(श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचन)
सज्जाति: सद्गृहस्थत्वं पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता ।
साम्राज्यं परमाहृन्त्यं निर्वाण चेति सप्तधा ।।
भव्यात्माओं! मैं आपको जिनागम में सारभूत ऐसे सप्त परम स्थान के बारे में बता रही हूँ ।
# सज्जाति | # सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत) |
# पारिव्राज्य (मुनियों के व्रत) | # सुरेन्द्रपद |
# साम्राज्य (चक्रवर्ती पद) | # अरहंत पद |
# निर्वाण पद |
ये सात परम स्थान कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव क्रम-क्रम से इन परम स्थानों को प्राप्त कर लेता है।
इन्हें कर्तृन्वय क्रिया भी कहते हैं। इन सप्तपरमस्थानों का कर्तृन्वय क्रियाओं के नाम से
में सुन्दर विवेचन देखा जाता है।
इन क्रियाओं में कल्याण करने वाली सबसे पहली क्रिया सज्जाति है जो कि निकट भव्य को मनुष्य जन्म की प्राप्ति होने पर होती है। ‘‘दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंश में विशुद्ध जन्म धारण करने वाले मनुष्य के सज्जाति नाम का परमस्थान होता है। विशुद्ध कुल और विशुद्ध जातिरूपी सम्पदा सज्जाति है।
इस सज्जाति से ही पुण्यवान मनुष्य उत्तरोत्तर उत्तम-उत्तम वंशों को प्राप्त होता है। पिता के वंश की जो शुद्धि है उसे कुल कहते हैं और माता के वंश की शुद्धि जाति कहलाती है। कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को ‘सज्जाति’ कहते हैं, इस सज्जाति के प्राप्त होने पर बिना प्रयत्न के सहज ही प्राप्त हुए गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ हो जाती है।’ आर्यखंड की विशेषता से सज्जातित्व की प्राप्ति शरीर आदि योग्य सामग्री मिलने पर प्राणियों के अनेक प्रकार के कल्याण उत्पन्न करती है।
यह सज्जाति उत्तम शरीर के जन्म से ही मैंने वर्णित की है क्योंकि पुरुषों के समस्त इष्ट पदार्थों की सिद्धि का मूलकारण यही एक सज्जाति है। संस्काररूप जन्म से जो सज्जाति का वर्णन है वह दूसरी ही सज्जाति है उसे पाकर भव्यजीव द्विजन्मा कहलाता है अर्थात् प्रथम उत्तम वंश में जन्म यह एक सज्जाति हुई पुन: व्रतों के संस्कार से संस्कारित होना यह द्वितीय जन्म माना जाने से उस भव्य की ‘द्विज’ यह संज्ञा अन्वर्थ हो जाती है।
जिस प्रकार विशुद्ध खान में उत्पन्न हुआ रत्न संस्कार के योग से उत्कर्ष को प्राप्त होता है उसी प्रकार क्रियाओं और मंत्रों से सुसंस्कार को प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यंत उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है। यहाँ विशेष बात समझने की यह है कि जाति व्यवस्था को माने बिना ‘सज्जातित्व’ नहीं बन सकती।
इसी बात को उत्तरपुराण में श्री गुणभद्राचार्य कहते हैं-
जातिगोत्राणिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतव:।
येषु ते स्युस्त्रयो वर्णा: शेषा: शूद्रा: प्रकीर्तित:।।४९३।।
अच्छेद्यो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंतते:।
तद्धेतुनामगोत्राढ्यजीवाविच्छिन्नसंभवात्।।४९४।।
शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंतति:।
एवं वर्णविभाग: स्यान्मनुष्येषु जिनागमे।।४९५।।
जिनमें शुक्लध्यान के लिए कारण ऐसे जाति, गोत्र आदि कर्म पाये जाते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ऐसे तीन वर्ण हैं।’ उनसे अतिरिक्त शेष शूद्र कहे जाते हैं।
विदेह क्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता क्योंकि वहीं उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरंतर उत्पत्ति होती रहती है परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थकाल में ही जाति की परम्परा चलती है अन्य कालों में नहीं।
जिनागम में मनुष्यों का वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है कि-
जब प्रजा भगवान के सामने अपनी आजीविका की समस्या लेकर आई तब भगवान ने उसे आश्वासन देकर विचार किया- ‘पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जैसे असि, मषि आदि षट्कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम, घर, नगर आदि की रचना है वह सब यहाँ पर भी होनी चाहिए।
अनंतर भगवान के स्मरण मात्र से देवों के साथ सौधर्म इन्द्र वहाँ आया और उसने शुभ मुहूर्त में जगद्गुरु भगवान की आज्ञानुसार मांगलिक कार्यपूर्वक अयोध्या के बीच में ‘जिनमंदिर’ की रचना की। पुन: सर्व ग्राम, नगर आदि की रचना कर प्रजा को बसाकर चला गया। पुन: भगवान ने असि, मषि आदि षट्कर्मों का उपदेश देकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की। उस समय प्रजा अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य आजीविका नहीं करती थी इसलिए उनके कार्यों में कभी संकर (मिलावट) नहीं होता था।
उनके विवाह, जाति संबंध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान की आज्ञानुसार ही होते थे। अर्थात् इस कर्मभूमि की आदि में भगवान वृषभदेव ने अपने अवधिज्ञान के बल से विदेह क्षेत्र की अनादिनिधन कर्मभूमि की व्यवस्था को देखकर उसी के सदृश ही यहाँ सब व्यवस्था बनाई थी। अत: जैसे इस भरतक्षेत्र में मोक्षमार्ग की व्यवस्था सादि है, भोगभूमि में या प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा पंचम और छठे काल में मोक्ष नहीं होता है वैसे ही यह वर्ण व्यवस्था भी सादि है फिर भी इसके बिना भी मोक्ष नहीं है।
स्वयं कुन्दकुन्द देव भी कहते हैं- ‘देश, कुल, जाति से शुद्ध, विशुद्ध मन, वचन, काय से संयुक्त ऐसे हे गुरुदेव! तुम्हारे चरणकमल हमारे लिए हमेशा मंगलमयी होवें।’ जाति व्यवस्था को स्वीकार करने पर ही जाति से शुद्ध यह विशेषण सार्थक होता है।
