संसार में समस्त प्राणियों के लिए धर्म मंगल स्वरूप है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। वह धर्म अहिंसा, संयम और तपरूप भी है, जो व्यक्ति अपने मन में उस धर्म को धारण करते हैं उसे देवता भी प्रणाम करते हैं। मंगल शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्यों ने कहा है- मं-मलम् गालयति इति मंगलम् अर्थात् मल-पापों का जो नाश करे वह मंगल है और दूसरी प्रकार से मंगं-सुखं लाति इति मंगलम् अर्थात् जो सुख की प्राप्ति करावे उसे मंगल कहते हैं।
सभी कार्यों के प्रारंभ में मंगलाचरण इसी उद्देश्य से किया जाता है ताकि बिना किसी विघ्न बाधा के उसे निर्विघ्न सम्पन्न किया जा सके एवं यह हेतु भी होता है कि मेरा शुभ कार्य मेरे और समस्त प्राणियों के लिए सुखकारी होवे। प्रत्येक पूजा-पाठ के प्रारंभ में भी आप मंगलाष्टक में ‘‘कुर्वन्तु मे मंगलम्’’ इत्यादि मंगलपाठ पढ़कर अपने और दूसरों के मंगल की कामना करते हैं। इसी प्रकार का मंगल धर्म में निहित होता है। भव्यात्माओं! धर्म एक मिश्री के टुकड़े की भाँति है।
जैसे मिश्री को आप चाहे स्वरूचि से खाएँ अथवा कोई जबरदस्ती खिला देवे किन्तु मुँह में जाने के बाद वह मीठी ही लगती है कभी कडुवी नहीं लगती उसी प्रकार से धर्म को चाहे स्वरुचि से पालें अथवा गुरु प्रेरणा से, वह तो सदैव अचिन्त्य फल को प्राप्त कराता है। वास्तव में तो धर्म आत्मा का स्वभाव ही है।
इत्यादि रूप से भिन्न-भिन्न परिभाषाओं में धर्म का प्रतिपादन किया गया है। वर्तमान की युवा पीढ़ी धर्म के नाम से दूर भागती है। मैं सोचती हूँ कि ऐसा क्यों है? बहुत चिन्तन करने के बाद यह बात समझ में आती है कि इस यांत्रिक युग में मानव भी बिल्कुल यंत्रवत्-मशीन के समान हो गया है।
चौबीस घंटों में उसने अपने धर्म/कर्तव्य की ओर चिंतन करने का प्रयास नहीं किया। हमारे पूर्वजों ने बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण कराया और उसे धर्म का साधन बताया किन्तु वहाँ भी जाकर दर्शन करने की लोगों को फुर्सत नहीं है। यहाँ हस्तिनापुर में दर्शनार्थ आने वाले कितने ही महानुभावों को जब मैं मंदिर जाने की या गुरुओं के पास जाने की प्रेरणा देती हूँ तब उनका यही कहना रहता है-माताजी! हमारे पास समय ही नहीं है इतना व्यस्त हूँ।
दूसरी बात आती है कि किसी प्रकार समय निकालकर गुरुओं के पास चले भी जाएँ तो वहाँ सिवाय त्याग की बात के और कुछ होता ही नहीं है। वे कहते हैं कि हम रात्रि भोजन त्याग, कन्दमूल त्याग आदि कैसे कर सकते हैं? और इसी डर से वे धर्म कर्म से दूर रहते हैं। अरे भाई! मैं सोचती हूँ कि धर्म की गाड़ी तो सदैव धक्के से ही चलती है गुरुओं की प्रेरणा भले ही आज कटु प्रतीत होती है किन्तु ये ही हाथ पकड़कर मोक्षमार्ग में लगाने वाले सच्चे गुरु होते हैं।
जैसे दुकानदार जब अपने ग्राहक को कई प्रकार की वस्तुएँ दिखाता है तब ग्राहक किसी न किसी वस्तु को पसंद करके खरीद ही लेता है, उसी प्रकार धर्म भी एक व्यापार है और उसका प्रतिपादन करने वाले निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका दुकानदार हैं। दर्शनार्थ आने वाले भव्यात्मा ग्राहकों को वे भिन्न-भिन्न रूप से धर्म के स्वरूप को बताते हैं। अनेक बातों में से यदि एक बात भी उसके गले उतर गई तो समझो कार्य सफल ही हो गया।
मैं प्रतिदिन यह अनुभव करती हूँ कि इस पंचमकाल में तो सबसे अधिक अहिंसा धर्म के बारे में लोगों को बताने की आवश्यकता है क्योंकि आज मानव ही मानव का संहारक हो गया है। हिन्दुस्तान में चारों ओर धर्म और जाति के नाम पर हिंसा का तांडव नृत्य चल रहा है। आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है-
‘‘अहिंसाभूतानां जगति विदितं ब्रह्मपरमं’’
