भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुंथु, अर, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त क्रम से ये बारह चक्रवर्ती सब तीर्थंकरों की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष वन्दना मेें आसक्त और अत्यन्त गाढ़ भक्ति से परिपूर्ण थे। भरत चक्रवर्ती ऋषभेश्वर के समक्ष, सगरचक्री अजितेश्वर के समक्ष तथा मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्री धर्मनाथ और शान्तिनाथ के अन्तराल में हुए हैं। शान्तिनाथ,कुंथुनाथ और अरनाथ ये तीन चक्री होते हुए तीर्थंकर भी थे। सुभौम चक्री अरनाथ और मल्लिनाथ भगवान के अन्तराल में, पद्मचक्री मल्लि और मुनिसुव्रत के अन्तराल में, हरिषेण चक्री मुनिसुव्रत और नमिनाथ के अन्तराल में, जयसेन चक्री नमि और नेमिनाथ के अन्तराल में तथा ब्रह्मदत चक्री नेमि और पाश्र्वनाथ के अन्तराल में हुए हैं।
पूर्व जन्म में किये गये तप के बल से भरत आदि की आयुधशालाओं में भुवन को विस्मित करने वाला ‘चक्ररत्न’ उत्पन्न होता है, तब अतिशय हर्ष को प्राप्त चक्रवर्ती जिनेन्द्र भगवान की पूजा करके विजय के निमित्त पूर्व दिशा में प्रयाण करते हैं। क्रम से दक्षिण भरत क्षेत्र के दो खण्डों को सिद्ध करके पुन: उत्तर भरत क्षेत्र में सम्पूर्ण भूमिगोचरी और विद्याधरों को वश में कर लेते हैं।
ये चक्रवर्ती वृषभगिरि पर्वत पर अपना नाम लिखने के लिए विजय प्रशस्तियों से सर्वत्र व्याप्त उस वृषभाचल को देखकर और अपने नाम को लिखने के लिए तिलमात्र भी स्थान न पाकर विजय के अभिमान से रहित होकर चिन्तायुक्त खड़े रह जाते हैं। तब मंत्रियों और देवों के अनुरोध से एक स्थान के किसी चक्रवर्ती का नाम अपने दण्डरत्न से नष्ट करके अपना नाम अंकित करते हैं। इस प्रकार ये सभी चक्रवर्ती सम्पूर्ण षट्खण्ड को जीतकर अपने नगर में प्रवेश करते हैं।
प्रत्येक चक्री उत्तम संहनन, उत्तम संस्थान से युक्त सुवर्ण वर्ण वाले होते हैं। उनके छ्यानवे हजार रानियाँ होती हैं-इनमें ३२००० आर्यखण्ड की कन्याएँ, ३२००० विद्याधर कन्याएं और ३२००० म्लेच्छ खण्ड की कन्याएँ होती हैं। प्रत्येक चक्रियों के संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियाँ, ३२००० गणबद्ध राजा, ३६० अंगरक्षक, ३६० रसोइये, ३५०००००० (साढ़े तीन करोड़) बंधुवर्ग, ३००००००० गायें, १००००००० थालियाँ, ८४००००० भद्र हाथी, ८४००००० रथ, १८००००००० घोड़े, ८४००००००० उत्तर वीर, ८८००० म्लेच्छ राजा, अनेकों करोड़ विद्याधर, ३२००० मुकुटबद्ध राजा, ३२००० नाट्यशालाएँ, ३२००० संगीतशालाएँ और ४८००००००० पदातिगण होते हैं।
सभी चक्रवर्तियों में से प्रत्येक ९६००००००० ग्राम, ७५००० नगर, १६००० खेट, २४००० कर्वट, ४००० मटंब, ४८००० पत्तन, ९९००० द्रोणमुख, १४००० संवाहन, ५६ अन्तद्र्वीप, ७०० कुक्षि निवास, २८००० दुर्गादि होते हैं एवं चौदह रत्न, नवनिधि और दशांग भोग होते हैं।
