जय जय जिनवर के, समवसरण की, मंगल दीप प्रजाल के,
मैं आज उतारूं आरतिया।।
समवसरण के बीच प्रभू जी, नासादृष्टि विराजे।
गणधर मुनि नरपति से शोभित, बारह सभा सुराजे।।प्रभू जी……….
ओंकार ध्वनि, सुन करके मुनि, रत रहें स्व पर कल्याण
में, मैं आज उतारूं आरतिया।।१।।
चार दिशा के मानस्तम्भों को भी मेरा वन्दन।
मिथ्यादृष्टी जिनको लखकर पाते सम्यग्दर्शन।।प्रभू जी…….
करके दर्शन, प्रभु का वंदन, सम्यक् का हुआ प्रचार है,
मैं आज उतारूं आरतिया।।२।।
ध्वजाभूमि के अंदर देखो, ऊँचे ध्वज लहराएं।
मालादिक चिन्हों से युत वे, जिनवर का यश गाएं।।प्रभू जी……
शुभ कल्पवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष, से समवसरण सुखकार है।
मैं आज उतारूं आरतिया।।३।।
भवनभूमि के स्तूपों में, जिनवर बिम्ब विराजें।
द्वादशगण युत श्रीमण्डप में, सम्यग्दृष्टी राजें।।प्रभू जी……..
अगणित वैभव, युत बाह्य विभव से, शोभ रहे भगवान हैं,
मैं आज उतारूं आरतिया।।४।।
धर्मचक्रयुत गन्धकुटी पर, अधर प्रभू रहते हैं।
उनकी आरति से ही ‘‘चंदनामती’’, दु:ख हरते हैं।।प्रभू जी……..
वृषभेश्वर की, परमेश्वर की, गुण महिमा अपरम्पार है।
मैं आज उतारूं आरतिया।।५।।