अर्थ- सबसे पहले जल की धारा देकर भगवान की पूजा करनी चाहिए। वह जल की धारा भृंगार (झारी) की नाल से निकलनी चाहिए तथा वह जल इतना सुगंधित होना चाहिए कि उस पर भ्रमर आ जाएँ और जलधारा के चारों ओर घूमते हुये उन भ्रमरों से वह जल की धारा अनेक रंग की दिखाई देने लगे ऐसी जल की धारा भगवान के चरण कमलों पर पड़नी चाहिए। इस प्रकार जल की धारा से भगवान की पूजा करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं अथवा ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म शांत हो जाते हैं। चंदन से पूजन करने का फल
अर्थ – जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों पर (जिन प्रतिमा के चरण कमलों पर) सुगंधित चन्दन का लेप करता है उसको स्वर्ग में जाकर अत्यन्त निर्मल और स्वभाव से ही सुगंधित वैक्रियक शरीर प्राप्त होता है। भावार्थ-चन्दन से पूजा करने वाला भव्य जीव स्वर्ग में जाकर उत्तम देव होता है।
अर्थ – जो भव्य जीव भगवान जिनेन्द्र देव के सामने पूर्ण अक्षतों के पुंज चढ़ाता है अक्षतों से भगवान की पूजा करता है वह पुरुष चक्रवर्ती का पद पाकर अक्षयरूप नवनिधियों को प्राप्त करता है। चक्रवर्ती को जो निधियां प्राप्त होती हैं उनमें से चाहे जितना सामान निकाला जाये, निकलता ही जाता है, कम नहीं होता।
पुष्प से पूजन करने का फल
अलि-चुंबिएहिं पुज्जइ, जिणपयकमलं च जाइमल्लीहिं। सो हवइ सुरवरिंदो, रमेई सुरतरुवरवणेहिं।। अलि-चुम्बितै: पूजयति, जिनपद-कमलं च जातिमल्लिवै:। स भवति सुरवरेन्द्र:, रमते सुरतरुवरवनेषु।।४७३।।
अर्थ- जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की जिन पर भ्रमर घूम रहे हैं ऐसे चमेली, मोगरा आदि उत्तम पुष्पों से पूजा करता है वह स्वर्ग में जाकर अनेक देवों का इन्द्र होता है और वह वहाँ पर चिरकाल तक स्वर्ग में होने वाले कल्पवृक्षों के वनों में (बगीचों में) क्रीड़ा किया करता है।
नैवेद्य से पूजन करने का फल
दहिखीर-सप्पि-संभव-उत्तम-चरुएहिं पुज्जए जो हु। जिणवरपाय – पओरुह, सो पावइ उत्तमे भोए।। दधि-क्षीर-सर्पि:-सम्भवोत्तम-चरुवैक: पूजयेत् यो हि। जिनवर-पादपयोरुहं, स प्राप्नोति उत्तमान् भोगान्।।४७४।।
अर्थ – जो भव्य पुरुष दही, दूध, घी, आदि से बने हुये उत्तम नैवेद्य से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है उसे उत्तमोत्तम भोगों की प्राप्ति होती है।
अर्थ – जो दीपक, कपूर, घी, तेल आदि से प्रज्वलित हो रहा है और मन्द-मन्द वायु से नाच सा रहा है ऐसे दीपक से जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है वह पुरुष सूर्य-चन्द्रमा के समान तेजस्वी शरीर को धारण करता है।
अर्थ – जिससे बहुत भारी धुंआं निकल रहा है और जो शिलारस (शिलाजीत) अगुरु, चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों से बनी हुयी है ऐसी धूप अग्नि में खेकर भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलो को धूपित करता है वह तीनों लोकों में उत्तम पद को प्राप्त होता है। धूप को अग्नि में खेना चाहिए और उससे निकला हुआ धूंआं दाएं हाथ से भगवान की ओर करना चाहिए ।
अर्थ – जो भव्य पुरुष अत्यन्त उज्ज्वल रस से भरपूर ऐसे अनेक प्रकार के पके फलों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों के सामने समर्पण कर पूजा करता है वह अपने हृदय अनुकुल उत्तम फलों को प्राप्त होता है।
उमास्वामी श्रावकाचार मे श्री उमास्वामी आचार्य कहते हैं-
