भव्यात्माओं! आत्मिक सुख की प्राप्ति संसार के प्रपंचों में उलझे रहने से नहीं हो सकती प्रत्युत् प्रपंचों के त्याग से ही होगी और मन का वशीकरण भी तभी होगा जब उसे कोई अपूर्व सामग्री मिलेगी। वह अपूर्व सामग्री ज्ञानामृत ही है और कुछ नहीं है, मन उसमें तृप्त होकर आपको तृप्त कर देगा। आचार्यों ने कहा है कि ‘‘हे जीव! यदि तू परमाणु मात्र भी दु:ख सहन करने को समर्थ नहीं है तो फिर चारों गतियों के दु:खों के लिए कारणभूत ऐसे कर्मों का संचय क्यों कर रहा है?’’
यदि तुझे दु:ख इष्ट नहीं है फिर भी आश्चर्य है कि उन्हीं के साधनों में लगा हुआ है। क्या कहीं कोदों का धान्य बोने से चावल उत्पन्न हो सकता है? अहो! यह सारा जगत् मिथ्यात्व, विषय और कषायों से उत्पन्न हुए आर्तध्यान और रौद्रध्यानरूप धंधे में-प्रपंच में उलझा हुआ तमाम कर्मों को बांध रहा है किन्तु मोक्ष के लिए कारणभूत ऐसी अपनी आत्मा का एक क्षण के लिए भी चिंतवन नहीं करता है। जब तक इसे अपनी आत्मा का ज्ञान नहीं है तभी तक यह पुत्र, स्त्री, धन, मकान आदि पर वस्तुओं में मोहित हो रहा है।
पुन: इस मोह के निमित्त से दु:ख सहन करता हुआ चौरासी लाख योनियों में भटक रहा है। इसलिए आचार्य ने कहा है कि हे जीव! घर, परिजन, शरीर और इष्ट बंधु वर्गों को तू अपना मत समझ, क्योंकि ये कर्मों के आश्रित हैं और कृत्रिम हैं ऐसा योगियों ने आगम में देखा है अथवा कहा है। वास्तव में तू सब कुछ अनुकूल सामग्री चाहता है किन्तु कर्माधीन होने से ये सब अनुकूल ही प्राप्त हों, ऐसा नहीं है।
क्या मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र राजतिलक के समय वन में जाना चाहते थे? अथवा वन में विचरण करते हुए क्या सीता का हरण अथवा रावण से युद्ध करना चाहते थे? क्या महासती सीता अपवाद के निमित्त वनवास का दु:ख देखना चाहती थीं? क्या पतिदेव का वियोग उन्हें इष्ट था? कहना पड़ेगा कि नहीं। फिर भी पूर्वसंचित कर्म ने यह सब दृश्य दिखाये। अहो! क्या भगवान ऋषभदेव छह महीने निराहार भ्रमण करना चाहते थे?