दुर्भाव, अशुचि, सूतक-पातक दोष से युक्त रजस्वला स्त्री और जाति संकर आदि दोष से दूषित लोग यदि दान देते हैं तो वे कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं तथा जो कुपात्र में दान देते हैं तो वे भी कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं। जाति व्यवस्था मानने पर ही ‘जाति संकर’ दोष बनेगा अन्यथा नहीं।
उपासकाध्ययन में भी कहा है- ‘जैसे माता-पिता के शुद्ध होने पर संतान की शुद्धि देखी जाती है, वैसे ही आप्त के निर्दोष होने पर उनका कहा हुआ आगम निर्दोष माना जाता है।’ ‘द्रव्य, दाता और पात्र की विशुद्धि होने पर ही विधि शुद्ध हो सकती है क्योंकि सैकड़ों संस्कार से भी शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता है।’
उत्तरपुराण में एक कथा आती है कि जब सत्यभामा ब्राह्मणी को यह मालूम हुआ कि यह मेरा पति कपिल, ब्राह्मण न होकर दासी पुत्र है तो वह ब्रह्मचर्यव्रत लेकर राजा की शरण में गई। राजा ने भी सोचा कि पापी और विजातीय के लिए न करने योग्य कुछ भी नहीं है। इसीलिए राजा लोग कुलीन मनुष्यों का ही संग्रह करते हैं।
ऐसा समझकर राजा ने उस मायावी कपिल को दंडित किया।
‘एक समय एक मुनि वेश्या के दरवाजे की तरफ से निकले तब वेश्या ने विनय से निवेदन किया-हे मुने! मेरा कुल दान देने योग्य नहीं है।
इस तरह अपने कुल की निंदा करती हुई वह पूछती है-भगवन्! उत्तम कुल और रूपादि इस जीव को किन कार्यों से मिलते हैं? तब मुनि ने कहा-हे भद्रे! मद्य, मांस आदि के त्याग करने से उत्तम कुल आदि की प्राप्ति होती है।
इसीलिए सोमदेव सूरि कहते हैं- ‘मनुष्यों की क्रियाएं शुद्ध होने पर भी यदि उनके आप्त और आगम निर्दोष नहीं हैं तो उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैसे कि क्रियाएं शुद्ध होने पर भी विजाति लोगों से कुलीन संतानरूप उत्तम फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है।’
अत: आचार्य आदेश देते हैं कि- ‘धर्मभूमि में स्वभाव से ही मनुष्य कम कामी होते हैं। अत: अपनी जाति की विवाहित स्त्री से ही संबंध करना चाहिए। अन्य कुजातियों की स्त्रियों से, बंधु-बांधवों की तथा व्रती स्त्रियों से भी संबंध नहीं करना चाहिए।’
जीवंधर कुमार ने गायों के जीतने के बाद ग्वाल सरदार की कन्या गोविंदा को स्वयं न वरण करके अपने मित्र पद्मास्य को ही उसके योग्य समझा और उसके साथ विवाह कराया।’
श्री रविषेणाचार्य कहते हैं-
१. कुल | २. शील | ३. धन |
४. रूप | ५. समानता | ६. बल |
७. अवस्था | ८. देश | ९. विद्यागम |
ये नौ गुण वर के कहे गये हैं तथापि उत्तम पुरुष इन सभी गुणों में एक कुल को ही श्रेष्ठ गुण मानते हैं। परन्तु वहीं कुल गुण जिस
यही कारण है कि जब सुग्रीव की भार्या सुतारा के महल में साहसगति विद्याधर कृत्रिम सुग्रीव का रूप बनाकर घुस आया और सत्य सुग्रीव के आ जाने के बाद जब मंत्री लोग सत्य और मायावी का निर्णय नहीं कर सके, तब उन लोगों ने विचार किया कि- लोक में गोत्र शुद्धि अत्यंत दुर्लभ है इसलिए उसके बिना बहुत भारी राज्य से भी प्रयोजन नहीं है।
निर्मल गोत्र पाकर ही शीलादि आभूषणों से भूषित हुआ जाता है इसलिए इस निर्मल अंत:पुर की यत्नपूूर्वक रक्षा करनी चाहिए। इसलिए तो भारतीय संस्कृति में विधवा विवाह का सर्वथा निषेध है।
जब चन्द्रनखा को खरदूषण ने हरण कर लिया तब रावण के कुपित होने पर मंदोदरी कहती है- यदि किसी तरह वह खरदूषण मारा भी गया तो हरण के दोष से दूषित कन्या अन्य दूसरे को नहीं दी जा सकेगी उसे तो मात्र विधवा ही रहना पड़ेगा।
जब सुलोचना ने स्वयंवर में जयकुमार के गले में वरमाला डाल दी, तब भरतसम्राट के पुत्र अर्ककीर्ति कुछ लोगों के भड़काने से युद्ध के लिए तैयार हो गये। उसी बीच अर्ककीर्ति कहते हैं-
क्योंकि सबसे ईष्र्या करने वाला यह जयकुमार अभी मेरे बाणों से ही मर जावेगा तब उस विधवा से मुझे क्या प्रयोजन रह जावेगा?’ इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन काल में कुल की शुद्धि देखकर सजाति में ही विवाह किये जाते थे। विधवा विवाह, पुनर्विवाह आदि प्रथाएं निषिद्ध थीं।
सजातीय भार्या को ही ‘धर्मपत्नी’ यह संज्ञा दी जाती है। राजाओं के जो अन्य विजातीय स्त्रियाँ भी रहती थीं वे केवल भोगपत्नी मानी जाती थीं। क्योंकि ‘सज्जाति’ से उत्पन्न संतान ही दान, पूजन करने के लिए अधिकारी है और सज्जाति को ही दैगंबरी दीक्षा का विधान है। आचार ग्रंथों में तो है ही, श्री पूज्यपाद आचार्य विरचित ‘जैनेन्द्र व्याकरण’ का भी सूत्र है-
‘वर्णेनार्हद्रूपायोग्यानां।’
जो वर्ण से अर्हंत रूप के योग्य नहीं है इससे स्पष्ट है कि तीन वर्ण ही दीक्षा के योग्य हैं और अंतिम वर्ण दीक्षा के अयोग्य हैं।
जिस प्रकार गुलाब के वृक्ष की टहनी (कलम) काटकर लगाते हैं तो श्वेत, लाल या गुलाबी जैसे भी गुलाब तरु की टहनी है वैसा ही फूल आता है और यदि आजकल विज्ञान से शिक्षित लोग सफेद गुलाब की कलम और लाल गुलाब की कलम दोनों को मिलाकर लगा देते हैं ।
तो उसमें श्वेत या लाल गुलाब फूल न आकर एक तीसरे ही रंग का फूल आ जाता है तथा श्वेत या लाल गुलाब जैसी असली सुगंधि भी उसमें नहीं रहती है। कालांतर में उस संकर (मिश्रित) गुलाब की कलम भी नहीं लगायी जा सकती है चूँकि उसकी उपजाऊ शक्ति खत्म हो जाती है।
वैसे ही ‘जाति संकर’ से दूषित कुल में मोक्षमार्ग परम्परा नहीं चलती है क्योंकि ‘सज्जाति’ परम स्थान के बिना ‘पारिव्राज्य’ परमस्थान और मोक्ष मिलना असंभव है।
कि छठे काल में ‘सज्जातित्त्व’ समाप्त हो जावेगा, क्योंकि तब विवाह प्रथा रहेगी ही नहीं। पुन: आगे छठे और पंचमकाल के बाद चतुर्थकाल के अंत में कुलकर जन्म लेंगे एवं उन्हीं में तीर्थंकरों का भी जन्म होगा तो बिना ‘सज्जाति’ के भी मोक्षमार्ग चलेगा ही।