अर्थात् संसार में प्राणिमात्र की अहिंसा परमब्रह्म स्वरूप है और उसका ज्ञान कराने वाली है। इसका मतलब यह नहीं कि किसी प्रकार का धर्म संकट आने पर भी हाथ पर हाथ रखकर बैठ जावें। अहिंसा धर्म की अत्यन्त सूक्ष्म परिभाषा करते हुए हिंसा के ४ भेद बताये गये हैं-संकल्पी हिंसा, आरंभी हिंसा, उद्योगिनी हिंसा और विरोधिनी हिंसा। इन चारों हिंसाओं में सम्यग्दृष्टी श्रावक तो संकल्पी हिंसा को छोड़कर बाकी तीन हिंसा से बच नहीं सकता है।
देखो! क्षायिक सम्यग्दृष्टि राम घमासान युद्ध करने के बावजूद भी अहिंसक ही रहे। जैन रामायण पद्मपुराण में पढ़ने से समझ में आता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र ने मात्र एक अपनी पत्नी सीता के लिए रावण से युद्ध नहीं किया बल्कि समस्त नारी जाति के ऊपर किये जाने वाले अत्याचारों का समूल चूल विध्वंस कराने हेतु ही युद्ध का सहारा लिया था।
सभी जानते हैं कि युद्ध बिना हिंसा के नहीं होता और उस समय भी राम-रावण दोनों ही सेनाओं में न जाने कितनी जनता मारी गई किन्तु अंत में धर्म की विजय हुई। रावण की अक्षौहिणी सेना होने के बावजूद भी उसके पाप ने उसे धराशायी कर दिया। उस रावण का नाम सदा-सदा के लिए इतना बदनाम हो गया कि आज कोई भी माता-पिता अपने पुत्र का ‘रावण’ यह नाम रखना पसंद नहीं करते हैं और राम का नाम बड़े आदर्श से लिया जाता है क्योंकि उन्होंने धर्मयुद्ध करके आसुरी प्रवृत्ति का विध्वंस किया था।
इसी प्रकार से धर्म और धर्मायतनों पर जब भी कोई विपत्ति आवे आप अपने कर्तव्य का पालन करते हुए सदैव तन, मन, धन से उनकी रक्षा के लिए कटिबद्ध रहें। इतिहास जहाँ अकलंक देव जैसे जैनधर्म की ध्वजा को दिगदिगन्त में फहराने वाले महान आचार्य का नाम स्मरण कराता है वहीं उनसे पहले अपने मस्तक को बलिवेदी पर चढ़ाने वाले निकलंक को कभी विस्मृत नहीं कर सकता।
इसी हस्तिनापुर की भूमि पर आप देखें, पूर्व इतिहास का अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों के ऊपर जब यहाँ बलि ने अग्निकांड का भयंकर उपसर्ग किया था उस समय विष्णुकुमार महामुनिराज ने अपना मुनिवेष छोड़कर भी उस उपसर्ग का निवारण किया था।
जैनधर्म में तो कर्म सिद्धांत की प्रमुखता है। कर्म के वश होकर यह जीव प्रतिक्षण सुख-दुख का अनुभव करता है। अहिंसा के विषय में तो जितना सूक्ष्म विवेचन जैन सिद्धांत में पाया जाता है उतना कहीं भी नहीं है। आचार्य श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में हिंसा का लक्षण बतलाया है-
‘‘प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा’’
अर्थात् प्रमाद के योग से किसी के प्राणों का घात करना हिंसा है। इस परिभाषा के अनुसार कोई जीव भले ही हिंसा नहीं कर रहा है परन्तु उसका चित्त प्रमाद और कषाय से युक्त है तो वह हिंसक ही कहा जायेगा तथा प्रमाद कषाय रहित व्यक्ति यदि अपनी क्रियाओं में सावधान है और अंजान में उससे किसी प्रकार की हिंसा भी हो जाती है तो भी वह अहिंसक माना जाता है क्योंकि प्रधानता तो भावों की है।
कई बार ऐसा देखा जाता है कि दो-चार लोग एक पास बैठते हैं और अकारण ही चर्चा छिड़ जाती है अमुक व्यक्ति का अहित हो जावे या वह मर जावे तो अच्छा है इत्यादि पर के अशुभ चिंतन के विचारों से उसका अहित होवे या न होवे किन्तु आत्महिंसा तो हो ही जाती है। एक व्याघ्र और शूकर के ही भावों को देखिए- एक बार दो दिगम्बर मुनिराज एक गुफा में रह रहे थे उस गुफा में एक शूकर भी रहता था। मुनिराज के द्वारा उपदेश प्राप्त कर वह एक भक्त की भाँति वहीं पर गुरु रक्षा के भाव से बैठा रहता था। एक दिन मनुष्य की गंध पाकर एक व्याघ्र मुनियों को खाने के लिए झपटा हुआ आया।