अर्थ – जो भव्य जीव जल, इक्षुरस, दूध, दही, घी, सर्वोषधि आदि से भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिमा का पंचामृताभिषेक करता हैं उसके शरीर से, मन से और अकस्मात् होने वाले सब तरह के संताप अवश्य नष्ट हो जाते हैं।
अर्थ –जो भव्यजीव प्रातिहार्य आदि अनेक शोभाओं से सुशोभित भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिमा के सामने भृगार नाल से (झारी से) तीन बार जल की धारा देता है व पुरुष महापुण्यवान समझा जाता है। और उसके जन्म, मरण, बुढ़ापा आदि के समस्त दु:ख अनुक्रम से नष्ट हो जाते हैं तथा थोड़े ही भवों में उसकी पापरूपी धूलि अवश्य ही शांत हो जाती है।
भावार्थ-भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिमा के सामने झारी की टोंटी से तीन बार जल की धारा देनी चाहिए। यही जल पूजा कहलाती है। जलधारा झारी सही देनी चाहिए कटोरी आदि से नहीं।
चन्दनाद्यर्चनापुण्यात्, सुगंधि-तनुभाग् भवेत्। सुगंधीकृतदिग्भागो, जायते च भवे भवे।।१६४।।
अर्थ –चन्दन से भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा करने से जो पुण्य होता है उससे यह जीव जन्म-जन्म में अत्यन्त सुगंधित शरीर प्राप्त करता है उस शरीर की सुगंधि से दशों दिशाएँ सुगंधित हो जाती हैं। भावार्थ- भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों के अंगूठे पर अनामिका उंगली से चन्दन लगाना पूजा कहलाती है। सबसे छोटी उंगली के पास की उंगली को अनामिका कहते हैं।
अर्थ-सपेद सुगंधित और शुभशालि धान्यों से उत्पन्न हुये अखंड तन्दुलों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करने वाला मोक्षरूपी अक्षय लक्ष्मी को प्राप्त होता है। भावार्थ- भगवान की प्रतिमा के सामने चावलों के पुञ्ज चढ़ाने से अक्षत पूजा कही जाती है। वे चावलों के पुञ्ज अंगूठे को ऊपर कर बंधी हुई मुट्ठी से रखने चाहिए, साथ में मंत्र भी पढ़ना चाहिए। रकेबी से अक्षत नहीं चढ़ाना चाहिए।
अर्थ-जो भव्य जीव पुष्पों से भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा करता है। वह स्वर्गलोक के इन्द्र की देवियों के मध्य में बैठा हुआ अनेक देवियों के सुंदर नेत्रों के द्वारा सदा पूजा जाता है। भावार्थ वह इन्द्र होता है और अनेक देवांगनाएं उसकी सेवा करती हैं। पुष्प भगवान की प्रतिमा के चरणों पर चढ़ाए जाते हैं। पुष्प दोनों हाथों की अंजलि से चढ़ाना चाहिए। इसी को पुष्प पूजा कहते हैं।
पक्वान्नादिकनैवेद्यै: प्रार्चयत्यनिशं जिनान्। स भुनक्ति महासौख्यं पचेन्द्रियसमुद्भवम्।।१६७।।
अर्थ- जो भव्य जीव पकाये हुये अनेक प्रकार के नैवेद्य से भगवान जिनेन्द्र देव की प्रतिदिन पूजा करता है वह पांचो इन्द्रियों से उत्पन्न हुये महासुखों का अनुभव करता है। भावार्थ चावलों के भात को अन्न कहते हैं। किसी अच्छे थाल में नैवेद्य को रखकर तथा दोनों हाथों से उस थाल को पकड़कर भगवान के सामने आरती उतारने के समान उस थाल को फिराकर सामने रख देना चाहिए। हाथ या कटोरी से नैवेद्य नहीं चढ़ाना चाहिए।
अर्थ-जो भव्य जीव रत्न, घी व कपूर के दीपकों से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की आरती उतारता है उस पुरुष की कांति चन्द्रमा के समान निर्मल हो जाती है। भावार्थ दीप पूजा दीपक से ही होती है। रंगे हुए चटक से नहीं। रंगे हुए चटक से भगवान का शरीर दैदीप्यमान नहीं होता। दीपक से आरती उतारी जाती है। इसीलिए परिणामों की विशुद्धि जो आरती से होती है वह रंगे चटक से नहीं हो सकती। दोनों हाथों से दीपक का थाल लेकर दाई ओर से बाई ओर घुमाकर भगवान के सामने बार-बार दैदीप्यमान करने को आरती कहते हैं। इसी को दीप पूजा कहते हैं।
