आयुर्वेद हमारे देश की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति है जिसे जीवन विज्ञान के रूप में स्वीकार किया गया है। हमारे दैनिक जीवन यापन की प्रत्येक क्रिया आयुर्वेद के स्वास्थ्य सम्बन्धी सिद्धान्तों पर आधारित है। यही कारण है कि उन सिद्धान्तों से विचलित होने पर उसका तत्काल प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल रूप से पड़ता है। प्रात:काल सोकर उठने से लेकर रात्रि में शयन पर्यन्त सम्पूर्ण कार्यों का विधि विधान आयुर्वेद में प्रतिपादित है। सम्पूर्ण आयुर्वेद संस्कृति और सभ्यता से प्रभावित है जो इस तथ्य से स्पष्ट है कि आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद माना गया है, क्योंकि आयुर्वेद के अनेक प्रकरण या अंश (उद्धरण) अथर्ववेद में उपलब्ध होते हैं इसके अतिरिक्त वेद को अनादि और शाश्वत माना गया है। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार प्रत्येक सृष्टि के प्रारंभ में स्वयम्भू ब्रह्मा इसकी अभिव्यक्ति करते हैं। नवीन उत्पत्ति नहीं होने से यह अनादि है और इसका विनाश नहीं होने से शाश्वत है।
वैदिक संस्कृति, सभ्यता और परम्परा के समान ही भारत में श्रमण परम्परा और संस्कति भी प्रचलित रही है। जिसने भारतीय जन जीवन को यथेष्ट रूप से प्रभावित कर उसे आप्यायित किया है। वैदिक संस्कृति की भांति श्रमण संस्कृति की भी अपनी मौलिक विचारधारा, चिन्तन पद्धति एवं सिद्धान्त रहे हैं जिनसे उसका स्वतंत्र स्वरूप विकसित होकर स्वतंत्र सत्ता स्थापित हुई है। वैदिक संस्कृति में जिस प्रकार आयुर्वेद का स्वरूप विकसित हुआ है उसी प्रकार श्रमण संस्कृति में भी आयुर्वेद का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य हुआ है। वैदिक संस्कृति में आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानकर उसे भी वेदत्व श्रेणी प्रदान की गई, इसी प्रकार श्रमण संस्कृति में अन्य विद्याओं की भांति आयुर्वेद को भी द्वादशांग वाणी (श्रुत) के अन्तर्गत स्वीकार कर उसका महत्व प्रतिपादित किया गया है। वैदिक संस्कृति में जो महत्व वेद का है, श्रमण संस्कृति में वही महत्व द्वादशांग वाणी (श्रुत) का है। श्रमण संस्कृति (जैन धर्म) के अनुसार भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि को अवधारण करने वाले उनके प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूति ने भगवान महावीर के उपदेशों (दिवयध्वनि) को ग्रहण (धारण) कर उसे बारह अंग और चौदह पूर्व के रूप में उपदिष्ट किया था। वह संपूर्ण वाङ्मय (साहित्य) द्वादशांग श्रुत कहलाता है।
इसमें बारहवें दृष्टिवादांग के चतुर्दश पूर्व के अन्तर्गत बारहवां प्राणावाय पूर्च ही संपूर्ण आयुर्वेद का कथन करता है। अभिप्राय यह है कि जैन धर्म में आयुर्वेद को प्राणावाय (प्राणावाद) पूर्व के नाम से प्रतिपादित किया गया है– यही इसमें मौलिक अन्तर है। अनेक जैनाचार्यों ने इसी आधार पर अनेक आयुर्वेद के ग्रन्थों की रचना की है जिसमें अनेक ग्रन्थ हमारी उपेक्षा और असावधानी के कारण काल कवलित हो गये हैं। जैसे समन्तभद्र स्वामी द्वारा रचित सिद्धान्त रसायन कल्प, पुष्पायुर्वेद आदि, पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित रत्नाकरौषध रोग, वैद्यामृत, कल्याणकारण आदि, अमृतनन्दिन्कृत अकारादि निघण्टु, मंगराज द्वारा रचित ‘खगेन्द्र मणिदर्पण, मुनि यश: कीर्तिकृत जगत्सुदरी प्रयोग माला आदि, श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित ‘वेज्जगाहा’ (वैद्यगाथा) इत्यादि।