इस पर चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने बहुत ही सुंदर समाधान दिया था। उन्होंने कहा था कि- छठे काल के अंत में प्रलय के समय जो बहत्तर जोड़े देवों द्वारा यहाँ से ले जाये जाकर विजयार्ध की गुफाओं में सुरक्षित किए जावेंगे, तिलोयपण्णत्ति में ऐसा कथन है कि उस समय कुछ और भी मनुष्य सुरक्षित रखे जावेंगे।
उन्हीं में से जिनमें ‘सज्जाति’ (बिना विवाह के भी एक स्त्री से संबंध होने की परम्परा) सुरक्षित रह जावेगी उन्हीं से कुलकर तीर्थंकर आदि जन्म लेवेंगे।
उदाहरण के लिए देखिए- यदि कोई एक बोरी गेहूं घुने हुए लाकर किसी चतुर महिला को दे देवे और कहे कि इन सर्वथा घुने हुए गेहूँ में से भी तुम २-४-१० गेहूँ बिना घुने हुए निकाल दो तो आप बतलाइये १०-२० गेहूँ बिना घुने हुए उस बोरी भर गेहूँ में से ढूंढने पर मिलेंगे या नहीं? यदि मिल सकते हैं ।
तो फिर वैसे ही कई करोड़ों मनुष्यों की संख्या में से १०-२० स्त्री-पुरुष (दंपती) शुद्ध ‘सज्जाति’ वाले तब भी सुरक्षित रह सकते हैं और उन्हीं में ही किन्हीं को कुलकर तथा तीर्थंकर जैसे महापुरुषों को जन्म देने का सौभाग्य मिल सकता है। ऐसा विश्वास करना चाहिए।
सज्जाति नाम के परमस्थान को प्राप्त करने वाला भव्य ‘सद्गृहित्व’ परमस्थान को प्राप्त करता है। वह सद्गृहस्थ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन करता है।
गृहस्थ अवस्था में करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं, अरहंत भगवान् द्वारा कहे गये उन-उन समस्त आचरणों का जो आलस्य रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्रदेव से उत्तम जन्म प्राप्त किया है और गणधरदेव ने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेज को धारण करता है अर्थात् प्रथम तो शरीर का जन्म, पुन: गुरु के द्वारा व्रतों को ग्रहण करने से संस्कार का जन्म ऐसे दो जन्म जिसके होते हैं उसे द्विज, द्विजन्मा कहते हैं। वर्तमान में ब्राह्मणों को द्विज संज्ञा है।
भरत सम्राट ने भी जैनव्रती श्रावकों को ही ब्राह्मण संज्ञा दी थी किन्तु यहाँ पर तो उच्चवर्णीय सद्गृहस्थ ही विवक्षित हैं। यहाँ यह आशंका हो सकती है कि जो असि, मषि आदि छह कर्मों से आजीविका करने वाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसा का दोष लग सकता है परन्तु इस विषय में जैनाचार्य कहते हैं कि यद्यपि आजीविका के लिए छह कर्मों के करने वाले जैन गृहस्थों को थोड़ी सी हिंसा की संगति अवश्य होती है परन्तु शास्त्रों में उन दोषों की शुद्धि भी तो दिखलाई गई है।
उनकी विशुद्धि के अंग तीन हैं-पक्ष, चर्या और साधन। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनियों का पक्ष कहलाता है। किसी देवता के लिए, किसी मंत्र की सिद्धि के लिए अथवा किसी औषध या भोजन बनवाने के लिए मैं किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है।
इस प्रतिज्ञा में यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमाद से दोष लग जावे तो प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि की जाती है तथा अंत में अपना सब कुटुम्ब पुत्र के लिए सौंपकर घर का परित्याग किया जाता है।
यह गृहस्थ लोगों की चर्या है। आयु के अंत समय में शरीर, आहार और समस्त प्रकार की चेष्टाओं का परित्याग कर ध्यान की शुद्धि से जो आत्मा को शुद्ध करना है वह साधन है। अरहंत देव को मानने वाले जैनों का पक्ष, चर्या और साधन इन तीनों में हिंसा के साथ स्पर्श भी नहीं होता।
चारों आश्रमों की शुद्धता भी श्री अर्हंतदेव के मत में ही है। अन्य लोगों ने जो चार आश्रम माने हैं वे विचार किये बिना ही सुन्दर प्रतीत होते हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियों के चार आश्रम माने हैं जो कि उत्तरोत्तर अधिक विशुद्धि होने से प्राप्त होते हैं।
ये चारों ही आश्रम अपने-अपने अन्तर्भेदों से सहित होकर अनेक प्रकार के हो जाते हैं।
# अनादिकाल से आठ प्रकार के कर्मबंधन से बंधे हुए जीव तीव्र दु:खों के लिए कारणभूत ऐसी चारों गतियों में हमेशा ही दु:ख उठाते रहते हैं। इन संसारी प्राणियों को ही यहाँ सत्व संज्ञा है।
ऐसे सभी सत्वों में प्राणी मात्र में मैत्री भाव रखना अर्थात् मन-वचन-काय और कृत, कारित, अनुमोदना से दूसरों को दु:ख न होने देने की अभिलाषा का नाम मैत्री भावना है। मैं सब जीवों के प्रति क्षमाभाव रखता हूँ सब जीव मुझे क्षमा करें, मेरी सब जीवों से प्रीति है मेरा किसी से बैर नहीं है, इत्यादि प्रकार की भावना ही मैत्री है।
# सम्यग्दर्शन, ज्ञान आदि गुणों से विशिष्ट पुरुष गुणाधिक है। ऐसे गुणी जनों में प्रमोदभाव होता है। गुणीजनों को देखकर मुख की प्रसन्नता, नेत्र का आल्हाद, रोमांच, स्तुति, सद्गुण, कीर्तन आदि के द्वारा अंतरंग की भक्ति को, भावों के अनुराग को प्रगट करना प्रमोद भावना है ।
# असाता वेदनीय के उदय से जो शारीरिक या मानसिक दु:खों से संतप्त हैं क्लिश्यमान कहलाते हैं। ऐसे दीन प्राणियों के ऊपर अनुग्रह रूप भाव का होना कारुण्य भावना है। मोह से अभिभूत कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञान से युक्त विषय तृष्णा से जलने वाले, हित-अहित में विपरीत प्रवृत्ति करने वाले, विविध दु:खों से पीड़ित दीन, अनाथ, बाल, वृद्ध आदि जीव क्लिश्यमान हैं। उन जीवों के प्रति दया भाव से ओतप्रोत हो जाना कारुण्य भावना है।
# तत्त्वों के उपदेश को जो श्रवण करते हैं और उनको ग्रहण करने के पात्र हैं उन्हें विनेय कहते हैं। इससे विपरीत अविनेय हैं। इन विरुद्ध चित्तवालों में माध्यस्थ भाव रखना। जो व्यक्ति ग्रहण धारण, विज्ञान और ऊहापोह से रहित हैं, महामोह से अभिभूत हैं और विपरीत दृष्टि-महामिथ्यादृष्टि हैं ऐसे विरुद्ध वृत्ति वाले जीवों के प्रति राग-द्वेष न करके माध्यस्थ भाव रखना चौथी भावना है।
वास्तव में ऐसे अविनेय लोगों के प्रति किया गया धर्म का उपदेश सफल नहीं हो सकता है प्रत्युत् कभी-कभी अनर्थ का कारण भी बन जाया करता है अतएव आचार्यों ने ऐसे विपरीत वृत्ति वालों के प्रति मध्यस्थ रहने का आदेश दिया है। जैसे कि रक्षाबंधन कथा में श्रुतसागर मुनि के द्वारा दिया गया तत्त्वों का उपदेश बलि आदि दुर्बुद्धि मंत्रियों के लिए उल्टा हुआ और वे संघ के अहित में तत्पर हो गये।