अर्थ –जो भव्य जीव कृष्णगुरु, चन्दन आदि सुगंधित द्रव्यों से बनी हुई धूप से भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा करता है अग्नि में खेकर धूप चढ़ाता है। वह पुरुष समस्त लोगों के नेत्रों का प्यारा हो जाता है। भावार्थ धूप को अग्नि में खेकर उसका धूंआ अपने दांये हाथ से भगवान की ओर करना चाहिए इसी को धूप पूजा कहते हैं। धूप थाल में नहीं चढ़ाई जाती है किन्तु अग्नि में ही खेई जाती है।
अर्थ- जो भव्य जीव आम, नारंगी, नींबू, केला, आदि वृक्षों से उत्पन्न होने वाले फलों से भगवान सर्वज्ञदेव की पूजा करता है वह पुरुष अपनी इच्छा के अनुसार फलों को प्राप्त होता है। भावार्थ जिन फलों से इन्द्रिय और मन को संतोष हो ऐसे हरे व सूखे फल चढ़ाना चाहिए। फल देखने में सुन्दर और मनोहर होने चाहिए। गोला या बाकी मिंगी फल नहीं कहलाते किन्तु नैवेद्य कहलाते हैं। इसीलिए गोला के बदले नारियल चढ़ाना चाहिए, बादाम भी फोड़कर नहीं चढ़ाना चाहिए। रकेबी में फल रखकर बड़ी विनय और भक्ति से भगवान के सामने रखने चाहिए। आठो द्रव्यों में फल सर्वोत्कृष्ट द्रव्य है। श्री रविषेणाचार्य कहते हैं- अथानन्तर भरत, पिता के समान, प्रजा पर राज्य करने लगा। उसका राज्य समस्त शत्रुओं से रहित तथा समस्त प्रजा को सुख देने वाला था।।१३६।। तेजस्वी भरत अपने मन में असहनीय शोकरूपी शल्य को धारण कर रहा था इसलिए ऐसे व्यवस्थित राज्य में भी उसे क्षणभर के लिए संतोष नही होता था।।१३७।।वह तीनों काल अरनाथ भगवान की वन्दना करता था भोगों से सदा उदास रहता था और समीचीन धर्म का श्रवण करने के लिए मंदिर जाता था। यही इसका नियम था।।१३८।।वहां स्व और पर शास्त्रों के पारगामी तथा अनेक मुनियों का संघ जिनकी निरन्तर सेवा करता था ऐसे द्युति नाम के आचार्य रहते थे।।१३९।। उनके आगे बुद्धिमान भरत ने प्रतिज्ञा की कि मैं राम के दर्शन मात्र से मुनिव्रत धारण करूँगा।। १४०।। तदनन्तर अपनी गंभीर वाणी से मयूर समूह को नृत्य कराते हुये भगवान द्युति भट्टारक इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने वाले भरत से बोले।।१४१।।कि हे भव्य! कमल के समान नेत्रों के धारक राम जब तक आते तबतक तू गृहस्थ धर्म के द्वारा अभ्यास कर ले।।१४२।महात्मा निग्र्रन्थ मुनियों की चेष्टा अत्यन्त कठिन है पर जो अभ्यास के द्वारा परिपक्व होते हैं उन्हें उसका साधन करना सरल हो जाता है।।१४३।।‘‘मैं आगे तप करूंगा” ऐसा कहने वाले अनेक जड़बुद्धि मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं पर तप नहीं कर पाते हैं।।१४४।। ‘‘निग्र्रन्थ मुनियों का तपअमूल्य रत्न के समान है’‘। ऐसा कहना भी अशक्य है फिर उसकी अन्य उपमा तो हो ही क्या सकती है?।।१४५।।गृहस्थों के धर्म को जिनेन्द्र भगवान ने मुनिधर्म का छोटा भाई कहा है सो बोधि को प्रदान करने वाले इस धर्म में भी प्रमादरहित होकर लीन रहना चाहिए।।१४६।। जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीप में गया वहां वह जिस किसी भी रत्न को उठाता है वही उसके लिए अमूल्यता को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार धर्मचक्र की प्रवृत्ति करने वाले जिनेन्द्र भगवान के शासन में जो कोई इस नियमरूपी द्वीप में आकर जिस किसी नियम को ग्रहण करता है वही उसके लिए अमूल्य हो जाता है।।