वैसे तो आयुर्वेद एवं प्राणावाय पूर्व के ग्रंथों में लगभग समान रूप से अष्टांग आयुर्वेद जैन निदान, चिकित्सा, स्वस्थवृत्त, अगदतन्त्र, रसायनतन्त्र आदि का विवेचन किया गया है, किन्तु प्राणावाय पूर्व में आयुर्वेद की अपेक्षा कुछ विशेषता भी है। जैसे आयुर्वेद में शारीरिक और मानसिक भेद से प्रकार का स्वास्थ्य प्रतिपादित किया गया है- शरीर को धारण करने वाले तीन दोष (वा-पित्त-कफ), सात धातुएं (रस-रक्त-मांस-मेढ-अस्थि-मज्जा और शुक्र) तथा तीन मल (स्वेद-मूत्र-पुरीष) ये समस्त भाव जब तक शरीर में समान रूप से संतुलित रहते हैं तब तक शरीर में कोई विकार या रोग उत्पन्न नहीं होता है और शरीर स्वस्थ एवं निरोग बना रहता है, यही मनुष्य का शारीरिक स्वास्थ्य है। इसी प्रकार कोई मानसिक दोष (रज या तम) तब तक मनुष्य के मन में विकृति या रोग उत्पन्न नहीं करता तब तक वह भी मानसिक रूप से स्वस्थ या अविकृत रहता है – यह मानसिक स्वास्थ्य है।
उपर्युक्त द्विविध स्वास्थ्य यद्यपि प्राणावाय शास्त्र (जैनायुर्वेद) में भी अभीष्ट है, तथापि अध्यात्म प्रधान होने से प्राणावाय शास्त्र में स्वास्थ्य के दो भेद भिन्न प्रकार से प्रतिपादित किए गए हैं। यथा- पारमार्थिक स्वास्थ्य और व्यावहारिक स्वास्थ्य। श्री अग्रादित्याचार्य के अनुसार प्रथम पारमार्थिक स्वास्थ्य प्रधान या मुख्य है और द्वितीय व्यवहार स्वास्थ्य अप्रधान या गौण है। ऊपर आयुर्वेद के अनुसार जो शारीरिक और मानसिक भेद से दो प्राकार का स्वास्थ्य बतलाया गया है। उसका समावेश प्राणावाय में प्रतिपादित व्यवहारिक स्वास्थ्य में किया गया है। यथा-
समाग्नि धातुत्वमदोष विभ्रमो मलक्रियात्मेन्द्रि सुप्रसन्नता ।
मन: प्रसादश्च नरस्य सर्वदा तदेवमत्तंâ व्यवहारजं खलु ।।१।।
अर्थात् अग्नि (जठराग्नि), धातु (सात धातुएं) और तीन दोष (वात-पत्ति-कफ) का सम अवस्था में होना, मल (स्वेढ, मूत्र, पुरीष) की विसर्जन क्रिया में विभ्रम (विषमता) नहीं होना, आत्मा, इन्द्रिय और मन की प्रसन्नता (निर्मलता) व्यवहारज स्वास्थ्य कहलाता है।
यह व्यावहारिक स्वास्थ्य भौतिक होता है। इसका सम्बन्ध केवल शरीर और मन से होता है। शरीर और मन की स्वास्थता एवं निरोगता इसका मुख्य प्रतिपाद्य है। यह पारमार्थिक स्वास्थ्य की प्राप्ति में सहायक होता है। श्री उग्रादित्यायार्च ने पारमार्थिक स्वास्थ्य का प्रतिपादन निम्न प्रकार से किया है –
अशेषकर्मक्षयजं महाद्भूतं येदेतदात्यन्तिकमद्वितीयम् ।
अतीन्द्रियं प्रार्थितमर्थवेदिभिस्तदेतदत्तंâ परमार्थनाकम् ।।२।।
अर्थात् आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न, अद्भूत, आत्यन्तिक एवं अद्वितीय विद्वज्जनों द्वारा प्रार्थित जो अतीन्द्रिय सुख है वह परमार्थ स्वास्थ्य कहलाता है।
इस प्रकार आरोग्य या द्विविध स्वास्थ्य का प्रतिपादन मात्र आयुर्वेद शास्त्र (प्राणावाय) में किया गया है, अत: यह आध्यात्मिकता से अनुप्राणित है और इसका मुख्य उद्देश्य लोकापकार करना है। मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु विविध उपायों का निर्देश करना तथा औषध चिकित्सा के द्वारा विविध रोगों को शमन करना लोकापकार की चरम परिणति है। आयाुर्वेद शास्त्र में चिकित्सा को पुण्यतम कहा गया है- ‘‘चिकित्सिातात् पुण्यतमं न किचिंत् ।’’ क्योंकि चिकित्सा के द्वारा रोग जनित उन असह्य वेदनाओं जो धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के साधन में विघ्न रूप होती है से मुक्ति मिलती है। श्री उग्रादित्याचार्य ने भी इस शास्त्र (कल्याण कारण) का कथन लोकोपकार करने के लिये किया है – ‘‘लोकोपकारणार्थमिदं हि शास्त्रम् ।’’३ अर्थात् यह शास्त्र लोक का उपकार करने कि लिए है।
