तरु नाग नीचे ज्ञान केवल, हुआ सुरगण आ गये।।
धनपति समवसृति को रचा, श्रीचंद्रप्रभ राजें वहाँ।
द्वादशगणों के भव्य जिनध्वनि, सुनें अति प्रमुदित वहाँ।।४।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णासप्तम्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनज्ञानकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री चंद्रजिन फाल्गुन सुदी, सप्तमि निरोधा योग को।
सम्मेदगिरि से मुक्ति पायी, जजें सुरपति भक्ति सों।।
हम भक्ति से श्रीचंद्रप्रभ, सम्मेदगिरि को भी जजें।
निज आत्म संपति दीजिए, इस हेतु ही प्रभु को भजें।।५।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लासप्तम्यां श्रीचन्द्रप्रभजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य
(दोहा)
चंद्रप्रभू की कीर्ति है, चंद्रकिरण सम श्वेत।
पूजूँ पूरण अघ्र्य ले, मिले भवोदधि सेतु।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नम:।
जयमाला
दोहा
परम हंस परमात्मा, परमानंद स्वरूप।
गाऊँ तुम गुण मालिका, अजर अमर पद रूप।।१।।
शंभु छंद
जय जय श्री चन्द्रप्रभो जिनवर, जय जय तीर्थंकर शिव भर्ता।
जय जय अष्टम तीर्थेश्वर तुम, जय जय क्षेमंकर सुख कर्ता।।
काशी में चन्द्रपुरी सुंदर, रत्नों की वृष्टी खूब हुई।
भू धन्य हुई जन धन्य हुए, त्रिभुवन में हर्ष की वृद्धि हुई।।२।।
प्रभु जन्म लिया जब धरती पर, इन्द्रों के आसन कम्प हुए।
प्रभु के पुण्योदय का प्रभाव, तत्क्षण सुर के शिर नमित हुए।।
जिस वन में ध्यान धरा प्रभु ने, उस वन की शोभा क्या कहिए।
जहाँ शीतल मंद पवन बहती, षट् ऋतु के कुसुम खिले लहिये।।३।।
सब जात विरोधी गरुड़, सर्प, मृग, सिंह खुशी से झूम रहे।
सुर खेचर नरपति आ आकर, मुकुटों से जिनपद चूम रहे।।
दश लाख वर्ष पूर्वायू थी, छह सौ कर तुंग देह माना।
चिंतित फल दाता चिंतामणि, अरु कल्पतरू भी सुखदाना।।४।।
श्रीदत्त आदि त्रयानवे गणधर, मनपर्यय ज्ञानी माने थे।
मुनि ढाई लाख आत्मज्ञानी, परिग्रह विरहित शिवगामी थे।।
वरुणा गणिनी सह आर्यिकाएँ, त्रय लाख सहस अस्सी मानीं।
श्रावक त्रय लाख श्राविकाएँ, पण लाख भक्तिरस शुभध्यानी।।५।।
भव वन में घूम रहा अब तक, िंकचित् भी सुख नहिं पाया हूँ।
प्रभु तुम सब जग के त्राता हो, अतएव शरण में आया हूँ।।
गणपति सुरपति नरपति नमते, तुम गुणमणि की बहु भक्ति लिए।
मैं भी नत हूँ तव चरणों में, अब मेरी भी रक्षा करिये।।६।।
दोहा
हे चन्द्रप्रभ! आपके, हुए पंच कल्याण।
मैं भी माँगूं आपसे, बस एकहि कल्याण।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेंद्राय जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा
तीर्थंकर प्रकृति कही, महापुण्य फलराशि।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ सहित, मिले सर्वसुखराशि।।
।। इत्याशीर्वाद:।।
Previous post
महालक्ष्मी माता की पूजन
Next post
धर्मनाथ पूजा
error:
Content is protected !!