गज, अश्व, गृहपति, स्थपति, सेनापति, पट्टरानी और पुरोहित ये सात जीवरत्न हैं। छत्र, असि, दण्ड, चक्र, कांकिणी, चिन्तामणि और चर्म ये सात रत्न निर्जीव होते हैं। चक्रवर्तियों के चामरों को बत्तीस यक्ष ढोरते हैं।
काल, महाकाल, पांडु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिङ्गल और नाना रत्न ये नवनिधियाँ श्रीपुर में उत्पन्न हुआ करती हैं। इन नव निधियों में से प्रत्येक क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्य, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, हम्र्य, आभरण और रत्नसमूहों को दिया करती हैं।
चक्रवर्तियों के २४ दक्षिण मुखावर्त धवल व उत्तम शंख, एक कोड़ाकोड़ी १०००००००००००००० हल होते हैं। रमणीय भेरी और पट बारह-बारह होते हैं, जिनका शब्द बारह योजन प्रमाण देश में सुना जाता है।
दिव्यपुर, रत्न, निधि, सैन्य, भाजन, भोजन, शय्या, आसन, वाहन और नाट्य ये उन चक्रवर्तियों के दशांग भोग कहे जाते हैं। भरत चक्रवर्ती प्रथम चक्रवर्ती थे और भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे, उन्हीं के नाम से यह भरतभूमि ‘भारत’ कहलाती है। इन्होंने दीक्षा लेते ही अन्तर्मुहूर्त मात्रकाल में केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया था। इनका जीवनवृत्त महापुराण और भरतेशवैभव में देखिए। इनके भाई कामदेव पदधारक बाहुबली से इनका मानभंग, विजयभंग हुआ है, इसे हुण्डावसर्पिणी काल का दोष बताया है।
भगवान ऋषभदेव की यशस्वती रानी से भरत महाराज का जन्म हुआ था। भगवान ने दीक्षा के लिए जाते समय भरत को साम्राज्य पद पर प्रतिष्ठित किया था। एक समय राज्यलक्ष्मी से युक्त राजर्षि भरत को एक ही साथ नीचे लिखे हुए तीन समाचार मालूम हुए थे। पूज्य पिता को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, अन्त:पुर में पुत्र का जन्म हुआ है और आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है। क्षणभर में भरत ने मन में सोचा कि केवलज्ञान का उत्पन्न होना धर्म का फल है, चक्र का प्रकट होना अर्थ का फल है और पुत्र का उत्पन्न होना काम का फल है अत: भरत महाराज ने सबसे पहले समवसरण में जाकर भगवान की पूजा की, उपदेश सुना, तदनन्तर चक्ररत्न की पूजा करके पुत्र का जन्मोत्सव मनाया।
अनन्तर भरत महाराज ने दिग्विजय के लिए प्रस्थान कर दिया। चक्ररत्न सेना के आगे-आगे चलता था। सम्पूर्ण षट्खण्ड पृथ्वी को जीत लेने के बाद वापस आते समय वैलाश पर्वत को समीप देखकर सेना को वहाँ ठहराकर स्वयं समवसरण में जाकर राजा भरत ने विधिवत् भगवान की पूजा की और वहाँ से आकर सेना सहित अयोध्या के समीप आ गये।
उस समय भरत महाराज का चक्ररत्न नगर के गोपुर द्वार को उल्लंघन कर आगे नहीं जा सका, तब चक्ररत्न की रक्षा करने वाले कितने ही देवगण चक्र को एक स्थान पर खड़ा हुआ देखकर आश्चर्य को प्राप्तहुए। भरत महाराज भी सोचने लगे कि समस्त दिशाओं को विजय करने में जो चक्र कहीं नहीं रुका, आज मेरे घर के आँगन में क्यों रुक रहा है?
