अष्टान्हिकाव्रतं कार्तिकफाल्गुनाषाढमासेषु अष्टमीमारभ्य पूर्णिमान्तं भवतीति।
वृद्धावधिकतया भवत्येव, मध्यतिथिह्रासे सप्तमीतो व्रतं कार्यं भवतीति;
तद्यथा सप्तम्यामुपवासोऽष्टम्यां पारणा नवम्यां काञ्जिकं दशम्यामवमौदार्यमित्येको मार्ग:
सुगम: सूचित: जघन्यापेक्षया तदादिदिनमारभ्य।
पूर्णिमान्तं कार्य: षष्ठोपवास: पद्मदेववाक्यसमादरै: भव्यपुण्डरीक़ै: अन्यथाक्रियमाणे सति व्रतविधिर्नश्येत्।
एवं सावधिकानि व्रतानि समाप्तानि।
अष्टान्हिका व्रत कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ मासों के शुक्ल पक्षों में अष्टमी से पूर्णिमा तक किया जाता है। तिथि-वृद्धि हो जाने पर एक दिन अधिक करना पड़ता है। व्रत के दिनों के मध्य में तिथि ह्रास होने पर एक दिन पहले से व्रत करना होता है। जैसे मध्य में तिथि ह्रास होने से सप्तमी को उपवास, अष्टमी को पारणा, नवमी को कांजी-छाछ, दशमी को ऊनोदर, एकादशी को उपवास, द्वादशी को पारणा, त्रयोदशी को नीरस, चतुर्दशी को उपवास एवं शक्ति होने पर पूर्णिमा को उपवास, शक्ति के अभाव में ऊनोदर तथा प्रतिपदा को पारणा करनी चाहिए। यह सरल और जघन्य विधि अष्टान्हिका व्रत की है। व्रत की उत्कृष्ट विधि यह है कि अष्टमी से षष्ठोपवास अर्थात् अष्टमी, नवमी का उपवास, दशमी को पारणा, एकादशी और द्वादशी को उपवास, त्रयोदशी को पारणा एवं चतुर्दशी और पूर्णिमा को उपवास और प्रतिपदा को पारणा करनी चाहिए । श्री पद्मप्रभदेव के वचनों का आदर करने वाले भव्य जीवों को उक्त विधि से व्रत करना चाहिए। इस प्रकार बताई हुई विधि से जो व्रत नहीं करते हैं, उनकी व्रतविधि दूषित हो जाती है और व्रत का फल नहीं मिलता ।
कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन यह व्रत किया जाता है। सप्तमी के दिन व्रत की धारणा करनी होती है। प्रथम ही श्री जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक, पूजन सम्पन्न किया जाता है, तत्पश्चात् गुरु के पास, यदि गुरु न हों तो जिनबिम्ब के सम्मुख निम्न संकल्प को पढ़कर व्रत ग्रहण किया जाता है। व्रत ग्रहण करने का संकल्प- ॐ अद्य भगवतो महापुरुषस्य ब्रह्मणो मते मासानां मासोत्तमे मासे आषाढमासे शुक्लपक्षे सप्तम्यां तिथौ…..वासरे……….जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे…..प्रदेशे…….नगरे एतत् अवसर्पिणीकालावसान-चतुर्दशप्राभृतमानिमानितसकललोकव्यवहारे श्रीगौतमस्वामिश्रेणिकमहामण्डलेश्वरसमाचरित सन्मार्गावशेषे……वीरनिर्वाणसंवत्सरे अष्टमहाप्रातिहार्यादिशोभितश्रीमदर्हत्परमेश्वरप्रतिमासन्निधौ अहम् अष्टान्हिकाव्रतस्य संकल्पं करिष्ये। अस्य व्रतस्य समाप्तिपर्यन्तं मे सावद्यत्याग: गृहस्थाश्रमजन्यारम्भपरिग्रहादीनामपि त्याग:। सप्तमी तिथि से प्रतिपदा तक ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना आवश्यक होता है, भूमि पर शयन, संचित पदार्थों का त्याग, अष्टमी को उपवास, रात्रि को जागरण आदि क्रियाएँ की जाती हैं। अष्टमी तिथि को दिन में नंदीश्वर द्वीप का मण्डल माँडकर अष्टद्रव्यों से पूजा की जाती है।
पूजा-पाठ के अनन्तर नंदीश्वर व्रत की कथा पढ़नी चाहिए।
‘ॐ ह्रीं नन्दीश्वरसंज्ञाय नम:’ इस मंत्र का १०८ बार जाप करना चाहिए।
नवमी को ‘ॐ ह्रीं अष्टमहविभूतिसंज्ञाय नम:’ इस महामंत्र का जाप,
दशमी को ‘ॐ ह्रीं त्रिलोकसारसंज्ञाय नम:’ मंत्र का जाप,
एकादशी को ‘ॐ ह्रीं चतुर्मुखसंज्ञाय नम:’ मंत्र का जाप,
द्वादशी को ‘ॐ ह्रीं पञ्चमहालक्षणसंज्ञाय नम:’ मंत्र का जाप,
त्रयोदशी को ‘ॐ ह्रीं स्वर्गसोपानसंज्ञाय नम:’ मंत्र का जाप,
चतुर्दशी को ‘ॐ ह्रीं सिद्धचक्राय नम:’ मंत्र का जाप एवं
पूर्णमासी को ‘ॐ ह्रीं इन्द्रध्वजसंज्ञाय नम:’ मंत्र का जाप करना चाहिए।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपजिनालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो नम:।
व्रत की धारणा और समाप्ति के दिन णमोकार मंत्र का जाप करना चाहिए। व्रत समाप्ति के दिन निम्न संकल्प पढ़कर सुपाड़ी-पैसा या नारियल-पैसा चढ़ाकर भगवान को नमस्कार कर घर आना चाहिए- ‘ॐ आद्यानाम् आद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे शुभे श्रावणमासे कृष्णपक्षे अद्य प्रतिपदायां श्रीमदर्हत्प्रतिमासन्निधौ पूर्वं यद्व्रतं गृहीतं तस्य परिसमाप्तिं करिष्ये-अहम्। प्रमादाज्ञानवशात् व्रते जायमानदोषा: शान्तिमुपयान्ति-ॐ ह्रीं क्ष्वीं स्वाहा। श्रीमज्जिनेन्द्रचरणेषु-आनन्दभक्ति: सदास्तु, समाधिमरणं भवतु, पापविनाशनं भवतु-ॐ ह्रीं असि आ उ सा नम:। सर्वशांतिर्भवतु स्वाहा।