इससे स्पष्ट है कि जैन धर्म में लोकोपकार और उसके माध्यम से आत्म कल्याण को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। क्योंकि लोकोपकार के कारण् मनुष्य एक ओर तो दूसरों का हित करता ही है, दूसरी ओर पुण्य संचय के कारण अपना भी हित करता है।
हमारे स्वास्थ्य को प्रतिवूâल रूप से प्रभावित करने वाले कारणों में रोग मुख्य कारण है जो हमारे असंयमित एवं मिथ्या आहार-विहार के कारण उत्पन्न होते हैं – ऐसा आयुर्वेद का अभिप्राय- कथन है किन्तु प्राणावाय शास्त्र के अनुसार रोगोतपत्ति का मुख्य हेतु पूर्वजन्म कृत अपने पूर्वकृत कर्म हैं। इस सम्बन्ध में श्री उग्रादित्याचार्य का निम्न कथन महत्वपूर्ण है –
सहेतुकास्सर्वविकारजातास्तेषां विवेको गुणमुख्यभेदात् ।
हेतु: पुन: पूर्वकृतं स्वकर्म तत: परे तस्य विशेषणानि ।।४।।
अर्थात्शरीर में सर्व विकार सहेतुक होते हैं, किन्तु उन हेतुओं को जानने के लिए गौण और मुख्य विवक्षा विवेक से काम लेने की आवश्यकता है। सभी रोगों- विकारों का मुख्य हेतु अपने पूर्वकृत कर्म हैं। शेष उसके विशेषण (निमित्तकारण) या गौण हैं।
इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य करते हैं –
न भूतकोपान्न च दोषकोपान्न चैव सांवत्सरिकोपरिष्टात् ।
ग्रहप्रकोपात् प्रभवन्ति रोगा: कर्मोदयोदीरण भावतस्ते ।।५।।
अर्थात् रोग पृथ्वी आदि महाभूतों के प्रकोप से उत्पन्न नहीं होते हैं ओर न ही दोषों के प्रकोप से रोग उत्पन्न होते हैं। वर्षफल की विकृति होने से या मंगल आदि ग्रहों के प्रकोप से भी रोगों की उत्पत्ति नहीं होती है। रोग कर्मोदय और कर्मों कर उदीरणा से उत्पन्न होते हैं।
इसी प्रकार प्राणावाय शास्त्र में प्रतिपादित चिकित्सा का स्वरूप भी आयुर्वेद तथा अन्य चिकित्सा पद्धतियों में प्रतिपादित स्वरूप भिन्न है। प्राणावाय के अनुसार रोगों की उत्पत्ति का मूल कारण पूर्व जन्मकृत हमारे स्वकर्म होते हैं, अत: उन कर्मों का क्षय या उपशमन होना ही उन रोगों की चिकित्सा है। श्री उग्रादित्याचार्य ने यही भाव व्यक्त करते हुए चिकित्सा का स्वरूप निम्न प्रकार से प्रतिपादित किया है –
तस्मात्स्वकर्मोपशमक्रियाया व्याधिप्रशान्तिं प्रवदन्ति तज्झा: ।
स्वकर्मपाको द्विविधो यथावादुपाय कालक्रमभेदभिन्न: ।।१।।
अर्थात् स्वकर्म के उपशम की क्रिया को रोग का उपशमन करने वाली क्रिया (चिकित्सा) तत्श्स्त्रज्ञ कहते हैं। स्वकर्म पाक (अपने कर्म का पकना) दो प्रकार होता है – एक यथाकाल पकना तथा दूसरा उपाय से उसे पकाना। इसे उदाहरणपूर्वक निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है –
उपायपाको वरधोवीरतपप्रकारैस्सुविशुद्धमार्गै: ।
सद्य: फलंयच्छति कालपाक: कालान्तराय: स्वयमेव दद्यात् ।।७।।
अर्थात् उत्कृष्ट घोरवीर तप आदि विशुद्ध उपायों से (कर्म का उदयकाल नहीं होते हुए भी) कर्म को उदय में लाना यह एक उपाय पाक कहलाता है, इससे उसी समय पूर्वजन्मकृत कर्मों का फल मिल जाता है। कालान्तर में यथा समय (अपने आयुष्यावसान में) कर्म स्वयं उदय में आकर (पककर) फल देते हैं – यह काल पाक है।
आगे पु: कहा गया है –
यथा तरूणां फलपाकयोगो मतिप्रगल्भै: पुरूषैर्विधेय: ।
तथा चिकित्साप्रविभागकाले दोषप्रपाको द्विविध: प्रसिद्ध:।।८।।