इस प्रकार से इन मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओं का भाने वाला व्यक्ति जब समस्त हिंसा को अर्थात् संकल्पपूर्वक त्रय हिंसा को छोड़ देता है और धर्म के पक्ष में तत्पर हो जाता है तब वह पाक्षिक कहलाता है।
सागार धर्मामृत में इस पाक्षिक श्रावक के लिए मद्य, मांस, मधु और पंच उदुम्बर फल इन आठों का त्याग करना अत्यावश्यक बतलाया है।
रात्रिभोजन त्याग और अनछना पानी पीने का त्याग भी कहा है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांचों पापों का भी स्थूल त्याग करना चाहिए तथा जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री इन सात व्यसनों का त्याग भी होना चाहिए।
तभी वह ‘पाक्षिक’ संज्ञा को प्राप्त होता है। दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं ऐसा आर्ष में कहा गया है। दान के चार भेद हैं-आहार दान, औषधिदान, शास्त्रदान और वसतिकादान।
अंतिम दो दान के ज्ञानदान और अभयदान भी नाम प्रसिद्ध हैं। श्रावक मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि चतुर्विध संघ को ये चारों दान देते हैं। पात्र के भी उत्तम, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा तीन भेद माने गये हैं।
नित्यमह, चतुर्मुखमह, कल्पद्रुममह, आष्टान्हिकमह और ऐंद्रध्वजमह। मह का अर्थ पूजा है। नित्यप्रति जिनेन्द्रदेव की जल गंधादि से अर्चना करना, जिनबिंब, जिनमंदिर बनवाना, मुनीश्वरों की पूजा करके उन्हें आहार देना यह सब नित्यमह है।
महामुकुटबद्ध राजा लोग जो बड़े वैभव से पूजा करते हैं, वह चतुर्मुख या सर्वतोभद्र है। आष्टान्हिक पर्व में की गई आष्टान्हिकमह है, चक्रवर्ती सबकी इच्छा पूर्ण करने वाला ऐसा किमिच्छक दान देते हुए जो पूजा करते हैं वह कल्पवृक्ष पूजा है। इन्द्रों के द्वारा जो पूजन होती है उसका नाम ऐंद्रध्वज है।
ब्रह्मचर्य का पालन करना शील है और अष्टमी आदि पर्वों मे चतुर्विध आहार का त्याग करना उपवास है। इस उपवास के अनुष्ठान में अनेकों भेद होते हैं। इस श्रावक धर्म का उपदेश जिनेन्दद्रेव ने दिया है यह बात सिद्धांतग्रंथों में कही गई है।
‘शंका होती है कि चौबीसों तीर्थंकर सदोष हैं क्योंकि उन्होंने छहकाय के जीवों की विराधना के कारणभूत ऐसे श्रावक धर्म का उपदेश दिया है।
दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं। यह चारों ही प्रकार का श्रावक धर्म छहकाय के जीवों की विराधना का कारण है क्योंकि भोजन का पकाना, दूसरे से पकवाना, अग्नि का सुलगाना, अग्नि का जलाना, अग्नि का खूतना और खुतवाना आदि व्यापारों से होने वाली जीव विराधना के बिना दान नहीं बन सकता है।
उसी प्रकार वृक्ष का काटना और कटवाना, का गिराना और गिरवाना तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छहकाय के जीवों की विराधना के कारणभूत व्यापार के बिना जिनभवन का निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है तथा अभिषेक करना, अवलेप करना, संमार्जन करना, चंदन लगाना, फूल चढ़ाना और धूप जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारों के बिना पूजा करना नहीं बन सकता है।
4शील की रक्षा भी सावद्य है क्योंकि अपनी स्त्री को पीड़ा दिये बिना शील का परिपालन नहीं हो सकता है। उपवास भी सावद्य है क्योंकि अपने पेट में स्थित प्राणियों को पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है। अथवा जिनेन्द्रदेव श्रावकों को स्थूल अहिंसा का उपदेश देते हैं अर्थात् ‘स्थावर जीवों को छोड़कर केवल त्रसजीवों को ही मत मारो।’ ऐसा प्रतिपादन करते हैं। इन्हीं सब सावद्य कारणों का उपदेश देने से जिनेन्द्रदेव निर्दोष नहीं हैं।
अथवा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, वृक्ष के मूल में सूर्य के आतप में और खुले हुए स्थान में निवास करना, उत्कुटासन, पल्यंकासन, अर्धपल्यंकासन, खड्गासन, गवासन, वीरासन, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यानादि क्लेशों में जीवों को डालकर उन्हें ठगने के कारण जिनेन्द्रदेव निरवंद्य नहीं हैं और इसीलिए वे वंदनीय नहीं है।
यहाँ तक शंकाकार ने अपनी शंका रखी अब आचार्य इसका समाधान देते हैं- ‘उपर्युक्त शंकाओं का परिहार करते हैं कि यद्यपि तीर्थंकर पूर्वोक्त प्रकार का उपदेश देते हैं तो भी उनके कर्मबंध नहीं होता है।’
‘तीर्थंकर का विहार संसार के लिए सुखकर है किन्तु उससे पुण्यफलस्वरूप कर्मबंंध होता हो ऐसा नहीं है तथा दान और पूजा आदि आरंभ के करने वाले वचन उन्हें कर्मबंध से लिप्त नहीं करते हैं अर्थात् वे दान, पूजा आदि आरंभों का उपदेश देते हैं उससे भी उन्हें कर्मबंध नहीं होता है।’
‘जीवों में पापास्रव के द्वार अनादिकाल से खुले हुए हैं। उनके खुले रहते हुए जो जीव शुभास्रव के द्वार को खोलता है अर्थात् शुभास्रव के कारणभूत कार्यों को करता है, वह सदोष कैसे हो सकता है? और जब महाव्रती मुनियों के प्रतिसमय घटिकायंत्र जल के समान असंख्यातगुणित श्रेणीरूप से कर्मों की निर्जरा होती रहती है तब उनके पाप कैसे संभव है?’
