भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल के दो विभाग होते हैं। जिसमें मनुष्यों एवं तिर्यंचों की आयु, शरीर की ऊँचाई, वैभव आदि घटते रहते हैं वह अवसर्पिणी एवं जिसमें बढ़ते रहते हैं वह उत्सर्पिणी कहलाता है। अद्धापल्यों से निर्मित दस कोड़ा-कोड़ी सागर१ प्रमाण अवसर्पिणी और इतना ही उत्सर्पिणी काल भी है, इन दोनों को मिलाकर बीस कोड़ा-कोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में से प्रत्येक के छह-छह भेद हैं।
सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा-दुःषमा, दुःषमा-सुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा। उत्सर्पिणी काल के भी छह भेद होते हैं जो कि इनसे विपरीत होते हैं-दुःषमा-दुःषमा, दुःषमा, दुःषमा-सुषमा, सुषमा-दुःषमा, सुषमा और सुषमा-सुषमा। ‘समा’ काल के विभाग को कहते हैं तथा ‘सु’ और ‘दुर्’ उपसर्ग क्रम से अच्छे-बुरे अर्थ में होने से व्याकरण से निष्पन्न ये ‘सुषमा’ ‘दुःषमा’ शब्द अच्छे और बुरे काल के वाचक हो जाते हैं। ये दोनों ही भेद कालचक्र के परिभ्रमण से सतत् कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष की तरह घूमते रहते हैं। अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी, ऐसे क्रम से बदलते रहते हैं।
इनमें से प्रथम सुषमा-सुषमा काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर, द्वितीय सुषमाकाल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर, तृतीय काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर, चतुर्थ काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर, पंचम काल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण और छठा काल भी इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है।