सुप्रभा – बहन प्रभावती! आज मैंने सुना है कि मुनि-निन्दा से कुष्ठ रोग हो जाता है, क्या यह सच है?
प्रभावती – हाँ बहन सुप्रभा! इस बारे में एक घटना बड़ी ही रोमांचकारी है, सुनो! मैं तुम्हें सुनाती हूँ।
किसी समय अयोध्या नगरी में एक ‘सुरत’ नाम के राजा राज्य करते थे। इनकी पाँच सौ स्त्रियों में एक महादेवी रानी को पट्टरानी पद प्राप्त था। पट्टरानी के राजभवन में एक दिन राजा बैठे हुए थे। उस समय उन्होंने कर्मचारियों से कहा कि यदि कोई साधु आ जावे तो मुझे सूचना दे देना।
पुण्योदय से एक महीने का उपवास करके एक दमदत्त मुनिराज आहार के लिए उधर आ गये। द्वारपाल ने तत्क्षण ही राजा को सूचना दे दी। राजा उस समय अपनी प्राणप्रिया के मुखकमल पर तिलक रचना कर रहे थे। वे रानी से बोले-हे प्रिये! जब तक कि तुम्हारा तिलक न सूखे, मैं अभी मुनिराज को आहार देकर बहुत जल्दी आ जाता हूँ। यह कहकर राजा चले गये। राजा ने उधर जाकर मुनिराज का पड़गाहन कर नवधा भक्ति से आहार दान दिया और महान पुण्य का संचय कर लिया।
इधर महारानी अपने विषय सुख में विघ्न डालने वाले मुनिराज का आगमन सुनकर बहुत ही दु:खी हुई और अपना भला-बुरा न सोचकर मुनियों की निन्दा करना शुरू कर दिया। वह मन-ही-मन मुनियों को गालियाँ दे रही थी। बस! उसके पाप का फल तत्काल ही फलित हो गया और उसी समय उसके सारे शरीर में कुष्ठ फूट गया। सारा शरीर काला पड़ गया और भयंकर दुर्गन्ध निकलने लग गई।
सुप्रभा– क्या बहन! मुनियों की निन्दा से इतना भयंकर पापकर्म बँध जाता है?
प्रभावती – हाँ सखी! मुनि निन्दा से तो कुष्ठ रोग का होना इतना बड़ा पाप का फल तो है ही, बल्कि अनेकों जीवों को तो नरकों में असंख्य वर्षों तक दु:ख उठाना पड़ता है। आचार्यों का कहना है कि हालाहल विष खा लेने से तो उस ही भव में कष्ट होता है, किन्तु मुनि निन्दा से जो पाप होता है, वह भव-भव में दु:ख देने वाला है क्योंकि आत्महित में प्रवृत्त महामुनियों की निन्दा करना कदापि अच्छा नहीं है।
सुप्रभा – पुन: क्या हुआ?
प्रभावती – पुन: राजा मुनिराज को आहार देकर वहाँ आ गये, आते ही उन्होंने रानी का ऐसा दुर्गन्धित शरीर देखकर बहुत ही आश्चर्य किया और कारण ज्ञात कर वे तत्काल ही संसार-शरीर और विषयों से विरक्त हो गये। उसी समय राज्य का त्याग कर दिगम्बर मुनि हो गये।
सुप्रभा– पुन: क्या हुआ?
प्रभावती – वह रानी पाप के फल का कटु अनुभव करके मरी और संसार-वन में बहुत काल तक घूमती रही।
इसलिए बहन! सदैव गुरुओं की भक्ति करना चाहिये। गुरू अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं, इसलिए दीपक हैं। सबका हित करते हैं, इसलिए बन्धु हैं और संसार-समुद्र से पार करने वाले होने से सच्चे कर्णधार हैं। अत: तन, मन, धन से ऐसे सच्चे गुरुओं की सेवा सुश्रूषा, आराधना, भक्ति आदि करते रहना चाहिये।