(१) अत्यंतसुकुमारस्य, जिनस्य सुरयोषित:।
शच्याद्या: पल्लवस्पर्श-सुकुमारकरास्तत:।।१७२।।
दिव्यामोदसमाकृष्टषट्पदौघानुलेपनै:।
उद्वर्तयन्त्यस्ता: प्रापु:, शिशुस्पर्शसुखं नवम्।।१७३।।
ततो गंधोदवै: वुंभैरभिषिंचन् जगत्प्रभुं।
पयोधरभरानम्रास्ता वर्षा इव भूभृतं१।।१७४।।
शचि आदि देवियों ने अत्यंत सुकुमार जिनबालक के शरीर पर दिव्य सुगंधित चंदन विलेपन करके शिशु के स्पर्श के नूतन सुख का अनुभव किया। पुन: सुगंधित जल से भरे हुये कलशों से जगत के प्रभु का अभिषेक किया।
(२) तत: सुरपति स्त्रियो जिनमुपेत्य शच्यादय:।
सुगंधितनुपूर्ववैर्मृदुकरा: समुद्वर्तनम्।।
प्रचव्रुरभिषेचनं शुभपयोभिरुच्चैर्घटै:।
पयोधरभरैर्निजैरिव समं समावर्जितै:२।।५४।।
शची आदि इन्द्राणियों ने जिनेन्द्र देव के कोमल शरीर का उद्वर्तन करके शुभ जल से परिपूर्ण कलशों से उनका अभिषेक किया।
(३) गृहीतगंध-पुष्पादि-प्रार्चना: सपरिच्छदा।
अथैकदा जगामैषा, प्रातरेव जिनालयम्।।५५।।
त्रि:परीत्य तत: स्तुत्वा, जिनांश्च चतुराशया।
संस्नाप्य पूजयित्वा च, प्रयाता यति संसदि३।।५६।।
वह कन्या सपरिवार गंध, पुष्प आदि पूजन सामग्री लेकर प्रात: ही जिनमंदिर में पहुंची। वहां पर तीन प्रदक्षिणा देकर जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करके और उनकी पूजा करके यतियों की सभा मे पहुंचती है।
(४) अथैकदा सुता सा च सुधी: मदनसुंदरी।
कृत्वा पंचामृतै: स्नानं, जिनानां सुखकोटिदम१।।
एक समय विदुषीमदन सुंदरी ने करोड़ों सुखों को देने वाला ऐसा जिनेन्द्रदेव का पंचामृतों से अभिषेक किया।
(५) तदा वृषभसेना च प्राप्य राज्ञीपदं महत्।
दिव्यान् भोगान् प्रभुंजाना, पूर्वपुण्यप्रसादत:।।३८।।
पूजयंती जगत्पूज्यान्, जिनान् स्वर्गापवर्गदान्।
दिव्यैरष्टमहाद्रव्यै:, स्नपनादिभिरुज्ज्वलै:२।।३९।।
तब वृषभसेना सम्राज्ञीपद को प्राप्त कर पूर्व पुण्य से दिव्य भोगों को भोगती हुयी जगत्पूज्य जिनप्रतिमाओं की अभिषेकपूर्वक पूजा करती थी।
(६) इत्युक्तो नोदयद्वेगात्, सारथी रथमाप स:।
जिनवेश्म तमास्थाप्य, तौ प्रविष्टौ प्रदक्षिणम्।।२०।।
क्षीरेक्षुरसधारौघै-र्घृतदध्युकदकादिभि: ।
अभिषिच्य जिनेंद्रार्चा-मर्चितां नृसुरासुरै:३।।२१।।
गंधर्वसेना के ऐसा कहने पर सारथी ने रथ को वेग से बढ़ाया और सब जिनमंदिर जा पहुंचे। वहां रथ को खड़ा कर वसुदेव और गंधर्वसेना ने मंदिर में प्रवेश किया, तीन प्रदक्षिणाएं दीं और पुन: दूध, इक्षुरस की धारा, घी, दही तथा जल आदि से मनुष्यों और सुर-असुरों से पूज्य ऐसे जिनेन्द्र देव की प्रतिमा का अभिषेक किया।