अर्थात् जिस प्रकार वृक्ष के फल स्वयं भी पकते हैं और बुद्धिमान मनुष्य उन्हें विभिन्न उपायों के द्वारा भी पकाते हैं। उसी प्रकार प्रकुपित दोष भी उपाय (चिकित्सा) और कालक्रम दोनों प्रकार से पकते हैं।
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि जैन धर्म के अनुसार मनुष्य के शरीर में रोगोद्भव अशुभ कर्म के उदय से होता है। मनुष्य के द्वारा पूर्व जन्म में किए गये असत्कर्म या पाक कर्म अपना फल देने हेतु जब इस जन्म में उदय में आते हैं तब उसके परिणाम स्वरूप अन्यान्य कष्टों-दु;खों के अतिरिक्त रोागेत्पत्ति रूपकष्ट की उसे होता है। उसका शमन या निवारण तब तक सम्भव नहीं है जब तक उस अशुभ कर्म का परिपाक होकर पूर्णत: उसका क्षय या शमन नहीं हो जाता। शास्त्रों के अनुसार धर्मचरण के द्वारा अशुभ कर्म या पाप का शमन होता है, अत: पापकर्म जनित रोग का शमन धर्मचरण या धर्म सेवन से ही संभ है – यही भाव जैन धर्म में निम्न प्रकार से प्रतिपादित किया गया है-
सर्वात्मना धर्मपर: नरो स्यात्तमाशुसर्व समुपैति सौरव्यम् ।
पापोदयात्ते प्रभवन्ति रोगा धर्मच्च पापा: प्रतिपक्षभावात् ।
नश्यन्ति सर्वे प्रतिपक्षयोगाद्विनाशमायान्तिकिमत्र चित्रम?।।९।।
अर्थात् जो मनुष्य सर्व प्रकार से धर्म परायण होता है उसे शीध्र ही सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। पाप के उदय से विविध रोग उत्पन्न होते हैं तथा पाप और धर्म के परस्पर विरोधी भाव होने से धर्म से पाप का नाश होता है प्रतिपक्ष की प्रबलता होने से यदि रोग समूह विनाश को प्राप्त होते हैं तो इसमें आश्ख्र्य की क्या बात है?
धर्म के प्रीााव से पाप रूप रोग का जो नाश होता है उसमें धर्म तो वस्तुत: आभ्यन्तर कारण होता है और बाह्यकारण के रूप में प्रयुक्त औषधोपाचार को ही चिकित्सा कहा जाता है जबकि आभ्यन्तर कारण के रूप में सेवित धर्म को धर्माचरण ही माना जाता है, किन्तु चिकित्सा के अन्तर्गत धर्म का भी उल्लेख होने से उसे सात्विक चिकित्सा के रूप में स्वीकार किया गया है। रोगोपशमनार्थ बाह्य और आभ्यन्तर चिकित्सा के रूप में धर्म आदि की कारणता निम्न प्रकार से बतलाई गई है –
धर्मस्तथाभ्यन्तरकारणं स्याद्रोगप्रशान्त्यै सहकारी पूरम् ।
बाह्यं विधानं प्रतिपाद्यतेऽत्र चिकित्सतं सर्वमिहोमयात्म ।।१०।।
अर्थात् रोगों की शान्ति के लिए धर्म आभ्यन्तर कारण होता है जबकि बाह्य चिकित्सा सहकारी पूरक कारण होती है। अत: सम्पूर्ण चिकित्सा और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार की होती है।
चिकित्सा कर्म के द्वारा लोगों के व्याधिजनित कष्ट का निवारण ही नहीं होता, अपितु कई बार भीषण दु:साध्य व्याधि से मुक्त हो जाने के कारण रोगी को जीवनदान भी मिल जाता है। इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जो चिकित्सा की जाती है उसके मूल में परोपकार और नि:स्वार्थ की भावना कितनी है ? इसी पर पुण्य की मात्रा निर्भर है। क्योंकि धन के लोभ से स्वार्थवश किया गया चिकित्सा कार्य पुण्य काय्र नहीं माना जा सकता। धनलिप्सा के वशीभूत होकर किया गया चिकित्सा कार्य लोभवृत्ति और परिग्रहवृत्ति का परिचायक है। ये दोनों ही भाव अशुभ कर्म के बन्ध का कारण माने गए है। अत: ऐसी स्थिति में वह परलोक के सुख का कारण वैâसे बन सकती है ? चिकित्सा कार्य वस्तुत: अत्यन्त पवित्र कार्य है और वह परहित की भावना से प्रेरित होकर किया जाना चाहिये, जब ही वह धर्माचरण माना जा सकता है और उसके द्वारा पापों (अशुभ कर्मो) का विनाश एवं धर्म की अभिवृद्धि होकर आत्मा के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