इस प्रकार से बुद्धिमान भरत ने पुरोहित से प्रश्न किया। उसके उत्तर में पुरोहित ने निवेदन किया कि हे देव! आपने यद्यपि बाहर के लोगों को जीत लिया है तथापि आपके घर के लोग आज भी आपके अनुकूल नहीं हैं, वे आपको नमस्कार न करके आपके विरुद्ध खड़े हुए हैं। इस बात को सुनकर भरत ने हृदय में बहुत कुछ विचार किया। अनन्तर मंत्रियों से सलाह करके कुशल दूत को सबसे पहले अपने निन्यानवे भाइयों के पास भेज दिया।
वे भाई दूत से सब समाचार विदित करके विरक्तमना भगवान ऋषभदेव के समवसरण में जाकर दीक्षित हो गये। अनन्तर भरत ने मन में दुःख का अनुभव करते हुए चक्र के अभ्यन्तर प्रवेश न करने से विचार-विमर्शपूर्वक एक दूत को युवा बाहुबली भाई के पास भेजा। दूत के समाचार से बाहुबली ने कहा कि ‘‘मैं भरत को भाई के नाते नमस्कार कर सकता हूँ किन्तु राजाधिराज कहकर उन्हें नमस्कार नहीं कर सकता, पूज्य पिता की दी हुई पृथ्वी का मैं पालन कर रहा हूँ, इसमें उनसे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है’’, इत्यादि समाचारों से बाहुबली ने यह बात स्पष्ट कर दी कि यदि वे मुझसे जबरदस्ती नमस्कार कराना चाहते हैं तो युद्ध भूमि में ही अपनी-अपनी शक्ति का परिचय दे देना चाहिए। इस वातावरण से महाराज भरत सोचने लगे, अहो! जिन्हें हमने बालकपन से ही स्वतंत्रतापूर्वक खिला-पिलाकर बड़ा किया है, ऐसे अन्य कुमार यदि मेरे विरुद्ध आचरण करने वाले हों तो खुशी से हों परन्तु बाहुबली तरुण, बुद्धिमान, परिपाटी को जानने वाला, विनयी, चतुर और सज्जन होकर भी मेरे विषय में विकार को कैसे प्राप्त हो गया? इस प्रकार छह प्रकार की सेना सामग्री से सम्पन्न हुए महाराज भरतेश्वर ने अपने छोटे भाई को जीतने की इच्छा से अनेक राजाओं के साथ प्रस्थान किया।
दोनों तरफ की सेना के प्रवाह को देखकर दोनों ओर के मुख्य-मुख्य मंत्री विचार कर इस प्रकार कहने लगे कि व्रूâर ग्रहों के समान इन दोनों का युद्ध शान्ति के लिए नहीं है क्योंकि ये दोनों ही चरमशरीरी हैं, इनकी कुछ भी क्षति नहीं होगी, केवल इनके युद्ध के बहाने से दोनों ही पक्ष के लोगों का क्षय होगा, इस प्रकार निश्चय कर तथा भारी मनुष्यों के संहार से डरकर मंत्रियों ने दोनों की आज्ञा लेकर धर्म युद्ध करने की घोषणा कर दी अर्थात् इन दोनों के बीच जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध में जो विजय प्राप्त करेगा, वही विजय लक्ष्मी का स्वयं स्वीकार किया हुआ पति होगा।
मनुष्यों से एवं असंख्य देवों से भूमण्डल और आकाशमण्डल के व्याप्त हो जाने पर इन दोनों का दृष्टियुद्ध प्रारंभ हुआ किन्तु बाहुबली ने टिमकार रहित दृष्टि से भरत को जीत लिया, जलयुद्ध में भी बाहुबली ने भरत के मुँह पर अत्यधिक जल डालकर आकुल करके जीत लिया क्योंकि भरत की ऊँचाई पाँच सौ धनुष और बाहुबली की पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण थी। मल्लयुद्ध में भी बाहुबली ने भरत को जीतकर उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया। दोनों पक्ष के राजाओं के बीच ऐसा अपमान देख भरत ने क्रोध से अपने चक्ररत्न का स्मरण किया और उसे बाहुबली पर चला दिया परन्तु उनके अवध्य होने से वह चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर तेजरहित हो उन्हीं के पास ठहर गया। उस समय बड़े-बड़े राजाओं ने चक्रवर्ती को धिक्कार दिया और दुःख के साथ कहा कि ‘बस-बस’ यह साहस रहने दो, बंद करो, यह सुनकर चक्रवर्ती और भी अधिक संताप को प्राप्त हुए। आपने खूब पराक्रम दिखाया, ऐसा कहकर बाहुबली ने भरत को उच्चासन पर बैठाया।