१४७-१४८।।जो अत्यन्त श्रेष्ठ अहिंसारूपी रत्न को लेकर भक्तिपूर्वक दाम जनेन्द्रदेव की पूजा करता है वह स्वर्ग में परम वृद्धि को प्राप्त होता है।।१४९।।जो सत्यव्रत का धारी होकर मालाओं से भगवान की अर्चा करता है उसके वचनों को सब ग्रहण करते हैं तथा उज्ज्वल कीर्ति से वह समस्त संसार को व्याप्त करता है।।१५०।।जो अदत्तादान अर्थात् चोरी से दूर रहकर जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता है वह रत्नों से परिपूर्ण निधियों का स्वामी होता है।।१५१।। जो जिनेन्द्र भगवान की सेवा करता हुआ परस्त्रियों में प्रेम नहीं करता है वह सबके नेत्रों को हरण करने वाला परम सौभाग्य को प्राप्त होता है।।१५२।। जो परिग्रह की सीमा नियत कर भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की अर्चा करता है वह अतिशय विस्तृत लाभों को प्राप्त होता है तथा लोग उसकी पूजा करते हैं।।१५३।। आहार-दान के पुण्य से यह जीव भोग से सहित होता है। अर्थात सब प्रकार के भोग इसे प्राप्त होते हैं यदि यह परदेश भी जाता है तो वहां भी उसे सदा सुख ही प्राप्त होता है।।१५४।। अभयदान के पुण्य से यह जीव निर्भय होता है और बहुत भारी संकट में पड़कर भी उसका शरीर उपद्रव से शून्य रहता है।।१५५।। ज्ञानदान से यह जीव विशाल सुखों का पात्र होता है और कलारूपी सागर से निकले हुये अमृत के कुल्ले करता है।।१५६।। जो मनुष्य रात्रि में आहार का त्याग करता है वह सब प्रकार के आरंभ में प्रवृत्त रहने पर भी सुखदायी गति को प्राप्त होता है।।१५७।। जो मनुष्य तीनों काल में जिनेन्द्रभगवान की वन्दना करता है उसके भाव सदा शुद्ध रहते हैं तथा उसका सब पाप नष्ट हो जाता है।।१५८।। जो पृथिवी तथा जल में उत्पन होने वाले सुगंधित फूलों से जिनेन्द्र भगवान की अर्चा करता है वह पुष्पक विमान को पाकर इच्छानुसार क्रीड़ा करता है।।१५९।। जो अतिशय निर्मल भावरूपी फूलों से जिनेन्द्र देव की पूजा करता है वह लोगों के द्वारा पूजनीय तथ ा अत्यन्त सुन्दर होता है।।(१६०)।। जो बुद्धिमान चन्दन तथा कालागुरु आदि से उत्पन्न धूप जिनेन्द्र भगवान के लिए चढ़ाता है वह मनोज्ञ देव होता है।।(१६१)।। जो जिनमंदिर में शुभ भाव से दीपदान करता है वह स्वर्ग में देदीप्यमान शरीर का धारक होता है।।(१६२)।। जो मनुष्य छत्र, चमर, फन्नूस, पताका तथा दर्पण आदि के द्वारा जिनमंदिर को विभूषित करता है वह आश्चर्यकारक लक्ष्मी को प्राप्त होता है।।(१६३)।। जो मनुष्य सुगंधि से दिशाओं को व्याप्त करने वाली गंध से जिनेन्द्र भगवान का लेपन करता है वह सुगंधि से युक्त, स्त्रियों को आनन्द देने वाला प्रिय पुरुष होता है।।(१६४)।। जो मनुष्य सुगंधित जल से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करता है वह जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है वहा अभिषेक को प्राप्त होता है।।१६५।। जो दूध की धारा से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करता है वह दूध के समान धवल विमान में उत्तम कान्ति का धारक होता है।।१६६।। जो दही के कलशों से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करता है वह दही के समान फर्श वाले स्वर्ग में उत्तम देव होता है।।