सुअर उसे दूर से ही देखकर गुफा के द्वार पर आकर डट गया ताकि वह भीतर बैठे हुए मुनियों की रक्षा कर सके। जैसे ही व्याघ्र ने आक्रमण किया बस सूअर के साथ उसका युद्ध छिड़ गया। दोनों ही लड़ रहे थे परन्तु दोनों के भावों में बड़ा अंतर था। एक के भाव थे मुनिरक्षा करने के और दूसरे के भाव हिंसा के थे। लड़ते-लड़ते दोनों मर गये, मुनिरक्षा के भाव से सुअर तो पहले स्वर्ग में देव हो गया और व्याघ्र मुनि हिंसा के भाव से नरक चला गया।
पशु होकर भी एक सुअर ने कर्तव्य का पालन किया और अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये क्योंकि वह अहिंसक बन गया था। किसी भी जाति या धर्म में कभी हिंसा को श्रेयस्कर नहीं माना है। अहिंसा के बल पर ही हमारे हिन्दुस्तान ने आजादी प्राप्त की है। आप सभी जानते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी अहिंसावादी थे।
यदि सूक्ष्मता से विचार करें तो प्रतीत होता है कि हिंसा और अहिंसारूप भावों की श्रंखला परस्पर में जन्म-जन्मान्तर तक चला करती है। धर्म को पालन करने में जातिवाद का कोई बंधन नहीं होता यदि एक पशु जैसे पामर प्राणी ने भी उसे जीवन में धारण कर लिया तो महान बन गया और यदि उच्च कुल में जन्म लेकर किसी ने हिंसा आदि अनार्य कृतियों को जीवन में उतारा तो उसकी कुलीनता व्यर्थ है।
श्वापि देवोऽपि देव: श्वा जायते धर्मकिल्विषात्।
कापि नाम भवेदन्या संपद्धर्माच्छरीरिणाम्।।
अर्थात् धर्म के प्रसाद से कुत्ता भी मरकर देव बन जाता है और किल्विष-पाप के कारण देवता भी मरकर कुत्ते जैसी निंद्य पर्याय को प्राप्त कर लेते हैं। आपको मालूम है जैन किसे कहते हैं?
‘‘कर्मारातीन् जयति इति जिन:’’
सबसे पहले तो जिन की परिभाषा बताते हुए आचार्यों ने कहा है कि कर्मरूपी शत्रुओं को जिन्होंने जीत लिया है वे जिन कहलाते हैं और फिर
‘‘जिनो देवता यस्य स जैन:’’
अर्थात् वे जिनेन्द्र भगवान को देवता मानने वाले जैन कहे जाते हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार जैन धर्म किसी व्यक्ति विशेष का न होकर ‘‘सार्वभौम’’ धर्म बन जाता है इसीलिए इसे विश्वधर्म भी कहा जाता है और प्राणिमात्र के लिए यह हितकारी होता है।
कहा भी है-धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण।
धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यंच समान।।
सांसारिक सुख की सिद्धि और परमार्थ की सिद्धि सभी कुछ धर्म से ही प्राप्त होती है।
हिंसा के चारों भेदों का लक्षण जानना भी आवश्यक है।
संकल्पी हिंसा-अभिप्रायपूर्वक किसी भी छोटे या बड़े जीव को मारना संकल्पी हिंसा है। आरंभी हिंसा-चूल्हा जलाना, चक्की पीसना, पानी छानना आदि आरंभ कार्य करके भोजन बनाना, खेती आदि करना आरंभी हिंसा है। उद्योगिनी हिंसा-धन कमाने के लिए बड़े-बड़े व्यापार करना, कारखाने खोलना उसमें होने वाली हिंसा उद्योगिनी हिंसा है।
विरोधिनी हिंसा-धर्म, धर्मायतन और धर्मात्माओं की रक्षा के लिए हिंसा करना विरोधिनी हिंसा है। जैसे कि श्री रामचन्द्र ने की थी। इन चारों हिंसाओं में से गृहस्थाश्रम में रहने वाले गृहस्थ केवल संकल्पी हिंसाओं का ही त्याग कर सकते हैं क्योंकि भोजन आदि करने हेतु आरंभ करने से उस योग्य हिंसा तो होती ही है फिर भी सावधानीपूर्वक कार्य करना चाहिए। इसी प्रकार धन के बिना गृहस्थी नहीं चल सकती इसलिए व्यापार करना ही पड़ता है उसकी हिंसा भी गृहस्थ के लिए क्षम्य है।
किन्तु चमड़ा, शराब, हड्डी की खाद, भट्टे आदि हीन कार्य सद्गृहस्थ को नहीं करना चाहिए। इस प्रकार श्री गौतम स्वामी द्वारा कथित गाथा के द्वारा मैंने आपको धर्म की परिभाषा सुनाई है इसमें अहिंसा, संयम और तप को भी धर्म कहा है। गृहस्थ के योग्य अहिंसा का वर्णन मैंने संक्षेप में आपको बताया है ।