पापों का विनाशक होने के कारण जैनाचार्यों ने चिकित्सा को उभय लोक कल्याण का साधन निरूपित किया है। चििंत्सा कार्य भी एक प्रकार की साधना है जिसमें सफल होने पर रोगों को कष्ट से मुक्ति तथा चिकित्सक को यश और धन के साथ पुण्य फल की प्राप्ति होती है। श्री उग्रादित्याचार्य ने चिकित्सा कर्म की प्रशंसा करते हुए लिखा है –
चिकित्सतं पापविनाशनार्थ चिकित्सितं धर्मविवृद्धये च ।
चिकित्सितं चोभयलोक साधनं चिकित्सितान्नास्ति परं तपश्च ।।११।।
अर्थात् रोगियों की चिकित्सा पापों का विनाश करने के लिए तथा धर्म की अभिवृद्धि करने के लिए की जानी चाहिये। चिकित्सा के द्वारा उभय लोक (यह लोक और परलोक दोनों) का साधन होता है। अत: चिकित्सा से अधिक श्रेष्ठ कोई और तप नहीं है।
चिकित्सा का उद्देश्य मुख्यत: परहित की भावना होती है। इस प्रकार की भावना वैद्य के पूर्वोपार्जित असत्कर्मों का क्षय करने में वर्तमान में पुण्य का संचय एवं शुभ कर्मो का बन्ध करने में कारण होती है। किसी भी प्रकार के स्वार्थ भाव से प्रेरित होकर किया गया चिकित्सा कर्म आयुर्वेद के उच्चादर्शो से सर्वथा विपरीत है। चिकित्सा के उच्चतम आदर्शमय उद्देश्य के पीछे निम्न प्रकार का स्वार्थ भाव सर्वथा गर्हित बतलाया गया है –
तस्माच्चिकित्सा न च काममोहन्न चार्थलोभान्न च मित्ररागात् ।
न शत्रुरोषान्न च बंधुबुद्धया न चान्य इत्यन्यमनोविकारात् ।।
न चैव सत्कार निमित्ततो वा न चात्मन: सद्यशसे विधेयम् ।
कारुण्यबुद्धया परलोकहेतो कर्मक्षयार्थ विदधीत विद्वान् ।।१२।।
इसलिए वैद्य के लिए उचित है कि उसे काम और मोह के वशीभूत होकर अर्थ (धन) के लोभ से, मित्र के प्रति अनुराग भाव से, शत्रु के प्रति शेष भाव से, बंधु बुद्धि से तथा इसी प्रकार से अन्य मनोविकार भाव से प्रेरित होकर अथवा अपने सत्कार के निमित्त या अपने यश अर्जन के लिए चिकित्सा नहीं करना चाहिए। विद्वान वैद्य करूण्य बुद्धि (रोगियों के प्रति करूणा एवं दया भाव) से परलोक साधन के लिए तथा अपने पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय करने के लिए चिकित्सा कार्य करें।
भगवान जिनेन्द्र देव के शासन में ऐसी क्रिया विधि भी उपादेय मानी गई है जो कर्म क्षय करने में साधनभूत हो। यद्यपि अन्य शुभ कर्म भी आचरणीय बतलाए गए हैं, किन्तु उनसे मात्र शुभ कर्म का बन्ध होकर पुण्य का संचय होता है और उससे परलोक में सुख की प्राप्ति होती है किन्तु उससे पूर्व संचित कर्मों का क्षय नहीं होने से कर्मों के बन्धन से मुक्ति या मोक्ष रूप आत्म कल्याण नहीं होता है। चिकित्सा कार्य में यदि कारुण्य भाव निहित हो तो उससे कर्मक्षय होता है – ऐसा विद्वानों का अभिमत है, जैसा कि उपर्युक्त वन से सुस्पष्ट है।
कोई भी वैद्य अपने उच्चादर्श चिकित्साकार्य में नैपुण्य, शास्त्रीय ज्ञान की गंभीरता, मानवीय गुणों की संपन्नता, नि:स्वार्थ सेवा भाव आदि विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता है। यहर उसकी स्वयं की प्रतिष्ठा, उसके व्यवसाय की प्रतिष्ठा और समष्टि रूपेण देश की प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है, वैद्यत्व की सार्थकता भी वस्तुत: इसी में निहित है। जिस का वैद्यत्व व्यवसाय परोपकार की पवित्र भावना से प्रेरित न हो उसका वैद्य का उच्चादर्श रोगी को भीषण व्याधि से मुक्त कराकर उसे आरोग्य लाभ प्रदान करना है। महर्षि अग्निवेश ने भी अग्निवेश तन्त्र (चरक संहिता) में इसी तथ्य का प्रतिपादन निम्नवत् किया है –