इन शंका और समाधान के प्रकरण को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि जिनेन्द्रदेव ने श्रावकों के लिए दान, पूजन करना, जिनमंदिर बनवाना आदि आरंभ का उपदेश दिया है एवं मुनियों के लिए अनशन आदि तपश्चरण का उपदेश दिया है फिर भी न वे सदोष हैं और न उनके बताये मार्ग पर चलने वाले श्रावक और मुनि ही सदोष हैं अत: इस ‘सद्गृहित्व’ नामक परमस्थान के इच्छुक गृहस्थ को दान, पूजा, शील, उपवास धर्मों को यथाशक्ति करते रहना चाहिए।
घर से विरक्त होकर जो पुरुष का दीक्षा ग्रहण करना है वह पारिव्राज्य है। परिव्राट् का जो निर्वाण दीक्षारूप भाव है उसे पारिव्राज्य कहते हैं।
इस पारिव्राज्य परमस्थान में ममत्व भाव छोड़कर दिगम्बर रूप धारण करना पड़ता है। मोक्ष के इच्छुक पुरुष को शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहों के अंश में निर्ग्रन्थ आचार्य के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चारित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभा अच्छी है ऐसा पुरुष ही जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है।
जिस दिन ग्रहोंका उपरोग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य-चन्द्रमा पर परिवेष मंडल हो, इन्द्रधनुष हो, दुष्ट ग्रहों का उदय हो, आकाश मेघ पटल से ढका हुआ हो, नष्ट मास अथवा अधिक मास का दिन हो, संक्रांति हो अथवा क्षय तिथि हो उस दिन बुद्धिमान आचार्य को मोक्ष की इच्छा करने वाले भव्यों का दीक्षा संस्कार नहीं करना चाहिए।
आचार्य सुयोग्य शिष्य को दीक्षाविधि में सर्वप्रथम केशलोंच कराते हैं पुन: सर्व वस्त्र आभूषण त्याग कराकर अट्ठाईस मूलगुणों की विधि समझाकर उन्हें देते हैं। संयम की रक्षा के लिए मयूर पंखों की पिच्छी, शौच के लिए काठ का कमण्डलु और ज्ञान के लिए शास्त्र देते हैं।
पाँच महाव्रत, पंच समिति, पंच इन्द्रियों को वश में करना, छ: आवश्यक क्रिया, लोच, आचेलक्य, स्थान का त्याग, क्षितिशयन, दंत धावन न करना, खड़े होकर आहार करना, एक बार आहार करना ये २८ मूलगुण हैं।
पाँच महाव्रत- मुख्य व्रतों को महाव्रत कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए कारणभूत हिंसादि के त्याग को व्रत कहते हैं। जिनको तीर्थंकर आदि महापुरुष ग्रहण करते हैं अथवा जो पालन करने वाले को महान बना देते हैं वे महाव्रत कहलाते हैं।
इसके पाँच भेद हैं- अहिंसा महाव्रत- कषाययुक्त मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को प्रमत्तयोग कहते हैं, प्रमत्त योग से दस प्राणों का वियोग करना हिंसा है, ऐसी हिंसा से विरत होना सर्व प्राणियों पर पूर्ण दया का पालन करना अहिंसा महाव्रत है।
सत्य महाव्रत- प्राणियों को जिससे पीड़ा होगी, ऐसा भाषण, चाहे विद्यमान पदार्थ विषयक हो अथवा न हो, उसको त्याग करना। अचौर्य महाव्रत-अदत्त वस्तु को ग्रहण नहीं करना।
ब्रह्मचर्य महाव्रत- पूर्णतया मैथुन का-स्त्री मात्र का त्याग कर देना। परिग्रह त्याग महाव्रत- बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग करना, मुनियों के अयोग्य समस्त वस्तुओं का त्याग करना। ये पाँच महाव्रत सर्व सावद्य पापों के त्याग के कारण हैं।
सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है। उसके पाँच भेद हैं- ईर्या समिति- अच्छी तरह देखकर मन को स्थिर कर गमन-आगमन करना। भाषा समिति- आगम से अविरुद्ध, पूर्वापर संबंध से रहित, निष्ठुरता, कर्कश, मर्मच्छेदक आदि दोषों से रहित भाषण करना।
एषणा समिति- लोक निंद्य आदि कुलों को छोड़कर और सूतक, पातक, जाति संकर आदि दोषों से रहित घरों में छ्यालीस दोष और बत्तीस अंतराय टालकर आहार ग्रहण करना।
आदान निक्षेपण समिति- आंखों से देखकर और पिच्छिका से शोधनकर यत्नपूर्वक वस्तु को रखना और उठाना।
प्रतिष्ठापन समिति- जन्तु रहित प्रदेश में ठीक से देखकर मलमूत्रादि का त्याग करना। ये पाँच समितियाँ हैं।
पंच इन्द्रिय निरोध- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को हटाना, नियंत्रण करना इन्द्रिय निरोध है।
अवश्य करने योग्य क्रियाएं आवश्यक कहलाती हैं। समता- रागद्वेष, मोह से रहित होना अथवा त्रिकाल पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करना। स्तव- ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना।
वंदना- एक तीर्थंकर का दर्शन या वंदन करना अथवा पंचगुरुभक्ति पर्यंत दर्शन, वंदना करना।
प्रतिक्रमण- अशुभ मन, वचन और काय के द्वारा जो प्रवृत्ति हुई थी उससे प्रावृत्त होना अथवा किये हुए दोषों का शोधन करना।
इस प्रतिक्रमण के दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ ऐसे सात भेद हैं।
प्रत्याख्यान- अयोग्य द्रव्य का त्याग करना अथवा योग्य वस्तु का भी त्याग करना।
व्युत्सर्ग- देह से ममत्व रहित होकर जिनगुण चिंतन युक्त कायोत्सर्ग करना। ऐसे छह आवश्यक हैं। इन्द्रिय, कषाय, रागद्वेषादि के वश में जो नहीं है वे अवश हैं, उनकी क्रियाएं आवश्यक क्रियाएं हैं।
ये छह आवश्यक मुनियों को नित्य ही करना चाहिए।
लोच- अपने हाथों से मस्तक और दाढ़ी मूंछ के केशों को उखाड़कर फेंक देना। यह केशलोंच उत्कृष्ट दो महीने में, मध्यम तीन और जघन्य चार महीने में होता है।
आचेलक्य- चेल-वस्त्र, मुनिपने के अयोग्य सर्व परिग्रहों का त्याग कर देना।
अस्नान- स्नान का त्याग।
क्षितिशयन- घास, लकड़ी का फलक, शिला इत्यादि पर सोना।
अदन्तधावन- दातौन के लिए दंत मंजन, काष्ठादि का उपयोग नहीं करना।
स्थितिभोजन- खड़े होकर पैरों को चार अंगुल अंतर से रखकर भोजन करना।
एक भक्त- दिन में एक बार आहार लेना। इस प्रकार ये अट्ठाईस मूलगुण कहलाते हैं। प्रत्येक दिगम्बर मुनि में इन मूलगुणों का होना आवश्यक है।
मुनियों के २२ परीषहजय, १२ तप और ये ३४ उत्तरगुण कहलाते हैं। ये किन्हीं में होते हैं, किन्हीं में नहीं भी होते हैं।
