नरेन्द्र छंद
तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथ ने, निज पद प्राप्त किया है।
काम मोह यम मल्ल जीतकर, सार्थक नाम किया है।।
कर्म मल्ल विजिगीषु मुनीश्वर, प्रभु को मन में ध्याते।
हम पूजें आह्वानन करके, सब दु:ख दोष नशाते।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
गीता छंद
जल अमल ले जिनपाद पूजूँ, कर्म मल धुल जायेगा।
आत्मीक समतारस विमल, आनंद अनुभव आयेगा।।
श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र के, चरणाब्ज का अर्चन करूँ।
यमराज मल्ल पछाड़ने को, कोटिश: वंदन करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन सुगंधित ले जिनेश्वर, पद जजूँ आनंद से।
स्वात्मानुभव आह्लाद पाकर, पूजहूँ जगद्वंद से।।श्री.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदा किरण समधवल तंदुल, पुंज जिन आगे धरूँ।
वर धर्मशुक्ल सुध्यान निर्मल, पाय आतम निधि भरूँ।।श्री.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदार चंपक पुष्प सुरभित, लाय जिनपद पूजते।
निज आत्मगुण कलिका खिले, जन भ्रमर तापे गूंजते।।श्री.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक पुआ बरफी इमरती, लाय जिन सन्मुख धरें।
आत्मैकरस पीयूष मिश्रित, अतुल आनंद भव हरें।।श्री.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक शिखा उद्योतकारी, जिन चरण में वारना।
अज्ञान तिमिर हटाय अंतर, ज्ञान ज्योती धारना।।श्री.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंधधूप मंगाय स्वाहा , नाथ को अर्पण किया।
वसुकर्म२ स्वाहा हेतु ही, निज आत्म को तर्पण किया।।श्री.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम अनार गन्ना, लाय जिनपूजा करूँ।
वर मोक्षफल की आश लेकर, कर्मकंटक परिहरूँ।।श्री.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध अक्षत पुष्प नेवज, दीप धूप फलादि ले।
जिन कल्पतरु पूजत मुझे, कैवल्य सुज्ञानमती मिले।।श्री.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहाकंचनझारी में भरा, यमुना सरिता नीर।
जिनपद में धारा करत, मिले भवोदधि तीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरभित फूलों को चुना, बेला जुही गुलाब।
पुष्पांजलि अर्पण करत, मिले निजातम लाभ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
नरेन्द्र छंद
मिथिलापुरी में कुंभ नृपति गृह, प्रजावती रानी को।
सोलह स्वप्न दिखा प्रभु आये, गर्भ बसे अतिसुख सों।।
चैत्र सुदी एकम तिथि उत्तम, सुरपति उत्सव कीना।
हम पूजें प्रभु गर्भकल्याणक, भव भव दु:ख क्षय कीना।।१।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाप्रतिपदायां श्रीमल्लिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर सुदि ग्यारस प्रभु जन्में, त्रिभुवन धन्य हुआ था।
रुचकाचल देवियाँ आय के, जातक कर्म किया था।।
सुरगिरि पर जन्माभिषेक कर, सुरगण धन्य हुये तब।
जन्मकल्याणक जजते मेरे, संकट दूर हुये सब।।२।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां श्रीमल्लिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
जातिस्मरण हुआ प्रभु को जब, बाल ब्रह्मचारी ही।
देव जयंता पालकि लाये, मगसिर सुदि ग्यारस थी।।
श्वेतबाग में पहुँच प्रभू ने, दीक्षा स्वयं लिया था।