क्या भगवान पार्श्र्वनाथ कमठचर दैत्य के द्वारा उपसर्ग चाहते थे? नहीं। फिर भी उन्हें झेलना पड़ा। हाँ, अंतर इतना ही है कि वे महापुरुष संकट या अलाभ या उपसर्ग से चित् भी घबराए नहीं तो कर्मों का नाश कर आज मोक्षधाम में पहुँच गये हैं और वहाँ परमानंदमयी सुखामृत का पान कर रहे हैं। श्री रामचन्द्र जी पिता के वचन की रक्षा हेतु जब वन में गये थे तब तो धीर-वीरमना थे किंचित् भी क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए थे।
किन्तु सीता के वियोग में और भाई लक्ष्मण के वियोग में अत्यधिक दु:खी हुए थे फिर भी उन दु:खों को छोड़कर निर्मम होकर जब आत्मसाधना में लीन हो गये तभी वे संसार समुद्र को पार कर अपने निजपद में विश्रांति को प्राप्त हो गये। कहने का मतलब यही है कि चाहे महापुरुष हों चाहे हम जैसे सामान्यजन। सभी लोग प्रतिकूल सामग्री नहीं चाहते हैं किन्तु सांसारिक सुख कर्माधीन हैं इसलिए वे चाहने मात्र से नहीं मिल सकते हैं।
जो अपनी शुद्धात्मा है वह अकृत्रिम अनादिनिधन है किन्तु ये घर परिजन आदि कृत्रिम हैं विनाशीक हैं ऐसा समझ कर हे भव्य! तू इनसे अपने को दूर कर। इन घर और परिजनों की चिंता से तू मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है इसलिए तू तपश्चरण का अवलंबन ले, उस तपश्चरण के बारम्बार अभ्यास से ही मोक्ष की सिद्धि होगी। तपश्चरण से ही कर्मों की निर्जरा होती है। देखो, ज्ञान की प्राप्ति का साधन जो स्वाध्याय है वह तप ही है और ध्यान भी तपश्चरण का ही अंतिम भेद है। इसके बजाय अनशन आदि तपश्चरण भी ध्यान की सिद्धि में साधनभूत हैं।
तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने भी पूर्वजन्म में सिंहनिष्क्रीडित आदि घोर-घोर तपश्चरण किये हैं और इस जन्म में तपश्चरण किया है। दूसरी बात यह है कि जिसकी आत्मा और शरीर का भेद विज्ञान हो चुका है। वह सम्यग्दृष्टी तपश्चरण में प्रमाद कभी भी नहीं करेगा चूँकि वह शरीर को आत्मा से भिन्न समझता है पुन: वह उसे सुखिया बनाने में ही वैसे प्रवृत्त होगा वह तो रत्नत्रय की सिद्धि हेतु शरीर से श्रम ही करायेगा और जब तक हम घर और स्त्री, पुत्र, मित्र आदि को नहीं छोड़ सकते तब तक हम क्या करें? तो आचार्यों ने इसके लिए भी बताया है कि तब तक तुम्हें श्रावक की क्रिया का पालन करते हुए दान-पूजन में और गृहत्यागी साधुओं में अत्यर्थ अनुराग रखना चाहिए।
परमात्म प्रकाश में बताया है कि ‘‘श्रावक साधुओं के लिए भक्तिपूर्वक आहारदान, अभयदान, औषधिदान और शास्त्रदान देवे। जिसने मुनि को आहारदान दिया तो समझिये कि शुद्धात्मानुभूति के लिए साधनभूत ऐसे बाह्य-आभ्यंतर भेद सहित बारह प्रकार का तपश्चरण ही दिया है और शुद्धात्म भावना लक्षणरूप जो संयम है उसका साधक जो यह शरीर है उस शरीर की ही स्थिति की है तथा उसने शुद्धात्मा की उपलब्धिरूप भवांतरगति-मोक्ष को ही प्रदान किया है अर्थात् जिसने यति को आहारदान दिया, उसने तपश्चरण का ही दान किया है ऐसा समझो चूँकि तपश्चरण और संयम का साधन शरीर है और इसकी स्थिति आहार पर ही अवलंबित है तथा उसने मोक्ष का ही दान कर दिया है ऐसा समझना चाहिए चूँकि इस शरीर के द्वारा ही रत्नत्रय की सिद्धि करके मोक्ष की प्राप्ति की जाती है।