दारूणै: कृष्यमाणानां गर्दर्वैस्वतक्षम् । छित्वा वैवस्वतान् पाशान् जीवितं य: प्रयक्ष्छति ।।
धर्मार्थदातासदृशस्तस्य नेहोपलभ्यते । न हि जीवितदानाद्धि दानमन्यद्विशिष्यते ।।१३।।
अर्थात् भयंकर रोगों के द्वारा यमपुरी की ओर बलात् ले जाते हुए प्राणियों के प्राण को जो वैद्य यमराज के पाशों को काटकर बचा लेता है उसके समान धर्म और अर्थ को देने वाला इस जगत् में कोई दूसरा नहीं पाया जाता है, क्योंकि जीवन दान से बढ़कर कोई दूसरा विशिष्ठ दान नहीं है अर्थात् सभी प्रकार के दानों में जीवनदान ही सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़ा दान माना गया है।
जैन धर्म में प्राणदान को अभयदान की संज्ञा दी गइ्र है। वैद्य के द्वारा चूंकि रोगी को प्राण दान या जीवन दान प्राप्त होता है, अत: संसार में धर्म और अर्थ को देने वाला सबसे बड़ा वैद्य ही है। जीवन दान में जहां परहित का भाव निहित है वहां वैद्य का उच्चतम आदर्श भी प्रतिबिम्बित होता है। दूसरों के प्राणों की रक्षा करना जैन धर्म का मूल है क्योंकि इसी में लोक कल्याण की भावना निहित हैं इस दृष्टि से जैनधर्म और आयुर्वेद की निकटता सुस्पष्ट है। परहित की भावना से प्रेरित होने के कारण इस आयुर्वेद शास्त्र में दूसरों के प्राणों की रक्षा को विशेष महत्व दिया गया है वहां इसे आजीविका के साधन के रूप में अपनाए जाने का पूर्ण निषेध किया गया है।
महर्षि चरक ने आयुर्वेद चिकित्सा के जो उच्चादर्श प्रतिपादित किए हैं वे उभय लोक हितकारी होने से निश्चय ही अनुकारणी हैं और जैन धर्म की दृष्टि से भी अनुशंसित है। उन आदर्शों में प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव प्रदशिैत करते हुए नि:स्वार्थ भाव से चिकित्सा करने की प्रेरणा दी गई है। इन्हीं भावों का प्रतिपादन करते हुए महर्षि अग्निवेश ने कहा है –
धर्मार्थ नार्थ कामार्थमायुर्वेदो महर्षिभि: । प्रकाशितो धर्म परैरिच्छद्भि: स्थानमक्षरम् ।।
नार्थार्थ नापि कामार्थमथ भूतदयां प्रति । वर्तते यश्चिकित्सायां स सर्वमतिर्वते ।।
कुर्वते ये तु वृत्यर्थं चिकित्सापण्य विक्रयम् । ते हित्वा कांचनं राशिं पांशुराशिमुपासते ।।१४।।
अर्थात् धर्म में तत्पर रहने वाले और अक्षय स्थान (ब्रह्मप्राप्ति) की इच्छा रखने वाले महर्षियों के द्वारा धर्म के लिए आयुर्वेद का प्रकाशन किया गया है। अत: चिकित्सा करते हुए जो वैद्य अर्थ (धन) और काम (अपने विशिष्ट मनोरथ) को ध्यान म ेंनहीं रखते हुए प्राणियों पर केवल दया भाव पूर्वक चिकित्सा में तत्पर होता है वह चिकित्सा के क्षेत्र में सर्व श्रेष्ठता को प्राप्त होता है, अर्थात् वह सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक कहलाता है। जो चिकित्सक मात्र अपनी आजीविका के लिए उस चिकित्सा को व्यवसाय बनाकर उसे बाजार में बेचते हैं वे स्वर्णराशि को छोड़कर धूलि राशि को एकत्र करते हैं।
आयुर्वेद शास्त्र में भूत दया (प्राणिमात्र के प्रति दया भाव) को सर्वोपरि माना गया है, उसी में संपूर्ण चिकित्सा की सफलता एवं सार्थकता निहित है। जैनधर्म में भी प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव को सर्वोपरि महत्व दिया गया है। अत: दोनों में उद्देश्य साम्य का भाव स्पष्टत: लक्षित होता है। ीाूतदया को आयुर्वेद में परमधर्म मानते हुए बतलाया गया है –
परो भूतदया धर्म इति मत्वा चिकित्सया । वर्तते य: स: सिद्धार्थ: सुखामत्यन्तमश्नुते ।।१५।।