पारिव्राज्य परमस्थान में सत्ताईस सूत्रपद निरूपित किये गये हैं कि जिनका निर्णय होने पर पारिव्राज्य का साक्षात लक्षण प्रगट होता है उनके नाम हैं-
ये जाति आदि सत्ताईस सूत्रपद कहलाते हैं।
जाति | मूर्ति | उसमें रहने वाले लक्षण |
शरीर की सुन्दरता | प्रभा | मण्डल |
चक्र | अभिषेक | नाथता |
सिंहासन | उपधान | छत्र |
चामर | घोषणा | अशोक वृक्ष |
निधि | गृहशोभा | अवगाहन |
क्षेत्रज्ञ | आज्ञा | सभा |
कीर्ति | वंदनीयता | वाहन |
भाषा | आहार | सुख |
ये परमेष्ठियों के गुणस्वरूप हैं। ये गुण जिस प्रकार परमेष्ठियों में होते हैं उसी प्रकार दीक्षा लेने वाले शिष्य में भी यथासंभव रूप से होते हैं परन्तु शिष्य को अपने जाति आदि गुणों का सन्मान नहीं करके परमेष्ठी के ही जाति आदि गुणों का सन्मान करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से वह शिष्य अहंकार आदि दुर्गुणों से बचकर अपने आपका उत्थान शीघ्र ही कर सकता है।
१.जाति-स्वयं उत्तम जातिवाला होने पर भी अहंकार रहित होकर अरहंतदेव के चरणों की सेवा करनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने पर वह भव्य मुनि दूसरे जन्म में क्रम से दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार जातियों को प्राप्त हो जाता है।
इन्द्र के दिव्या जाति होती है, चक्रवर्तियों के विजयाश्रिता, अरहंत देव के परमा और मोक्ष को प्राप्त हुए जीवों के अपने आत्मा से उत्पन्न होने वाली स्वा जाति होती है।
२. मूर्ति-जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियों को प्राप्त करना चाहता है उसे अपना शरीर कृश करना चाहिए। जिस प्रकार जाति के चार भेद हैं उसी प्रकार मूर्ति के भी चार भेद होते हैं। दिव्या मूर्ति, विजयाश्रिता मूर्ति, परमामूर्ति और स्वामूर्ति। कोई आचार्य मूर्ति के तीन भेद ही मानते हैं वे सिद्धों में स्वामूर्ति नहीं मानते हैं क्योंकि मूर्ति का अर्थ शरीर से है।
३. लक्षण-शरीर में उत्तम-उत्तम तिल, व्यंजन आदि लक्षणों को धारण करता हुआ भी मुनि उन अपने लक्षणों को निर्देश करने के अयोग्य मानता हुआ जिनेन्द्रदेव के लक्षणों का चिंतवन करते हुए तपश्चरण करे। इसमें भी दिव्य लक्षण, विजयाश्रित लक्षण, परमलक्षण और स्वलक्षण ऐसे चार भेद हो जाते हैं।
४. सुन्दरता-जिनकी परम्परा अक्षुण्ण है। ऐसे दिव्य आदि सौंदर्यों की इच्छा करता हुआ मुनि अपने शरीर के सौंदर्य को मलिन करता हुआ कठिन तपश्चरण करे। इसके प्रभाव से ही उसे अगले भवों में दिव्य सौंदर्य, विजयाश्रित सौंदर्य, परमसौंदर्य और स्वसौंदर्य प्राप्त होगा।
५. प्रभा-मुनि अपने शरीर से उत्पन्न होने वाली प्रभा का त्याग कर शरीर को रज, पसीने आदि से मलिन रखते हुए अरहंत देव की प्रभा का ध्यान करे। इसी के प्रभाव से वह अगले भवों में दिव्य प्रभा, विजयाश्रित प्रभा, परम प्रभा और स्वप्रभा को प्राप्त कर लेता है।
६. मण्डल-जो मुनि अपने मणि और दीपक आदि के तेज को छोड़कर तेजोमय जिनेन्द्रदेव की आराधना करता है वह प्रभामण्डल से उज्ज्वल हो उठता है अर्थात् वह दिव्य प्रभा मण्डल, विजयाश्रित प्रभा मण्डल, परम प्रभा मण्डल और स्वप्रभा मण्डल को प्राप्त कर लेता है।
७. चक्र-जो पहले के अस्त्र, शस्त्र और वस्त्र आदि को छोड़कर अत्यंत शांत होता हुआ जिनेन्द्र भगवान की आराधना करता है वह मुनि धर्मचक्र का अधिपति होता है अर्थात् वह इन्द्र का दिव्य चक्र, चक्रवर्ती का विजयाश्रित सुदर्शन चक्र, अरहंत देव का परमचक्र धर्मचक्र और सिद्धों का स्वचक्र-स्वगुण समूह को प्राप्त कर लेता है।
८. अभिषेक-जो मुनि स्थान आदि संस्कार छोड़कर केवली जिनेन्द्र का आश्रय लेता है अर्थात् उनका चिंतवन करता है वह मेरु पर्वत पर उत्कृष्ट जन्माभिषेक को प्राप्त होता है। यहाँ पर भी इन्द्र का दिव्य अभिषेक, चक्रवर्ती का साम्राज्यपद पर विजयाश्रित अभिषेक और तीर्थंकर अरहंत का जन्म काल में जन्माभिषेक समझना चाहिए।
९. नाथता-जो मुनि अपने इस लोक संबंधी स्वामीपने को छोड़कर परम स्वामी श्री जिनेन्द्रदेव की सेवा करता है वह जगत् के जीवों द्वारा सेवनीय होने से सबके नाथपने को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जगत् के सब जीव उसकी सेवा करते हैं। यहाँ पर भी दिव्यनाथता, विजयाश्रितनाथता, परमनाथता और स्वनाथता घटित कर लेना चाहिए।
१०. सिंहासन-जो मुनि अपने योग्य अनेक आसनों के भेदों का त्याग कर दिगम्बर हो जाता है वह सिंहासन पर आरूढ़ होकर तीर्थ को प्रसिद्ध करने वाला तीर्थंकर होता है। यहाँ पर भी क्रम से दिव्य सिंहासन, विजयाश्रित सिंहासन, परमसिंहासन और स्वसिंहासन लगा लेना चाहिए।
११. उपधान-जो मुनि अपने तकिया आदि का अनादर करके परिग्रह रहित हो जाता है और केवल अपनी भुजा पर शिर को रखकर पृथ्वी के ऊँचे-नीचे प्रदेश पर शयन करता है वह महाअभ्युदय को प्राप्त कर जिन हो जाता है। उस समय सब लोग उसका आदर करते हैं और वह देवों के द्वारा बने हुए देदीप्यमान तकिया को प्राप्त होता है। यहाँ भी दिव्य उपधान, विजयाश्रित उपधान, परम उपधान और स्वउपधान समझना चाहिए।
१२. छत्र-जो मुनि शीतल छत्र-छाते आदि अपने समस्त परिग्रह का त्याग कर देता है वह स्वयं देदीप्यमान रत्नों के युक्त तीन छत्रों से सुशोभित होता है अर्थात् गृहस्थावस्था के धूप के निवारक छाता आदि परिग्रह त्यागी मुनि को क्रम से दिव्य छत्र, विजयाश्रित छत्र, परम छत्र और स्वछत्र प्राप्त होते हैं।
१३. चामर-जिसने अनेक प्रकार के पंखाओं के त्याग से तपश्चरण विधि का पालन किया है ऐसे मुनि को जिनेन्द्र पर्याय प्राप्त होने पर चौंसठ चामर ढुलाये जाते हैं। अर्थात् दिव्य चामर, विजयाश्रित चामर और परम चामर संज्ञक चंवर उन पर ढुरते हैं।
१४. घोषणा-जो मुनि नगाड़े तथा संगीत आदि की घोषणा का त्याग कर तपश्चरण करता है उसके विजय की सूचना स्वर्ग के दुंदुभियों के गंभीर शब्दों से घोषित की जाती है। यहाँ पर भी क्रम से दिव्य घोषणा, विजयाश्रित घोषणा और परमघोषणा समझना चाहिए।