तपकल्याणक पूजा करके, सुरगण पुण्य लिया था।।३।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लाएकादश्यां श्रीमल्लिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पौष वदी दुतिया वन में प्रभु, तरु अशोक तल तिष्ठे।
मोह नाश दशवें गुणथाने, बारहवें में पहुँचे।।
ज्ञानावरण दर्शनावरणी, अंतराय को नाशा।
केवलज्ञान सूर्य किरणों से, लोकालोक प्रकाशा।।४।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाद्वितीयायां श्रीमल्लिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घं निर्वपमीति स्वाहा।
फाल्गुन सुदि पंचमि तिथि उत्तम, गिरि सम्मेद पर तिष्ठे।
चार अघाती कर्मनाश कर, मोक्षधाम में पहुँचे।।
इन्द्र गणों ने उत्सव करके, तांडवनृत्य किया तब।
शिवकल्याणक पूजा करते, जीवन सफल हुआ अब।।५।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लापंचम्यां श्रीमल्लिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
मल्लिनाथ की भक्ति से, मृत्युमल्ल का अन्त।
अर्घ चढ़ाकर पूजते, भक्त बने भगवन्त।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथपंचकल्याणकाय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
शेरछंद
जय जय श्री जिनदेव देव देव हमारे।
जय जय प्रभो! तुम सेव करें सुरपति सारे।।
जय जय अनंत सौख्य के भंडार आप हो।
जय जय समोसरण के सर्वस्व आप हो।।१।।
मुनिवर विशाख आदि अट्ठाईस गणधरा।
चालिस हजार साधु थे व्रतशील गुणधरा।।
श्रीबंधुषेणा गणिनी आर्या प्रधान थीं।
पचपन हजार आर्यिकाएँ गुण निधान थीं।।२।।
श्रावक थे एक लाख तीन लाख श्राविका।
तिर्यंच थे संख्यात देव थे असंख्यका।।
तनु धनु पचीस आयू पचपन सहस बरस।
है चिन्ह कलश देह वर्ण स्वर्ण के सदृश।।३।।
जो भव्य भक्ति से तुम्हें निज शीश नावते।
वे शिरो रोग नाश स्मृति शक्ति पावते।।
जो एकटक हो नेत्र से प्रभु आप को निरखें।
उन मोतिबिन्दु आदि नेत्र व्याधियाँ नशें।।४।।
जो कान से अति प्रीति से तुम वाणि को सुनें।
उनके समस्त कर्ण रोग भागते क्षण में।।
जो मुख से आपकी सदैव संस्तुती करें।
मुख दंत जिह्वा तालु रोग शीघ्र परिहरें।।५।।
जो कंठ में प्रभु आपकी गुणमाल पहनते।
उनके समस्त कंठ ग्रीवा रोग विनशते।।
श्वासोच्छ्वास से जो आप मंत्र को जपते।
सब श्वास नासिकादि रोग उनके विनशते।।६।।
जो निज हृदय कमल में आप ध्यान करे हैं।
वे सर्व हृदय रोग आदि क्षण में हरे हैं।।
जो नाभिकमल में तुम्हें नित धारते मुदा।
नश जातं उनकी सर्व उदर व्याधियाँ व्यथा।।७।।
जो पैर से जिनगृह में आके नृत्य करे हैं।
वे घुटने पैर रोग सर्व नष्ट करे हैं।।
पंचांग जो प्रणाम करें आपको सदा।
उनके समस्त देह रोग क्षण में हों विदा।।८।।
जो मन में आपके गुणों का स्मरण करें।
वे मानसिक व्यथा समस्त ही हरण करें।।
ये तो कुछेक फल प्रभो! तुम भक्ति किये से।
फल तो अचिन्त्य है न कोई कह सके उसे।।९।।
तुम भक्ति अकेली समस्त कर्म हर सके।
तुम भक्ति अकेली अनंत गुण भी भर सके।।
तुम भक्ति भक्त को स्वयं भगवान बनाती।
फिर कौन-सी वो वस्तु जिसे ये न दिलाती।।१०।।
अतएव नाथ! आप चरण की शरण लिया।
संपूर्ण व्यथा मेट दीजिए अरज किया।।
अन्यत्र नहीं जाऊँगा मैंने परण किया।
बस ‘ज्ञानमती’ पूरिये यहँ पे धरण दिया।।११।।
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
मल्लिनाथ जिनराज, जो पूजें नित भक्ति से।
लहें स्वात्म साम्राज, अनुक्रम से शिव संपदा।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।