अर्थात् प्राणियों पर दया करना उत्तम धर्म है – ऐसा मानकर जो चिकित्सा में प्रवृत्त होता है वह सफल मनोरथ अत्यन्त सुख को प्राप्त करता है। इसी प्रकार का भाव आयुर्वेद में अन्यत्र भी प्रतिपादित है जो दृष्टव्य है –
मैत्री कारूण्यमात्र्तेषु शक्ये प्रीतिरूपेणक्षणम् ।
प्रकृतिस्थेषु भूतेषु वैद्य वृत्तिश्तुर्विद्या ।।१६।।
अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति मित्रता का भाव रखना, रोगी व्यक्तियों में करूणा का भाव, साध्य रोगों में प्रेमपूर्वक चिकित्सा करने की भावना और असाध्य रोग या रोगी में उपेक्षा वृत्ति वैद्य में चार वृत्तियों होना चाहिए।
नि:स्वार्थ भाव से की गई चिकित्सा उस वैद्य को सभी उत्तम फलदायक होती है। उसकी फलभूति बतलाते हुए आचार्य श्री कहते हैं –
एवं कृत्वा सर्वफलप्रसिद्धिं स्वयं विदध्यादिह या चिकित्सा ।
सम्यक् कृता साधुकृषियथार्थ ददाति तत्पुरूष दैवयोगात् ।।१७।।
अर्थात् इस प्रकार उपर्युक्त उद्देश्य से की गई चिकित्सा उस वैद्य को सभी उत्तम फल देती है जिस प्रकार अच्छी प्रकार से की गई कृषि, कृषि बल, पोरूष एवं दैवयोग से स्वयं धन संचय कराती है, उसी प्रकार शुद्ध हृदय से की गई चिकित्सा भी वै़ को इह लोक पर परलोक में सभी सुख देती है।
जो वैद्य रोगी के प्रति कारूण्य बुद्धि और करूणाभाव से उसकी चिकित्सा करता है उसे चिकित्सा से वैद्य को क्या लाभ मिलता है ? इसका प्रतिपादन भी उग्रादित्याचार्य ने निम्न प्रकार से किया है –
क्वचिच्च धर्म क्वचिदर्थलाभं क्वचिच्च कामं क्वचिदेव मित्रम् ।
क्वचिद्यशस्सा कुरूते चिकित्सा क्वचित्सदभ्यास विशारदत्वम् ।।१८।।
अर्थात् उस चिकित्सा से वैद्य को कहीं धर्म लाभ होता है तो कहीं मनोवांछित पूर्ण होता है तो कहीं सन्मित्र की प्राप्ति होती है। वह चिकित्सा कहीं यशो लाभ कराती है तो कहीं चिकित्सा नैपुण्य या अभ्यास की दक्षता बढ़ाती है।
प्राणावाय शात्र की यह विशेषत है कि आरोग्य साधन की दृष्टि से वह प्रत्येक वर्ग के मनुष्य को निरोगी रखने का मार्ग बतलाता है। सामान्य मनुष्य तो मिथ्या आहारा विहार के कारण रोग ग्रस्त होते हैं, जैन साधु भी पूर्वोपार्जित कर्मोदय के प्रभाव से रोग ग्रस्त हुए बिना नहीं रहते। अत: उन्हें भी आरोग्य साधन का उपाय बतलाने में यह प्राणावाय शास्त्र पूर्ण समर्थ है। इस दृष्टि से श्री अग्रादित्याचार्य का निम्न वचन महत्वपूर्ण है –
आरोग्य शास्त्रमधिगम्य मुनिर्विपश्चित् स्वास्थ्यं स साधयतिसिद्धसुखैकहेतुम् ।
अन्यस्स्वदोषकृत रोगनिपीडितांगो बध्नाति कर्म निजदुष्परिणामभेदात् ।।१९।।
अर्थात् जो विद्वान् मुनि आरोग्य शास्त्र को भलीभांति जानकर उसी प्रकार आहार विहार रखते हुए अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर लेते है वह सिद्ध सुख के मार्ग को प्राप्त कर लेता है। जो स्वास्थ्य के रक्षाविधान को नहीं जानकर अपने स्वास्थ्य की रक्षा नहीं कर पाता है वहअनेक दोषों से उत्पन्न रोगों से पीड़ित होकर अनेक प्रकार के दुष्परिणामों से कर्मबंध कर लेता है।
‘शरीरं व्याधिमन्दिरम्’ के अनुसार देहधारी प्रत्येक मनुष्य को किसी न किसी रोग का भय तो बना ही रहता है। मनुष्य जब व्याधिग्रस्त हो जाता है तो वह रूग्ण शैया पर पड़ा रहता है और उसके समस्त कार्य बाधित हो जाते हैंं स्वस्थ शरीर के बिना न तो धार्मिक क्रियाएं हो सकती हैं और न ही कोई सामाजिक/सांसारिक कार्य। अत: प्रत्येक मनुष्य आरोग्य की अपेक्षा रखता है। आरोग्य के महत्व को प्राणावाय शास्त्र में भी स्वीकार किया है। श्री उग्रादित्याचार्य आरोग्य की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं –
