जैन समाज में भक्तामर स्तोत्र सबसे अधिक प्रसिद्धि को प्राप्त है। इसकी महिमा के विषय में सभी लोग जानते हैं कि श्री मानतुंगमहामुनि ने इस स्तोत्र की रचना की है, एक-एक काव्य के प्रभाव से एक-एक ऐसे अड़तालीस ताले टूट गये हैं और अतिशय चमत्कार हुआ है। यह श्री आदिनाथ भगवान का स्तोत्र है, प्रारंभ में ‘‘भक्तामरप्रणत’ आदि श्लोक में ‘‘भक्तामर’ पद के आने से इसका ‘‘भक्तामर स्तोत्र’’ नाम प्रसिद्ध हो गया है।
इसके ४८ व्रत होते हैं। एक-एक काव्य को आधार बनाकर ४८ व्रत किये जाते हैं। व्रत के दिन भक्तामर पूजा या ऋषभदेव की प्रतिमा का पंचामृताभिषेक कर श्री ऋषभदेव की पूजा करना चाहिए। पुन: एक-एक व्रत के दिनों में क्रम से एक-एक मंत्र का जाप्य करना चाहिए। मंत्र निम्न प्रकार हैं।
कोई-कोई भक्तामर स्तोत्र में छपे ऋद्धि-मंत्र का जाप्य करते हैं। वैसे भक्तामर के एक-एक काव्य का भी १०८ बार जाप्य कर सकते हैं। व्रत विधि पूर्णकर उद्यापन में श्री ऋषभदेव प्रतिमा विराजमान कराना, भक्तामर स्तोत्र छपाकर वितरित करना चाहिए। यथाशक्ति दान आदि करके भक्तामर विधान करके व्रत पूर्ण करना चाहिए।
समुच्चय मंत्र—
१. ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवृषभनाथतीर्थंकराय नम:। अथवा २. ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्रीवृषभनाथ तीर्थंकराय नम:।