१६७।। जो घी से जिनदेव का अभिषेक करता है वह कांति, द्युति और प्रभाव से युक्त विमान का स्वामी देव होता है।।१६८।। पुराण में सुुना जाता है कि अभिषेक के प्रभाव से अनन्तवीर्य आदि अनेक विद्वज्जन, स्वर्ग की भूमि में अभिषेक को प्राप्त हुये हैं।।१६९।। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक जिनमंदिर में रंगावलि आदि का उपहार चढ़ाता है वह उत्तम हृदय का धारक होकर परमविभूति और आरोग्य को प्राप्त होता है।।१७०।। जो जिनमंदिर में गीत, नृत्य तथा वादित्रों से महोत्सव करता है वह स्वर्ग में परम उत्सव को प्राप्त होता है।।१७१।। जो मनुष्य जिनमंदिर बनवाता है उस सुचेता के भोगोत्सव का वर्णन कौन कर सकता है?।।१७२।। जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा बनवाता है वह शीघ्र ही सुर तथा असुरों के उत्तम सुख प्राप्त कर परमपद को प्राप्त होता है।।१७३।। तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्यकर्म संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक प्रतिमा के बनवाने से उत्पन्न हुये पुण्य की बराबरी नहीं कर सकते।।१७४-१७५।। इस कहे हुये फल को जीव स्वर्ग में प्राप्त कर जब मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होते हैं तब चक्रवर्ती आदि का पद पाकर वहां भी उसका उपभोग करते हैं।।१७६।। जो कोई मनुष्य इस विधि से धर्म का सेवन करता है वह संसार-सागर से पार होकर तीन लोक के शिखर पर विराजमान होता है।।१७७।। जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चितंवन करता है वह बेला का, जो उद्यम का अभिलाषी होता है वह तेला का, जो जाने का आरंभ करता है वह चौला का, जो जाने लगता है वह पांच उपवास का, जो कुछ दूर पहुंच जाता है बारह उपवास का, जो बीच में पहुंच जाता है वह पन्द्रह उपवास का, जो मंदिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मंदिर के आंगन में प्रवेश करता है वह छहमास के उपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्षोपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के उपवास का, जो जिनेन्द्र देव के मुख का दर्शन करता है वह हजार वर्ष के उपवास का और जो स्वभाव से स्तुति करता है वह अनन्त उपवास के फल को प्राप्त करता है। यथार्थ में जिनभक्ति से बढ़कर उत्तम पुण्य नहीं है ।।१७८-१८२।। आचार्य द्युति कहते हैं कि हे भरत! जिनेन्द्र देव की भक्ति से कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो गये है |
धूपैरालेपनै: पुष्पै-र्मनोज्ञैर्बहुभक्तिभि:।।८९।।
विधाय महतीं पूजां, सन्निविष्ट: पुरोऽवनौ।
सगर्भं वदनं चक्रे पूतै: स्तुत्यक्षरैश्चिरम्।।९०।|
प्रतिमा स्थापित कर उसने भारी सुगंधि से भ्रमरों को आकर्षित करने वाले धूप, चन्दन, पुष्प तथा मनोहर नैवेद्य के द्वारा बड़ी पूजा की और सामने बैठकर चिरकाल तक स्तुति कर पवित्र अक्षरों से अपने मुख को सहित किया।।८९-९०।।
जिस प्रकार विष का एक कण तालाब में पहुंचकर पूरे तालाब को दूषित नहीं कर सकता उसी प्रकार जिनधर्मानुकुल आचरण करने वाले पुरुष से जो थोड़ी हिंसा होती है वह उसे दूषित नहीं कर सकती। उसकी वह अल्प हिंसा व्यर्थ रहती है।।९२।। इसलिए भक्ति मेें तत्पर रहने वाले कुशल मनुष्यों को जिनमंदिर आदि बनवाना चाहिए और माला, धूप, दीप आदि सबकी व्यवस्था करनी चाहिए।।९३।।