नधमस्य कत्र्ता न चार्थस्य हत्र्ता न कामस्य भोक्ता न मोक्षस्य पाता ।
नरो बुद्धिमान् धीरसत्वोऽपि रोगी यतस्तद्विनाशाद् भवेन्नैव मत्र्य: ।।२०।।
अर्थात् मनुष्य बुद्धिमान और धीर सत्व (दृढ़ मनस्क) होने पर भी यदि रोगी हो तो वह न धर्म कर सकता है न धन कमा सकता है न मनोवांछित विषयों का भोग कर सकता है और न ही मोक्ष का साधन कर सकता है। अर्थात् रोगी मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी पुरुषार्थ चतुष्टय का साधन करने में असमर्थ रहता है। जो पुरुषार्थचतुष्टय का साधन नहीं कर पाता है वह मनुष्य भव में जन्म लेने पर भी मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं है, क्योंकि मनुष्य भव सफलता पुरुषार्थ चतुष्टय प्राप्त करने पर ही होता है।
जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त के अनुसार जो असत्कर्म (पाप कर्म) करता है वे असत् या अशुभ कर्म जब भी कभी अपना फल देने के लिए में आते हैं तो मनुष्य को दु:ख भोगना पड़ता है। उन्हीं अशुभ कर्मों में से ंकुछ ऐसे होते हैं जिनके उदय में आने पर विभिन्न रोग उत्पन्न होते हैं। जब तक उन कर्मों का परिपाक या क्षय नहीं हो जाता तब तक उस अशुभ कर्म के कारण उत्पन्न हुए रोग और तज्जनित कष्ट को उस रोगी (मनुष्य) को भोगना पड़ता है। यद्यपि रोगात्पादक उस अशुभकर्म का क्षय या उपशमन उसके प्रतिपक्ष भाव रूप धर्म से ही संभव है, तथापि निमित्त कारण रूप चिकित्सा ही समर्थ होती है। चिकित्सा कार्य में तत्पर वैद्य यदि नि:स्वार्थ औरा परोपकार के भाव से चिकित्सा कार्य करता है तो वह नित्य सम्पत् का अधिकारी होता है। वैद्य को प्राप्त होने वाली सम्पत् के विषय में कहा गया है कि ऐसा कोई देश नहीं हो पूर्णत: निरोगी हो इसलिए वैद्य को सदा सम्पत् प्राप्त होती है। अभिप्राय यह है कि निष्काम भाव से की गई चिकित्सा कभी निष्फल नहीं होती हैं कोई भी वैद्य अपने व्यवसाय के उच्चादर्श, चिकित्सा कार्य में निपुणता, शास्त्रीय ज्ञान की गंभीरता, मानवीय गुणों की संपन्नता एवं नि:स्वार्थ सेवा भाव के कारण ही समाज में विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्ािान प्राप्त करता हैं यही उसकी स्वयं की प्रतिष्ठा, उसके व्यवसाय की प्रतिष्ठा और समष्टि रूप से देश की प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है। वैद्यत्व की सार्थकता भी वस्तुत: इसी में निहित है।
१. कल्याणकारक, २/४ २. कल्याणकारक, २/३ ३. कल्याणकारक १/२४, ४. कल्याणकारण, चिकित्सा सूत्राधिकार, १९ ५. कल्याणकारण, चिकित्सा सूत्राधिकार, ९३
६. कल्याणकारण, चिकित्सा सूत्राधिकार, ९४ ७. कल्याणकारण, चिकित्सा सूत्राधिकार, ९५, ८. कल्याणकारण, चिकित्सा सूत्राधिकार, ९६ ९. कल्याणकारक, ७/२९
१०. कल्याणकारक, ७/३० ११. कल्याणकारक, ७/३२ १२. कल्याणकारक, ७/३३-३४, १३. चरक संहिता, चिकित्सास्थान, ३/४/६०-६१ १४. चरक संहिता, चिकित्सास्थान, ३/४/५७-५९, १५. चरक संहिता, चिकित्सास्थान, १/४/६५ १६. चरक संहिता, चिकित्सास्थान, ९/२६, १७. कल्याणकारण, चिकित्सासूत्राधिकार, ३५ पृ. ११३ १८. कल्याणकारण, चिकित्सासूत्राधिकार, ३६, १९. कल्याणकारक३ शास्त्र संग्रहाधिकार, ८१ २०. कल्याणकारक, शास्त्र सं. शुद्धि ९० पृ. ५६६
आचार्य राजकुमार जैन
राजीव काम्पलेक्स के पास, अहिंसा मार्ग,
इटारसी-४६११११ (म.प्र.)
अनेकान्त अप्रेल-जून २०१३ पृ. ५ से १३