मेरु सुदर्शन महातीर्थ को, नित प्रति शीश झुकाता हूँ।
तीर्थंकर के जन्म न्हवन की, सबको याद दिलाता हूँ।।
भद्रशाल वन सुन्दर है, नन्दन वन अति मनहर है।
सौमनस्य वन शोभ रहा, पांडुक वन मन मोह रहा।।
इनमें चैत्यालय भासे, जिनमें जिन प्रतिमा राजे।
चार दिशा में चार कहे, सब मिल सोलह भास रहे।।
प्रति निजगृह में जिनप्रतिमा, इक सौ आठ अतुल महिमा।
सबको नित्य नमन मेरा, कोटि-कोटि वन्दन मेरा।।
पांडुक वन की विदिशा में, पांडुक आदि शिला तामें।
तीर्थंकर शिशु को लाके, इन्द्र न्हवन करते आके।।
ऐसे पावन महामेरु को, भक्ति प्रसून चढ़ाता हूँ।
‘सम्यग्ज्ञानमती’ विकसित हो, यही भावना भाता हूँ।।