इस घटना से बाहुबली उसी समय विरक्त हो गये और संसार, शरीर, वैभव आदि की क्षणभंगुरता का विचार करते हुए बड़े भाई भरत से अपने अपराध की क्षमा कराकर तपोवन को जाने लगे, तब भरत भी अत्यधिक दुःखी होकर बाहुबली को समझाने और रोकने लगे। बाहुबली अपने वैराग्य को अचल करके तपोवन को चले गये और दीक्षा लेकर एक वर्ष का योग धारण कर लिया। एक वर्ष की ध्यानावस्था में सर्पों ने चरणों के आश्रय वामीरन्ध्र बना लिये, पक्षियों ने घोंसले बना लिये और लताएँ ऊपर तक चढ़कर बाहुबली के शरीर को ढँकने लगीं किन्तु योग चक्रवर्ती बाहुबली भगवान योग में लीन थे।
इधर भरत महाराज का चक्रवर्ती पट्ट पर महासाम्राज्य अभिषेक हुआ। दीक्षा लेते समय बाहुबली ने एक वर्ष का उपवास किया था, जिस दिन उनका वह उपवास पूर्ण हुआ, उसी दिन भरत ने आकर उनकी पूजा की और पूजा करते ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। ‘‘वह१ भरतेश्वर मुझे से संक्लेश को प्राप्त हुआ है अर्थात् मेरे निमित्त से उसे दु:ख पहुँचा है, यह विचार बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था, इसलिए भरत के पूजा करते ही बाहुबली का हृदय विकल्प रहित हो गया और उसी समय उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया। भरतेश्वर ने बहुत ही विशेषता से बाहुबली की पूजा की। केवलज्ञान प्रकट होने के पहले जो भरत ने पूजा की थी, वह अपना अपराध नष्ट करने के लिए ही थी और अनन्तर की पूजा केवलज्ञान के महोत्सव की थी। उस समय देव कारीगरों ने बाहुबली भगवान की गंधकुटी बनाई थी। समस्त पदार्थों को जानने वाले बाहुबली अपने वचन रूपी अमृत के द्वारा समस्त संसार को संतुष्ट करते हुए पूज्य पिता भगवान ऋषभदेव के सामीप्य से पवित्र हुए वैलाशपर्वत पर जा पहुँचे।
किसी समय भरत सोचते हैं कि मैं जिनेन्द्र देव का महामह यज्ञ कर धन वितरण करता हुआ समस्त संसार को संतुष्ट करूँ, सदा निःस्पृह रहने वाले मुनि तो हमसे धन लेते नहीं परन्तु ऐसा गृहस्थ भी कौन है जो धन-धान्य आदि सम्पत्ति के द्वारा पूजा करने योग्य है? जो अणुव्रतों में मुख्य है, श्रावकों में श्रेष्ठ है उसे दान देना उचित है। ऐसा सोचकर भरत ने योग्य व्यक्तियों की परीक्षा करने की इच्छा से समस्त राजाओं को बुलाया और घर के आँगन में हरे-भरे अंकुर, पुष्प और फल खूब डलवा दिये। उन लोगों में जो अव्रती थे वे बिना कुछ सोच विचार के राजमंदिर में चले आये। राजा भरत ने उन्हें एक ओर हटाकर बाकी बचे हुए लोगों को बुलाया। पाप से डरने वाले कितने लोग तो वापस चले गये और कितने लोग वापस लौटने लगे, परन्तु चक्रवर्ती के विशेष आग्रह से जब कुछ लोग दूसरे प्रासुक मार्ग से ले जाये गये तब प्रश्न करने पर उन्होंने कहा-महाराज! आज पर्व के दिन कोंपल, हरे पत्ते तथा पुष्प आदि का विघात नहीं किया जाता, हे देव! हरे अंकुर आदि में अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं ऐसे सर्वज्ञ देव के वचन हैं। इस उत्तर से भरत महाराज बहुत प्रभावित हुए और व्रतों में दृढ़ रहने वाले उन सबकी प्रशंसा कर उन्हें दान, मान आदि से सम्मानित कर पद्म नामक निधि से प्राप्त हुए एक से लेकर ग्यारह तक की संख्या वाले ब्रह्मसूत्र नाम के व्रतसूत्र से उन सबके चिन्ह किये। भरत ने इन्हें उपासकाध्ययनांग से इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया। त्रेपन गर्भान्वय क्रियाएँ, अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएं और सात कत्र्रन्वय क्रियाएं भी बतलार्इं। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और नीच वृत्ति का आश्रय लेने से शूद्र कहलाते हैं।