१५. अशोकवृक्ष-चूँकि पहले उसने अपने उद्यान आदि की छाया का परित्याग कर तपश्चरण किया था इसलिए अब उसे अरहंत अवस्था में महाअशोक वृक्ष की प्राप्ति होती है। यहाँ पर भी इन्द्र के नंदन वन का अशोक दिव्य अशोक, चक्रवर्ती के उद्यान का विजयाश्रित अशोक और अरहंतदेव का परम अशोक वृक्ष समझना।
१६. निधि-जो अपना योग्य धन छोड़कर निर्ममत्व भाव को प्राप्त होता है समवसरण भूमि में निधियाँ दरवाजे पर खड़ी होकर उसकी सेवा करती हैं। यहाँ पर भी दिव्य निधि, विजयाश्रित निधि और परमनिधि की कल्पना की जा सकती है।
१७. गृहशोभा-जिसकी सब ओर से रक्षा की गई थी ऐसे अपने घर की शोभा को छोड़कर इसने तपश्चरण किया था इसीलिए श्रीमण्डप की शोभा अपने आप इसके सामने आ जाती है। यहाँ पर भी इन्द्र के विमान की शोभा दिव्य गृह शोभा है, चक्रवर्ती के भवन की शोभा विजयाश्रित गृहशोभा है और अरहंतदेव के समवसरण में श्रीमण्डप की शोभा परम गृहशोभा है, अंत में निर्वाणधाम की शोभा स्व-गृह शोभा कही जायेगी।
१८. अवगाहन-जो मुनि तप करने के लिए सघन वन में निवास करता है उसे तीनों जगत् के जीवों के लिए स्थान दे सकने वाली अवगाहन शक्ति प्राप्त हो जाती है अर्थात् उसका ऐसा समवसरण रचा जाता है जिसमें तीनों लोकों के समस्त जीव स्थान पा सकते हैं। यहाँ पर भी इन्द्रों का दिव्य अवगाहन, चक्रवर्ती का विजयाश्रित अवगाहन, अरहंत का परम अवगाहन और सिद्धों का स्व-अवगाहन घटित कर लेना चाहिए।
१९. क्षेत्रज्ञ-जो क्षेत्र, मकान आदि का त्याग कर शुद्ध आत्मा का आश्रय लेता है उसे तीनों जगत को अपने अधीन रखने वाला ऐश्वर्य प्राप्त होता है अर्थात् इन्द्र को दिव्य क्षेत्रज्ञ, चक्रवर्ती को विजयाश्रित क्षेत्रज्ञ, अरहंत को परमक्षेत्रज्ञ और सिद्धों को स्वक्षेत्रज्ञ प्राप्त होता है।
२०. आज्ञा-जो मुनि आज्ञा देने का अभिमान छोड़कर मौन धारण करता है उसकी उत्कृष्ट आज्ञा सुर-असुरगण अपने मस्तक से धारण करते हैं अर्थात् उसकी आज्ञा समस्त जीव मानते हैं। यहाँ भी दिव्य आज्ञा, विजयाश्रित आज्ञा, परम आज्ञा और अंत में स्व आज्ञा प्राप्त होती है।
२१. सभा-जो मुनि अपने इष्ट सेवक तथा भाई आदि की सभा का परित्याग कर देता है उसके अरहंत अवस्था में तीनों लोकों की सभा समवसरण सभा प्राप्त होती है। अर्थात् इंद्र की दिव्य सभा, चक्रवर्ती की विजयाश्रित सभा, अरहंत की परमसभा और सिद्धों की स्व सभा ये क्रम से उसे प्राप्त हो जाती हैं।
२२. कीर्ति-जो सब प्रकार की इच्छाओं का परित्याग कर अपने गुणों की प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चरण करता हुआ स्तुति-निंदा में समान भाव रखता है वह तीनों लोकों के इंद्रों द्वारा प्रशंसित होता है। यहाँ भी क्रम से दिव्य कीर्ति, विजयाश्रित कीर्ति, परमकीर्ति और स्वकीर्ति मिलती है।
२३. वंदनीयता-जिस मुनि ने वंदना करने योग्य अरहंतदेव की वंदना कर तपश्चरण किया था इसीलिए वह वंदना करने योग्य भी पूज्य पुरुषों द्वारा वंदना को प्राप्त हो जाता है। यहाँ भी दिव्य वंदनीयता, विजयाश्रित वंदनीयता, परम वंदनीयता और स्ववंदनीयता इन चारों की प्राप्ति उन वंदना करने वाले मुनि को प्राप्त हो जाती है।
२४. वाहन-जो पादत्राण-जूता और सवारी आदि का त्याग कर पैदल चलता हुआ तपश्चरण करता है। वह कमलों के मध्य में चरण रखने योग्य हो जाता है अर्थात् अरहंत अवस्था में देवगण उनके चरणों के नीचे कमलों की रचना करते हैं। यहाँ भी दिव्यवाहन, विजयाश्रित वाहन, परमवाहन और स्ववाहन घटित करना चाहिए।
२५. भाषा-चूँकि यह मुनि वचनगुप्ति को धारण कर अथवा हित-मित वचनरूप भाषा समिति का पालन कर तपश्चरण में स्थित हुआ था इसलिए ही इसे समस्त सभा को संतुष्ट करने वाली दिव्यध्वनि प्राप्त हुई है। यहाँ भी इंद्रों की दिव्यभाषा, चक्रवर्ती की विजयाश्रित भाषा, अरहंत की परमभाषा समझना तथा सिद्धों की भाषा नहीं है।
२६. आहार-इस मुनि ने पहले उपवास धारण कर अथवा नियमित आहार और पारणाएं कर तप को तपा था इसलिए ही इसे दिव्यतृप्ति, विजयतृप्ति, परमतृप्ति, अमृततृप्ति ये चारों ही तृप्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
२७. सुख-यह मुनि कामजनित सुख को छोड़कर चिरकाल तक तपश्चरण में स्थिर रहा है। इसलिए ही यह सुख स्वरूप होकर परमानंद को प्राप्त हुआ है। यहाँ पर भी क्रम से इसे दिव्यसुख, विजयसुख, परमसुख और स्वसुख प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार से ये सत्ताईस सूत्रपद कहे गये हैं। इनके होने पर मुनिचर्या आदर्शचर्या हो जाती है।
इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है? संक्षेप में इतना ही कह देना ठीक है कि मुनि संकल्परहित होकर जिस प्रकार की जिस-जिस वस्तु का परित्याग करता है उसका तपश्चरण उसके लिए वही-वही वस्तु उत्पन्न कर देता है। जो आगम में कही हुई जिनेन्द्रदेव की आज्ञा को प्रमाण मानता हुआ तपस्या धारण करता है अर्थात् दीक्षा ग्रहण करता है उसी के वास्तविक पारिव्राज्य होता है।
अनेक प्रकार के वचनों के जाल में निबद्ध तथा युक्ति से बाधित अन्य लोगों के पारिव्राज्य को छोड़कर इसी सर्वोत्कृष्ट पारिव्राज्य को ग्रहण करना चाहिए। यह तीसरा पारिव्राज्य परमस्थान होता है।
इन्द्रपद प्राप्त करना ‘सुरेन्द्रता’ नाम का चौथा ‘परमस्थान’ होता है। जिन्होंने पारिव्राज्य नामक परम स्थान को प्राप्तकर अंत में सल्लेखना विधि से शरीर को छोड़ा है।
उन्हीं को यह ‘सुरेन्द्रता’ परम स्थान प्राप्त होता है। कोई भी पुण्यशाली मुनि सन्यास विधि से मरणकर देवगति नामकर्म के उदय से स्वर्ग में इंद्र पर्याय को प्राप्त होता है। वहाँ उपपादगृह में उपपादशय्या से जन्म होता है। अंतर्मुहूर्त में ही छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाने से नवयौवन सम्पन्न दिव्य वैक्रियिक शरीर बन जाता है।