(७) अभिषेवैर्जिनेंद्राणा-मत्युदारैश्च पूजनै:
दानैरिच्छाभिपूरैश्च, क्रियतामशुभेरणम्।।१६।।
एवमुक्ता जगौ सीता-देव्य: साधु समीरितम्
दानं पूजाभिषेकश्च, तपश्चाशुभसूदनम्४।।१७।।
जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक, अत्युदार पूजन और किमिच्छक दान के द्वारा अशुभ कर्म को दूर हटाना चाहिए। इस प्रकार कहने पर सीता ने कहा कि हे देवियों! आप लोगों ने ठीक कहा है क्योंकि दान, पूजा, अभिषेक और तप अशुभ कर्मों को नष्ट करने वाला है।
(८) तस्मिन् विधाय महतीमुपवासपूर्वां,
पूजां जगद्विजयिनो जिनपुंगवस्य।।
स्नानं समीहितनिमित्तमथस्तदीय-
बिम्बस्य स प्रविदधे सहितोऽग्रदेव्या१।।६१।।
जगत विजयी जिनेन्द्र देव की पूजा करके राजा ने अपनी पट्टरानी के साथ जिनेन्द्र देव की प्रतिमा का अभिषेक किया।
(९) श्री वीरनाथ-बिंबस्य, स्नपनं क्रियते मुदा
इक्षुसुघृतसद्दुग्ध-दधिवारिभृतैर्घटै: ।।१६।।
तत: पूजा प्रकर्तव्या, वीरस्य सलिलादिभि:
हृद्वाक्कायं स्थिरीकृत्य, दुष्कृतनाशनहेतवे।।१७।।
किसी महिला को उपदेश देते हैं कि तुम्हें वीरप्रभु की प्रतिमा का अभिषेक दूध, दही, घी, इक्षुरस, पूर्ण कलश आदि के करने चाहिए तत्पश्चात् मन-वचन-काय को स्थिर करके पाप को नष्ट करने हेतु महावीर प्रभु की जलादि से पूजा करनी चाहिए।किसी महिला को उपदेश देते हैं कि तुम्हें वीरप्रभु की प्रतिमा का अभिषेक दूध, दही, घी, इक्षुरस, पूर्ण कलश आदि के करने चाहिए तत्पश्चात् मन-वचन-काय को स्थिर करके पाप को नष्ट करने हेतु महावीर प्रभु की जलादि से पूजा करनी चाहिए।
(१०) इतीयं निश्चयं कृत्वा, दिनानां सप्तवं सती
श्री जिनप्रतिबिंबानां, स्नपनं सा तदाऽकरोत्।
चन्दनागुरुकर्पूर-सुगंधैश्च विलेपनै:
सा राज्ञी विदधे प्रीत्या, जिनेन्द्राणां त्रिसंध्यकम्।।३
इस प्रकार से निश्चय करके उस रानी ने सात दिन तक तीनों कालों में चंदन आदि सुगंधित विलेपन पूर्वक श्री जिनदेव की प्रतिमाओं का अभिषेक किया।
(११) ततस्तयोर्जिनेन्द्राणां, महास्नपनपूर्वकम्,
कल्याणदायिनीं पूजां, पात्रदानं सुखप्रदम्।।
१. चंद्रप्रभचरित सर्ग ३। २. गौतमचरित्र सर्ग ३ श्रीधर्मचंद्र मंडलाचार्यकृत। ३. षट्कर्मोपदेशरत्नमाला, आचार्य सकलभूषण कृत
कुर्वतो: सुखत: वैश्चिद् मासैर्जनि: सुतोत्तम:।१
तदानन्द: स्ववन्धूना-मभूत्प्राप्ते निधौ यथा।।१९।।