कुछ काल बीत जाने के बाद एक दिन चक्रवर्ती भरत ने अद्भुत फल दिखाने वाले कुछ स्वप्न देखे। उनके देखने से खेद खिन्न हो भरत ने यह समझ लिया कि इनका फल कटु है और ये पंचम काल में फल देने वाले होंगे। इस प्रकार विचार कर भरत ने भगवान के समवसरण में जाकर पूजा-भक्ति आदि करके भगवान से प्रार्थना की-हे भगवन्! मैंने सिंह, सिंह के बालक आदि सोलह स्वप्न देखे हैं, उनका फल क्या है? और मैंने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की है, वह योग्य है या अयोग्य? कृपया हमारे संशय को दूर कीजिए। यद्यपि अवधिज्ञान से भरत ने इन स्वप्नों का फल जान लिया था, फिर भी सभी को विशेष जानकारी होने के लिए भगवान से सुनना चाहते थे। भरत का प्रश्न समाप्त होने पर जगद्गुरु भगवान अपनी दिव्यध्वनि से सभा को संतुष्ट करने लगे। हे भरतराज! सुनो! तुमने जो ‘पृथ्वी पर अकेले विहार कर पर्वत की चोटी पर चढ़ते हुई तेईस सिंह देखे हैं’ उसका फल यह है कि महावीर स्वामी को छोड़कर शेष तीर्थंकरों के समय दुष्ट नयों की उत्पत्ति नहीं होगी। ‘अकेले सिंह के पीछे हिरणों के बच्चे’ देखने से महावीर के तीर्थ में परिग्रही कुलिंगी बहुत हो जावेंगे। ‘बड़े हाथी के बोझ को घोड़े पर लदा’ देखने से पंचम काल के साधु तपश्चरण के समस्त गुणों को धारण करने में समर्थ नहीं होगे। ‘सूखे पत्ते खाने वाले बकरों को देखने’ से आगामी काल में मनुष्य दुराचारी हो जावेंगे। ‘गजेन्द्र के कंधे पर चढ़े हुए वानरों’ को देखने से आगे चलकर क्षत्रियवंश नष्ट हो जावेंगे, नीच कुल वाले पृथ्वी का पालन करेंगे। ‘कौवों के द्वारा उलूक को त्रास दिया जाना’ देखने से मनुष्य धर्म की इच्छा से जैन मुनियों को छोड़कर अन्य साधुओं के पास जावेंगे। # ‘नाचते हुए बहुत से भूतों के देखने से’ लोग व्यंतरों को देव समझकर उनकी उपासना करने लगेंगे। ‘मध्य भाग में शुष्क और चारों तरफ से पानी से भरे हुए तालाब’ के देखने से धर्म मध्य भागों से हटकर यत्र-तत्र रह जावेगा। ‘धूल से मलिन हुए रत्नों की राशि के देखने से’ पंचमकाल में ऋद्धिधारी उत्तम मुनि नहीं होंगे। ‘कुत्ते को नैवेद्य खाते हुए’ देखने से व्रत रहित ब्राह्मण गुणी पात्रों के समान आदर पावेंगे। ‘ऊँचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बैल का विहार’ देखने से पंचमकाल में अधिकतर लोग तरुण अवस्था में मुनिपद को धारण करेंगे। ‘परिमण्डल से घिर हुए चन्द्रमा’ के देखने से पंचमकाल के मुनियों में अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान नहीं होगा। ‘परस्पर मिलकर जाते हुए दो बैलों के’ देखने से पंचमकाल में मुनिजन साथ-साथ रहेंगे, अकेले विहार करने वाले नहीं होगे। ‘मेघों के आवरण में रुके हुए सूर्य’ के देखने से प्राय: पंचमकाल में केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होता है। ‘सूखे वृक्ष के देखने से’ स्त्री-पुरुषों का चारित्र भ्रष्ट हो जायेगा। ‘जीर्ण पत्तों के देखने से’ महा औषधियों का रस नष्ट हो जावेगा। हे भरत! इन स्वप्नों को तुम बहुत समय बाद का फल देने वाला समझो तथा जो तुमने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की है, सो आज तो ठीक है किन्तु ये भी पंचमकाल में जाति के मद से युक्त होकर प्राय: धर्मद्रोही हो जावेंगे, फिर भी अब जिनकी सृष्टि की है, उन्हें नष्ट करना ठीक नहीं है।
भगवान के उपर्युक्त वचन को सुनकर भरत महाराज अपना संशय दूर करके ऋषभदेव को बार-बार प्रणाम करके वहाँ से लौटे। खोटे स्वप्नों से होने वाले अनिष्ट की शांति के लिए जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक और उत्तम पात्र को दान देना आदि पुण्य कार्य किये।
बहुत काल तक साम्राज्य सुख का अनुभव करते हुए महाराज भरत ने किसी समय दर्पण में मुख देखते हुए एक श्वेत केश देखा और तत्क्षण भोगों से विरक्त हो गये। अपने पुत्र अर्वâकीर्ति को राज्यपद देकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली, उन्हें उसी समय मन:पर्ययज्ञान प्रकट हो गया और उसके बाद ही केवलज्ञान प्रकट हो गया। ये भरतकेवली अब देवाधिदेव भगवान हो गये और इन्द्रों द्वारा वन्दनीय गंधकुटी में विराजमान हो गये। बहुत काल तक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए अन्त में शेष कर्मों का नाश करके मुक्तिधाम को प्राप्त हो गये।