किन्तु सफेद पताकाएं जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुये हैं ऐसे ये जिनमंदिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं।।२७६।। ये सब मंदिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुये हैं। हे वत्स! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षणभर में अपने हृदय को पवित्र कर।।२७७।।
इसलिए इस उत्तम देव का यथोचित आश्रय लेकर मुनिराज की पद्मासन से पवित्र इस गुफा में श्री मुनिसुव्रत भगवान की प्रतिमा विराजमान कर सुख-प्राप्ति के लिए अत्यंत सुगंधित पूलों से उसकी पूजा करती हुई हम दोनों कुछ समय तक यहीं रहें। इस गर्भ की सुख से प्रसूति हो जाये चित्त में इसी बात का ध्यान रखें और विरह-संबंधी सब दुख भूल जावें।।२८९-२९१।।
सचित्त पूजा-
माल्यगंधप्रधूपाद्यै:, सचित्तै: कोऽर्चयेज्जिनम्। सावद्यसंभवं वक्ति य:, स एवं प्रबोध्यते।।१४०।। जिनार्चानेकजन्मोत्थं, किल्विषं हंति यत्कृतम्। सा विंचिद् यजनाचारभवं सावद्यमंगिनाम्।।१४१।।
अर्थ- कोई कोई लोग यह कहते हैं कि पुष्पमाला, धूप, दीप, जल, फल आदि सचित्त पदार्थों से भगवान की पूजा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि सचित्त पदार्थों से पूजा करने में सावद्य जन्य पाप (सचित्त के आरंभ से उत्पन्न हुआ पाप) उत्पन्न होता है। उनके लिए आचार्य समझाते हैं कि भगवान की पूजा करने से अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं फिर क्या उसी पूजा से उसी पूजा में होने वाला आंरभ जनित वा सचित्त जन्य थोड़ा सा पाप नष्ट नहीं होगा ? अवश्य होगा।
इसका भी कारण यह है कि-
प्रेर्यन्ते यत्र वातेन, दन्तिन: पर्वतोपमा:। तत्राल्पशक्तितेजस्सु, का कथा मशकादिषु।।१४२।। भक्तं स्यात्प्राणनाशाय, विषं केवलमंगिनाम्। जीवनाय मरीचादि-सदौषधिविमिश्रतम्।।१४३।।
अर्थ-जिस वायु से पर्वत के समान बड़े-बड़े हाथी उड़ जाते हैं उस वायु के सामने अत्यन्त अल्प शक्ति को धारण करने वाले डांस मच्छर क्या टिक सकते हैं ? कभी नहीं। उसी प्रकार जिस पूजा से जन्म-जन्मान्तर के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं उसी पूजा से क्या उसी पूजा के विधि-विधान में होने वाली बहुत ही थोड़ी हिंसा नष्ट नहीं हो सकती ? अवश्य होती है। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। विष भक्षण करने से प्राणियों के प्राण नष्ट हो जाते हैं परन्तु वही विष यदि सोंठ, मिरच, पीपल आदि औषधियों के साथ मिलाकर दिया जाये तो उसी से अनेक रोग नष्ट होकर जीवन अवस्था प्राप्त होती है। इसी प्रकार सावद्य कर्म यदि विषय सेवन के लिए किये जांये तो वे पाप के कारण हैं ही परन्तु भगवान की पूजा के लिए बहुत ही थोड़े सावद्य कर्म पाप के कारण नहीं होते, पुण्य के ही कारण होते हैं। मंदिर बनवाना, पूजा करना, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करना, रथोत्सव करना आदि जितने पुण्य के कारण हैं उन सबमें थोड़ा बहुत सावद्य अवश्य होता है। परन्तु वह सावद्य दोष पुण्य का ही कारण होता है। इसी प्रकार सचित्त द्रव्य से होने वाली पूजा में होने वाला सावद्य दोष पुण्य का ही कारण होता है। भगवान की पूजा केवल पुण्य उपार्जन करने के लिए, आत्मा का कल्याण करने के लिए और परम्परा से मोक्ष प्राप्त करने के लिए की जाती है, अक्षतों को शेषाक्षत कहते हैं। पूजा करने के बाद शेषाक्षतों को मस्तक पर धारण करना चाहिए।
इसी प्रकार चंदन से पूजा करने के बाद बचे हुये चंदन से तिलक लगाने में कोई दोष नहीं है प्रत्युत गुण ही है।