मोह नष्ट करने के लिए नासिका से निकला हुआ जो श्वासोच्छ्वास है वह जब मिथ्यात्व विषय और कषाय रहित निर्विकल्पसमाधि में मिल जाता है तभी यह मोह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और मन भी अस्तंगत हो जाता है।
जब यह जीव रागादि पर भावों से शून्य निर्विकल्प समाधि में स्थिर होता है तब यह उच्छ्वास रूप वायु नासिका के दोनों छिद्रों को छोड़कर स्वयं ही क्षणमात्र तो अनीहितवृत्ति से-स्वभाव से तालुरन्ध्र में-जो कि बाल की अनी के आठवें भाग प्रमाण अति सूक्ष्म छिद्र है उसमें होकर बारीक निकलती है अर्थात् नाक के छेद को छोड़कर तालुरंध्र में होकर निकलती है और पुन: कुछ क्षणमात्र तक नासिका से निकलती है, पुन: क्षणमात्र तक उसी दशमद्वार (तालुरन्ध्र) से निकलती है।
उस समय मोह नष्ट हो जाता है, मन मर जाता है और श्वासोच्छ्वास रूक जाता है और तभी केवलज्ञान भी प्रगट हो जाता है अर्थात् शुद्धोपयोगी महामुनि तो अपने स्वरूप में तल्लीन हो जाते हैं उन्हीं की यह अवस्था विशेष होती है और तभी यह जीव कर्मों से छुटकारा पा लेता है।
मन को वश में करने का और मोह को क्षीण करने का एक उपाय स्वाध्याय ही है। स्वाध्याय के समय मन अर्थ के चिंतन में लग जाता है, अन्य इन्द्रियां भी अपना व्यापार बाहर से संकोच लेती है। श्रुत से संस्कारित हुआ मन स्वसंवेदन ज्ञान के बल से अपने शुद्ध तत्व को प्राप्त कर लेता है जैसे कि क्षारमृत्तिका-सज्जी आदि के संयोग को प्राप्त हुआ जल मलिन वस्त्र को स्वच्छ कर देता है।
अर्थात् जैसे साबुन आदि क्षारपदार्थ के संयोग से जल मलिन से मलिन वस्त्र को उज्ज्वल कर देता है उसी प्रकार से श्रुताभ्यास से संस्कारित मन आत्मा को शुद्ध निर्मल बना देता है। ‘‘केवलज्ञान ही साक्षात् मुक्ति का साधन है और वह स्वानुभूति के बल से प्रगट होता है और वह स्वानुभूति श्रुत के एक ही उत्कृष्ट संस्कार से संस्कारित मन द्वारा होती है इसलिए स्वाध्याय का ही अवलंबन लेना चाहिए।’’
‘‘चित्ते बद्धे बद्धो मुक्के मुक्को त्ति णत्थि संदेहो।
अप्पा विमल सहावो मइलिज्जइ मइलिए चित्ते।।
मन के बंधन से ही यह जीव कर्मों से बंधा हुआ है और मन के मुक्त होने से ही यह जीव मुक्त हो जाता है इसमें कोई संदेह नहीं है। चूँकि यह आत्मा विमल स्वभाव वाला है और फिर भी इस मलिन चित्त के होने से ही मलिन-कर्ममल सहित अपवित्र हो रहा है अर्थात् जब तक यह मन धन-धान्य आदि परिग्रहों में आसक्त हो रहा है तभी तक ही संसार है और जब यह मन इन परिग्रहों से, विषय और कषायों से छूट जाता है तभी यह जीव संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है। जब तक यह मन मैला है तभी तक आत्मा भी मैली है, मन के उज्ज्वल होते ही शुक्लध्यानमय परिणमन करते ही यह आत्मा भी शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार चैतन्य धातुमय प्रगट हो जाती है।
यह निकला कि आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए परिग्रह आदि के त्याग की पूर्ण आवश्यकता है आप जब तक उसका त्याग नहीं कर सकते तब तक श्रावकोचित दान, पूजन, स्वाध्याय आदि आवश्यक क्रियाओं द्वारा अपने आपको अशुभ कर्मों के बंध से बचाते रहेंगे तो भी इस युग में आपके लिए बहुत कुछ लाभ ही है ऐसा समझो। इस काल में शुभ कर्म के संचय से छूट कर शुद्ध होना तो असंभव ही है।