जब तृतीय काल में चौरासी लाख वर्ष पूर्व, तीन वर्ष साढ़े आठ मास प्रमाण काल शेष रह गया था तब अंतिम कुलकर महाराजा नाभिराय की महारानी ‘मरुदेवी’ ने प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को जन्म दिया। जब ऋषभदेव युवावस्था को प्राप्त हो गये, तब उनके पिता ने इन्द्र की अनुमति से ऋषभदेव का विवाह यशस्वती और सुनन्दा नाम की कन्याओं के साथ कर दिया। भगवान ऋषभदेव के भरत, बाहुबली आदि एक सौ एक पुत्र और ब्राह्मी-सुन्दरी नाम से दो कन्याएँ हुईं । भगवान ने सर्वप्रथम ब्राह्मी को ‘अ आ’ आदि लिपि और सुन्दरी को इकाई, दहाई आदि गणित विद्या सिखाई। अनन्तर सभी पुत्रों को भी सम्पूर्ण विद्याओं में, शास्त्रों में और शस्त्र कलाओं में निष्णात कर दिया।
प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य एवं शिल्प इन षट् क्रियाओं से आजीविका का उपाय बतलाने से भगवान प्रजापति कहलाये। उस समय जैसी व्यवस्था विदेह क्षेत्र में थी, वैसी ही व्यवस्था भगवान ने यहाँ पर स्थापित की, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम से तीन वर्णों की स्थापना की, ‘विवाह-विधि’ आदि प्रचलित की। ‘अकम्पन’ आदि चार महापुरुषों को राज्यव्यवस्था बताकर ‘‘महाराज’’ पद पर उन्हें नियुक्त किया, इसीलिए भगवान ऋषभदेव आदिब्रह्मा, युगादिपुरुष, विधाता आदि कहलाने लगे।
अनन्तर मोक्षमार्ग की स्थिति प्रगट करने के लिए वे दिगम्बर मुनि हो गये। उस समय चार हजार राजा उनकी देखा-देखी मुनि हो गये और भूख-प्यास की बाधा न सहन कर सकने से वे सब के सब भ्रष्ट हो गये। तब उन सभी ने मिलकर अनेक पाखण्ड मतों की स्थापना की। कुछ दिन बाद सम्राट भरत ने ब्राह्मण वर्ण नाम से एक वर्ण और स्थापित कर दिया।
भगवान ऋषभदेव के अनन्तर अजितनाथ आदि महावीरपर्यंत चौबीस तीर्थंकर हुए हैं।
इस हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से भगवान ऋषभदेव तृतीय काल में हुए हैं, शेष तीर्थंकर चतुर्थकाल में हुए हैं।
चतुर्थकाल प्रारंभ- भगवान ऋषभदेव के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, साढ़े आठ माह व्यतीत होने पर दुःषमासुषमा नामक चतुर्थ काल प्रविष्ट होता है। उस काल के प्रथम प्रवेश में उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि, पृष्ठ भाग की हड्डियाँ अड़तालीस और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण थी। यह चतुर्थकाल ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण है।
भगवान ऋषभदेव के मुक्त हो जाने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागरों के व्यतीत हो जाने पर अजितनाथ तीर्थंकर ने मोक्षपद प्राप्त किया।
अजितनाथ के मुक्त होने के बाद तीस लाख करोड़ सागरों के व्यतीत हो जाने पर संभवनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद दस लाख करोड़ सागर व्यतीत हो जाने पर अभिनंदननाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद नौ लाख करोड़ सागरों के चले जाने पर सुमतिनाथ भगवान सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके पश्चात् नब्बे हजार करोड़ सागरों के बीत जाने पर पद्मप्रभ जिन सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर नौ हजार करोड़ सागरों के चले जाने पर सुपार्श्वनाथ भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद नौ सौ करोड़ सागरों के चले जाने पर चन्द्रप्रभ देव मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद नब्बे करोड़ सागरों के बीत जाने पर पुष्पदन्तनाथ जिन सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर नौ करोड़ सागरों के चले जाने पर शीतलनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद छ्यासठ लाख छब्बीस हजार सौ सागर कम एक करोड़ सागर अर्थात् तैंतीस लाख तेहत्तर हजार नौ सौ सागर के व्यतीत हो जाने पर श्रेयांसनाथ भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर चौवन सागर के बीत जाने पर वासुपूज्य भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद तीस सागर व्यतीत हो जाने पर विमलनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद नौ सागर व्यतीत हो जाने पर अनंतनाथ मुक्त हुए।
इसके बाद चार सागर चले जाने पर धर्मनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद पौन पल्य कम तीन सागर के बीत जाने पर शांतिनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके अनन्तर अर्द्ध पल्य काल के बीत जाने पर कुंथुनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद एक करोड़ वर्ष कम पाव पल्य के बीत जाने पर अरहनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद एक हजार करोड़ वर्षों के बाद मल्लिनाथ जिन सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् चौवन लाख वर्षों के बीत जाने पर मुनिसुव्रतनाथ सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् छः लाख वर्ष बीत जाने पर नमिनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद पाँच लाख वर्षों के बीत जाने पर नेमिनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् तेरासी हजार सात सौ पचास वर्षों के बीत जाने पर पाश्र्वनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् दो सौ पचास वर्षों के बीत जाने पर वीर भगवान सिद्ध हुए। उस समय पंचम काल के प्रवेश होने में तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष थे।
धर्मतीर्थ व्युच्छित्ति का काल-पुष्पदंत को आदि लेकर धर्मनाथपर्यंत सात तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति (अभाव) हुई थी और शेष सत्रह तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की परम्परा निरन्तर अक्षुण्णरूप से चलती रही है।
पुष्पदंत के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्म का अभाव रहा है अर्थात् उस समय दीक्षा के अभिमुख होने वालों का अभाव होने पर धर्मरूपी सूर्यदेव अस्तमित हो गया था। इसी प्रकार शीतलनाथ के तीर्थ में अर्द्ध पल्य तक, श्रेयांसनाथ के तीर्थ में पौन पल्य तक, वासुपूज्यदेव के तीर्थ में एक पल्य तक, विमलनाथ के तीर्थ में पौन पल्य तक, अनन्तनाथ के तीर्थ में अर्द्ध पल्य तक और धर्मनाथ के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्मतीर्थ का उच्छेद रहा था।
हुंडावसर्पिणी के दोष से यहाँ सात बार धर्म के विच्छेद हुए हैं।
पंचम काल- वीर भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष काल व्यतीत हो जाने के बाद ‘दुःषमा’ नामक पंचम काल प्रवेश करता है। इस पंचम काल के प्रथम प्रवेश में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक सौ बीस वर्ष, ऊँचाई सात हाथ और पृष्ठ भाग की हड्डियाँ चौबीस होती हैं।