सिद्धिप्रिया की प्राप्ति हित, नमन करूँ सब सिद्ध।
क्रम से भव को काटकर, होऊँ पूर्ण समृद्ध।।१।।
सिद्धक्षेत्र शाश्वत कहा, गिरि सम्मेद महान।
जहाँ अनन्तानंत प्रभु, ने पाया शिवधाम।।२।।
सम्मेदाचल तीर्थ का, चालीसा सुखकार।
पढ़ें सुनें जो भव्यजन, क्रम से हों भव पार।।३।।
जय हो श्री सम्मेद शिखर की, जय हो उस शाश्वत गिरिवर की।।१।।
हों जयवन्त बीस ये जिनवर, सिद्ध बने थे जो तीर्थंकर।।२।।
इस हुण्डावसर्पिणी युग में, चार जिनेश्वर अन्य स्थल से।।३।।
मोक्ष प्राप्त कर सिद्ध बन गए, वे तीरथ भी पूज्य बन गए।।४।।
लेकिन भूत भावि कालों में, यहीं से मुक्त हुए अरु होंगे।।५।।
यही अटल सिद्धान्त नियम है, सिद्धिवधू का यह उपवन हैै।।६।।
कोड़ाकोड़ि मुनीश्वर आते, इस पर्वत पर ध्यान लगाते।।७।।
टोंक-टोंक से मोक्ष पधारे, घाति अघाती कर्म विडारे।।८।।
इसीलिए गिरि की रजपावन, है वहाँ का कण-कण मनभावन।।९।।
यात्रा यद्यपि बहुत कठिन है, यात्री होता फिर भी धन्य है।।१०।।
थक थककर भी चढ़ जाता है, अपनी मंजिल पा जाता है।।११।।
पाश्र्वनाथ की टोंक पे जाकर, प्रभु के सम्मुख शीश झुकाकर।।१२।।
जन्म सफल कर लेता मानव, दूर हटें दुर्गति के दानव।।१३।।
मन्दिर कई बने पर्वत पर, जिनमें इक प्रसिद्ध जलमन्दिर।।१४।।
थका पथिक कुछ देर बैठकर, करता है विश्राम वहाँ पर।।१५।।
फिर यात्रा पर चल देता है, यात्रा का फल वर लेता हैै।।१६।।
पर्वत का प्राकृतिक दृश्य भी, बड़ा मनोरम सुखद सत्य ही।।१७।।
सीता नाला है इक झरना, जहाँ एक क्षण सबको रुकना।।१८।।
शीतल जल से पग धो लेना, यदि शक्ती वापस हो लेना।।१९।।
एक ओर गन्धर्व है नाला, बहता झर-झर झरना प्यारा।।२०।।
उतर-उतर कर यात्री आते, स्वल्पाहार प्रसाद को पाते।।२१।।
बच्चे-बूढ़े सब लेते हैं, दान स्वरूप द्रव्य देते हैं।।२२।।
एक वन्दना करके भी वे, तीन, पाँच, नौ भी कर लेवें।।२३।।
शतक सहस्र वन्दना वाले, कुछ मुनि श्रावक भक्त बखाने।।२४।।
उनकी काया सुदृढ़ बनी है, भावों की माया सुघनी है।।२५।।
इस पर्वत की महिमा न्यारी, कही पूर्व ऋषियों ने भारी।।२६।।
एक बार वन्दे जो कोई, तांहि नरक पशुगति नहिं होई।।२७।।
भव्यजीव ही जा सकते हैं, पर्वत वन्दन कर सकते हैं।।२८।।
नहिं अभव्य पर्वत चढ़ सकते, शास्त्र जिनागम ऐसा कहते।।२९।।
मोक्षगमन की शक्ति जहाँ है, भव्य शक्ति का वास वहाँ है।।३०।।
चाहे वह कितने ही भव में, कर्मनाश कर पहुंचे शिव में।।३१।।
किन्तु अभव्य न शिवपद पाते, निज अभव्य शक्ति के नाते।।३२।।
ये परिणामिक भाव जीव के, होते हैं स्वयमेव जीव में।।३३।।
वर्तमान में भी वह तीरथ, जिनमत की कहता है कीरत।।३४।।
पर्वत के नीचे भी मंदिर, बने अनेकों अद्भुत सुन्दर।।३५।।
कई धर्मशालाएं भी हैं, यात्री को सुविधाएं भी हैं।।३६।।
श्रावण सुदि सप्तमि का मेला, होता है वहां खूब रंगीला।।३७।।
होली पर भी मधुबन जाना, होली का देखो नजराना।।३८।।
सांवरिया का नाम पुकारो, पारस का जयकार उचारो।।३९।।
तुम भी पारस बन जाओगे, भक्ती का रस पा जाओगे।।४०।।