आर्यखण्ड के सोरठ देश में तिलकपुर नाम का एक विशाल नगर था। वहाँ महीपाल नाम का राजा और विचक्षणा नामक रानी थी। उसी नगर में भद्रशाल नाम का व्यापारी रहता था उसकी नन्दा नाम की स्त्री से विशाला नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। यद्यपि वह कन्या अत्यन्त रूपवान थी, तथापि इसके मुख पर सफेद कोढ़ हो जाने से सारी सुन्दरता नष्ट हो गई थी। इसलिए उसके माता-पिता तथा वह कन्या स्वयं भी रोया करती थी, परन्तु कर्मों से क्या वश है? निदान माता के उपदेश से पुत्री धर्मध्यान में रत रहने लगी, जिससे कुछ दु:ख कम हुआ।
एक दिन एक वैद्य आया और उसने सिद्धचक्र की आराधना करके औषधि दी जिससे उस कन्या का रोग दूर हो गया। तब उस भद्रशाल ने अपनी कन्या उसी वैद्य को ब्याह दी। पश्चात् वह पिंगल वैद्य इस विशाला नाम की वणिक पुत्री के साथ कितने ही दिन पीछे देशाटन करता हुआ, चित्तौड़गढ़ की ओर आया, वहाँ पर भीलों ने उसे मारकर सब धन लूट लिया। निदान विशाला वहाँ से पति और द्रव्य रहित हुई नगर के जिनालय में गई और जिनराज के दर्शन करके वहाँ तिष्ठे हुए श्री गुरु को नमस्कार करके बोली-प्रभु! मैं अनाथनी हूँ, मेरा सर्वस्व खो गया, पति भी मारा गया और द्रव्य भी लूट गया। अब मुझे कुछ भी नहीं सूझता है कि क्या करूँ, कृपाकर कुछ कल्याण का मार्ग बताइये।
तब मुनिराज ने कहा-बेटी सुनो, यह जीव सदैव अपने ही पूर्वकृत कर्मों का शुभाशुभ फल भोगता है। तू प्रथम जन्म में इसी नगर में वेश्या थी। तू रूपवान तो थी ही, परन्तु गायन विद्या में भी निपुण थी।
एक समय सोमदत्त नाम के मुनिराज यहाँ आये। यह सुनकर नगर के लोग वंदना को गये और बहुत उत्साह से उत्सव किया सो जैसे सूर्य का प्रकाश उल्लू को अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार कुछ मिथ्यात्वी विधर्मी लोगों ने मुनि से वाद-विवाद किया और अन्त में हारकर वेश्या (तुझे ही) को मुनि के पास ठगने के लिए (भ्रष्ट करने को) भेजा तो तूने पूर्ण स्त्री चरित्र फेलाया, सब प्रकार रिझाया, शरीर का आलिंगन भी किया, परन्तु जैसे सूर्य पर धूल फेंकने से सूर्य का कुछ बिगड़ता ही नहीं किन्तु फेंकने वाले ही का उल्टा बिगाड़ होता है उसी प्रकार मुनिराज तो अचल मेरुवत् स्थिर रहे और तू हार मानकर लौट आई।
इससे इन मिथ्यात्वी अधर्मियों को बड़ा दु:ख हुआ और तुझे भी बहुत पश्चाताप हुआ। अन्त में तुझे कोढ़ हो गया सो दु:खित अवस्था में मरकर तू चौथे नर्व गई। वहाँ से आकर तू यहाँ वणिक के घर पुत्री हुई है। यहाँ भी तुझे सफेद कोढ़ हुआ था। सो पिंगल वैद्य ने तुझे अच्छा किया और उसी से तेरा पाणिग्रहण भी हुआ था|
पश्चात् पूर्व पाप के उदय से चोरों ने उसे मार डाला और तू उससे बचकर यहाँ तक आई है। अब यदि तू कुछ धर्माचरण धारण करेगी, तो शीघ्र ही इस पाप से छूटेगी इसलिए सबसे प्रथम तू सम्यग्दर्शन को स्वीकार कर अर्थात् श्री अर्हन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु और दयामयी जिन भगवान के कहे हुए धर्मशास्त्र के सिवाय अन्य मिथ्या देव, गुरु और धर्म को छोड़ जीवादिक सात तत्त्वों का श्रद्धान कर और सम्यग्दर्शन के नि:शंकित आदि आठ अंगों का पालन करके उसके २५ मल दोषों का त्याग कर, तब निर्मल सम्यग्दर्शन सधेगा। इस प्रकार सम्यक्त्वपूर्वक श्रावक के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण आदि १२ व्रत को पालन करते हुए आकाशपंचमी व्रत को भी पालन कर।
यह व्रत भादों सुदी ५ को किया जाता है। इस दिन चार प्रकार का आहार त्यागकर उपवास धारण करे और अष्ट प्रकार के द्रव्य से श्रीजिनालय में जाकर भगवान का अभिषेकपूर्वक पूजन करे। पश्चात् रात्रि के समय खुले मैदान में या छत (अगासी) पर बैठकर भजनपूर्वक जागरण करे तथा वहाँ भी सिंहासन रखकर श्री चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमा स्थापन करे और प्रत्येक प्रहर में अभिषेक करके पूजन करे और यदि उस समय उस स्थान पर वर्षा आदि के कारण कितने ही उपसर्ग आवें तो सब सहन करे परन्तु स्थान को न छोड़े।
तीनों समय महामंत्र नवकार के १०८ जाप करे। इस प्रकार ५ वर्ष तक करे। जब व्रत पूरा हो जावे तो उत्साह सहित उद्यापन करे।
परम्परा में भगवान सुमतिनाथ की पूजा एवं जाप्य करते हैं- ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय नम:।
छत्र, चमर, सिंहासन, तोरण, पूजन के बर्तन आदि प्रत्येक ५ (पांच) नग मंदिर में भेंट करे और कम से कम पांच शास्त्र पधरावे। चार प्रकार के संघ को चारों प्रकार का दान देवे और भी विशेष प्रभावना करे। इस प्रकार विशाला कन्या ने श्रद्धापूर्वक बारह व्रत स्वीकार किये और इस आकाशपंचमी व्रत को भी विधि सहित पालन किया। पश्चात् समाधिमरण कर वह चौथे स्वर्ग में मणिभद्र नाम का देव हुआ।
वहाँ उसने देवाँगनाओं सहित क्रीड़ा करते हुए अनेक तीर्थों के दर्शन, पूजा, वंदना तथा समवसरण आदि की वंदना की। इस प्रकार सात सागर की आयु पूर्ण कर उज्जैन नगर में प्रियंगुसुन्दर नामक राजा के यहाँ तारामती नामक रानी से सदानंद नामक पुत्र हुआ, सो कितने काल राज्योचित सुख भोगे।
पश्चात् एक दिन नगर के बाहर वन में मुनिराज के दर्शन कर और उनके मुख से संसार से पार उतारने वाला धर्म का उपदेश सुनकर उसने वैराग्य को प्राप्त होकर जिनदीक्षा अंगीकार की और शुक्लध्यान के बल से केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षपद प्राप्त किया।
इस प्रकार विशाला नाम की वणिक कन्या ने व्रत के प्रभाव से स्वर्ग और मोक्षपद प्राप्त किया, तो यदि श्रद्धा सहित अन्य जीव यह व्रत पालेंगे तो क्यों न उत्तम सुखों को प्राप्त होवेंगे? अवश्य होंगे।