कृतिकर्म विधिश्रीमते वर्धमानाय, नमो नमितविद्विषे।
यज्ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदायते।।१।।
जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करते समय तथा सामायिक आदि करते समय जो हाथ जोड़ना, पंचांग नमस्कार करना आदि क्रियाएँ की जाती हैं, उसका नाम ही कृतिकर्म है। इस कृतिकर्म को विधिवत् करने के लिए यहाँ शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
जिनेन्द्र भगवान के दर्शन के लिए जिनमंदिर के पास पहुँचकर आगे का श्लोक पढ़ते हुए मंदिर की तीन प्रदक्षिणा देवे। यदि मंदिर की प्रदक्षिणा का साधन नहीं है, तो बाहर ही पैर धोकर-जिनमंदिर में प्रवेश करते समय-
ॐ जय जय जय, नि:सही नि:सही नि:सही’ ऐसा बोलकर आगे का श्लोक पढ़ें-
निःसंगोहं जिनानां सदनमनुपमं त्रिःपरीत्येत्य भक्त्या।
स्थित्वा गत्वा निषद्योच्चरणपरिणतोऽन्तः शनैर्हस्तयुग्मम्।।
भाले संस्थाप्य बुद्ध्या मम दुरितहरं कीर्तये शक्रवंद्यं।
निंदादूरं सदाप्तं क्षयरहितममुं ज्ञानभानुं जिनेंद्रम्।।१।।
हे भगवन् ! मैं निःसंग हो, जिनगृह की प्रदक्षिणा करके।
भक्ती से प्रभु सन्मुख आकर, करकुड्मल शिर नत करके।।
निंदा रहित दुरितहर अक्षय, इंद्रवंद्य श्री आप्त जिनेश।
सदा करूँ संस्तवन मोहतमहर! तव ज्ञानभानु परमेश।।१।।
पुन: हाथ जोड़कर दर्शनस्तोत्र पढ़ें-
अद्याभवत् सफलता नयनद्वयस्य, देव! त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन।
अद्य त्रिलोकतिलक! प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणम्।।५।।
हे भगवन् ! मम नेत्र युगल शुचि, सफल हुए हैं आज अहो।
तव चरणांबुज का दर्शन कर, जन्म सफल है आज अहो।।
हे त्रैलोक्य तिलक जिन! तव, दर्शन से प्रतिभासित होता।
यह संसार वार्धि चुल्लुक, जलसम हो गया अहो ऐसा।।५।।
पुन: श्रावक है तो चावल के पुंज चढ़ाकर भगवान की तीन प्रदक्षिणा देकर ‘कृतिकर्म’ विधि से चैत्यभक्ति पढ़ें। साधु हैं तो प्रदक्षिणा देकर कृतिकर्म विधि करते हुए ‘लघु चैत्यभक्ति’ पढ़कर भगवान की स्तुति करें।
यह कृतिकर्म विधि षट्खण्डागम-धवला एवं जयधवला ग्रंथ में तथा मूलाचार, आचारसार, चारित्रसार आदि ग्रंथों में वर्णित है। इस विधि से भगवान का दर्शन व वंदन करने से असंख्यातों गुणा कर्मनिर्जरा होती है और महान पुण्य का संचय होता है। चैत्यभक्ति श्री गौतम स्वामी के द्वारा बनाई हुई है। इसमें से यहाँ मैंने उस भक्ति से सात श्लोक लिए हैं। इन सात श्लोकों में नव देवों की (नवदेवताओं की) वंदना हो जाती हैं। अर्थात् तीनों कालों के अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु की तथा जिनधर्म, जिनागम की व तीनों लोकों के समस्त कृत्रिम-अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की और जिनमंदिरों की वंदना हो जाती है। इसलिए इसे ‘लघु चैत्यभक्ति’ नाम दिया है। यदि पूरी चैत्यभक्ति पढ़ना है तो ‘मुनिचर्या’ आदि पुस्तकों से पढ़ें।
इस भक्तिपाठ के लिए जो विधि धवला, जयधवला आदि शास्त्रों में कही गई है। उसको ‘कृतिकर्म’ या ‘क्रियाकर्म’ कहते हैं। उसी कोे यहाँ पहले संक्षेप में बताते हैं-
एक बार के कायोत्सर्ग में-यह आगे लिखी विधि की जाती है उसी का नाम कृतिकर्म है। यह विधि देववन्दना, प्रतिक्रमण आदि सर्व क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारम्भ में की जाती है। जैसे देववन्दना में चैत्यभक्ति के प्रारम्भ में-
‘अथ पौर्वाह्निक-देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण
सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजा-वन्दनास्तवसमेतं
श्रीचैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’।
यह प्रतिज्ञा हुई, इसको बोलकर भूमि स्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करें । यह एक अवनति हुई । अनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके ’णमो अरिहंताणं…. चत्तारिमंगलं…अड्ढाइज्जदीव….इत्यादि पाठ बोलते हुए… दुच्चरियं वोस्सरामि’ तक पाठ बोले यह ‘सामायिक स्तव’ कहलाता है। पुन: तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। इस तरह ‘सामायिक दण्डक’ के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एकशिरोनति होने से छह आवर्त और दो शिरोनति हुईं। पुन: नौ बार णमोकार मन्त्र को सत्ताईस श्वासोच्छ्वास में जपकर भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करें । इस तरह प्रतिज्ञा के अनन्तर और कायोत्सर्ग के अनन्तर ऐसे दो बार अवनति हो गयीं।
बाद में तीन आवर्त, एक शिरोनति करके ‘थोस्सामि स्तव’ पढ़कर अन्त में पुन: तीन आवर्त, एक शिरोनति करें। इस तरह चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से छह आवर्त और दो शिरोनति हो गयीं । ये सामायिक स्तव सम्बन्धी छह आवर्त, दो शिरोनति तथा चतुर्विंशतिस्तव संबंधी छह आवर्त, दो शिरोनति मिलकर बारह आवर्त और चार शिरोनति हो गयीं।
इस तरह एक कायोत्सर्ग के करने में दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं।
जुड़ी हुई अंजुलि को दाहिनी तरफ से घुमाना सो आवर्त का लक्षण है।
इतनी क्रियारूप कृतिकर्म को करके ‘’जयतु भगवान्’’ इत्यादि चैत्यभक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए । ऐसे ही जो भी भक्ति जिस क्रिया में करना होती है तो यही विधि की जाती है।
वन्दना योग्य मुद्रा-मुद्रा के चार भेद हैं-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दना मुद्रा, मुक्ताशुक्तिमुद्रा। इन चारों मुद्राओं का लक्षण क्रम से कहते हैं।
जिनमुद्रा-दोनों पैरों में चार अंगुल प्रमाण अन्तर रखकर और दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर कायोत्सर्गरूप से खड़े होना सो जिनमुद्रा है “
योगमुद्रा-पद्मासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों आसनों की गोद में नाभि के समीप दोनों हाथों की हथेलियों को चित रखने को जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते हैं।
वन्दना मुद्रा-दोनों हाथों को मुकुलितकर और कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े होने से वन्दना मुद्रा होती है।
मुक्ताशुक्तिमुद्रा-दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए को मुक्ताशुक्तिमुद्रा कहते हैं।