उस शरीर में नख, केश, रोम, चर्म, रुधिर, मांस, हड्डी एवं मल मूत्रादि धातुएं नहीं होती हैं। देव विमान में उत्पन्न होते ही बिना खोले किवाड़ खुल जाते हैं। उसी समय आनन्दभेरी का शब्द होने लगता है। उस भेदी के शब्द को सुनकर परिवार के देव-देवियाँ ‘जय, जय, नंद आदि शब्दों को बोलते हुए वहाँ आ जाते हैं।
किल्विष देव घंटा पटह आदि बजाने लगते हैं। गंधर्व देव नृत्य प्रारंभ कर देते हैं। सब देव-देवियों को देखकर नवीन जन्म को प्राप्त हुए इन्द्र कौतुक से सबको देखते हैं। तत्क्षण ही उन्हें अवधिज्ञान प्रकट हो जाता है।
तब वे अपने इन्द्र जन्म को जानकर प्रसन्नता से अपने परिकर की ओर देखते हैं। नियोग के अनुसार द्रह में स्नान करके वस्त्राभूषण धारणकर सर्वप्रथम जिनमंदिर में जाकर जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का १००८ कलशों से अभिषेक करते हैं, जल, चंदन आदि से पूजा करते हैं।
पुन: अपने स्थान पर आकर सिंहासन पर आरूढ़ होकर सभी देव-देवियों को संतुष्ट करते हुए अपने-अपने कार्यों में नियुक्त कर देते हैं।
सौधर्म इन्द्र के दश प्रकार के परिवार होते हैं-प्रतीन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, लोकपाल, आत्मरक्ष, पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक। एक इन्द्र के एक ही प्रतीन्द्र होते हैं।
वे आज्ञा ऐश्वर्य के सिवाय बाकी के सभी वैभव में इंद्र के सदृश होते हैं। सौधर्म इन्द्र के ८४ हजार सामानिक देव होते हैं। तेंतीस त्रायस्त्रिंश होते हैं।
सोम, यम, वरुण और कुबेर नाम के ४ लोकपाल होते हैं। तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्ष देव होते हैं। पारिषद देवों में अभ्यंतर पारिषद की संख्या बारह हजार, मध्यम पारिषद की चौदह हजार और बाह्य पारिषद की सोलह हजार है। अनीक जाति के देवों में सेनाओं के भेद से ७ भेद होते हैं।
वृषभ, अश्व, रथ, गज, पदाति, गंधर्व और नर्तक ये ७ सेनाएं हैं। इन सातों में से प्रत्येक सेना सात-सात कक्षाओं से युक्त रहती है। उनमें से प्रथम सेना का प्रमाण अपने सामानिक देवों के बराबर है। इससे आगे सप्तम सेना पर्यंत उससे दूना-दूना है। सौधर्म इन्द्र की बैल की प्रथम सेना की प्रथम कक्षा में चौरासी हजार बैल हैं।
इससे आगे सात कक्षाओं तक इस जल सेना का प्रमाण एक करोड़ छह लाख अड़सठ हजार है। अश्व, रथ आदि सेनाएं भी इतने-इतने मात्र हैंं, सौधर्म इन्द्र के समस्त अनीकों की संख्या सात करोड़ छ्यालीस लाख, छियत्तर हजार प्रमाण है। इन सातों अनीकों में जो अधिपति देव हैं उनके नाम क्रम से दामयष्टि, हरिदाम, मातलि, ऐरावत, वायु, यशस्क और नीलांजना है।
सौधर्म इन्द्र के आभियोग्य, प्रकीर्णक और किल्विषक देवों का प्रमाण असंख्यात है। सौधर्म इन्द्र के १ लाख ६० हजार देवियाँ हैं और उनमें आठ महादेवियाँ हैं। आठ महादेवियों में प्रथम देवी का नाम ‘शची’ है। अनुपम लावण्य वाली इन महादेवियों के १६-१६ हजार परिवार देवियाँ हैं तथा इस इन्द्र के ३२ हजार वल्लभिका देवियाँ हैं।
ऐसे कुल मिलाकर ८²१६०००+३२०००=१,६०,००० हो जाती हैं। ८ महादेवियाँ और ३२००० बल्लभाएं ये प्रत्येक ही १६-१६ हजार विक्रिया करने में समर्थ होती हैं। यह सौधर्म इन्द्र बत्तीस लाख विमानों का अधिपति है। ऐसे ही ईशानेन्द्र के २८ लाख आदि विमान माने गये हैं।
सौधर्म-ईशान इन दो स्वर्गों के इन्द्रक विमान ३१ हैं।
h31
उनके नाम ऋतु, विमल, चन्द्र, वल्गु, वीर, अरुण, नंंदन, नलिन, कंचन, रोहित, चंच, मरुत, ऋद्धीश, वैडूर्य, रुचक, रुचिर, अंक, स्फटिक, तपनीय, मेघ, अभ्र, हारिद्र, पद्म, लोहित, वज्र, नंद्यावर्त, प्रभाकर, पृष्ठक, गज, मित्र और प्रभा। ये सभी इन्द्रक एक के ऊपर एक होने से भवनों के खन के समान हैं। एक-एक इन्द्रक का आपस में अंतराल असंख्यात योजन प्रमाण है।
सब इंद्रक विमान की चारों दिशाओं में श्रेणीबद्ध और विदिशाओं में प्रकीर्णक विमान हैं। सभी इंद्रक और श्रेणीबद्ध विमान गोल हैंं। दिव्य रत्नों से निर्मित हैं और ध्वजा तोरणों से सुशोभित हैं। इनके अंतराल में विदिशाओं में पुष्पों के सदृश रत्नमय उत्तम प्रकीर्णक विमान हैं।
इस सौधर्म स्वर्ग में ३१ इन्द्रक, चार हजार तीन सौ इकहत्तर श्रेणीबद्ध और इकतीस लाख, पंचानवे हजार, पाँच सौ अट्ठानवे प्रकीर्णक विमान हैं, ये सब मिलाकर ३१+४३७१+३१९५५९८=३२००००० हो जाते हैं।
सभी इंद्रक विमान संख्यात योजन प्रमाण वाले हैं। जिनमें से पहला ऋतु नाम का इंद्रक विमान ४५ लाख योजन प्रमाण वाला है। सभी श्रेणीबद्ध विमान असंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं।
प्रकीर्णक विमानों में कुछ संख्यात योजन वाले हैं कुछ असंख्यात योजन वाले हैं। ये सभी विमान सुन्दर-सुन्दर तटवेदी, गोपुरद्वार, तोरण और पताकाओं से सुशोभित हैं। ३१ इंद्रकों में जो अंतिम ‘प्रभा’ नाम का इंद्रक है, उसके दक्षिण श्रेणी में जो अट्ठारहवाँ श्रेणीबद्ध विमान है, उसमें सौधर्म इन्द्र रहता है।
वहाँ पर ८४ हजार योजन विस्तृत एक नगर बना हुआ है, जिसका नाम है सौधर्म इन्द्र नगर। यह नगर सुवर्णमय परकोटे से वेष्ठित है। परकोटे के अग्रभाग पर कहीं पर पंक्तिबद्ध ध्वजाएं हैं और कहीं पर मयूराकार यंत्र शोभायमान हो रहे हैं।
इस नगर में सौधर्म इन्द्र का प्रासाद (भवन) है जो कि १२० योजन विस्तार वाला है और ६०० योजन ऊँचा है। इस भवन में सौधर्म इन्द्र अपनी १ लाख ६० हजार इन्द्राणियों सहित निरन्तर सुख समुद्र में मग्न रहता है। इन्द्र के नगर के बाहर पाँच परकोटे माने गये हैं। उन्हें वेदी भी कहते हैं।
इन पाँचों परकोटों के बीच में चार अंतराल हो जाते हैं। प्रथम अंतराल १३ लाख योजन का है, दूसरा ६३ लाख योजन का है, तीसरा ६४ लाख योजन का है और चौथा ८४ लाख योजन वाला है। प्रथम अंतराल में सौधर्म इन्द्र के आत्म रक्षक देव अपने-अपने परिवार सहित रहते हैं।
दूसरे में पारिषद जाति के देव, तीसरे में सामानिक देव और चौथे में आरोहक, अनीक, आभियोग्य, किल्विषक, प्रकीर्णक तथा त्रायस्त्रिंश देव सपरिवार रहते हैं। इंद्र भवन के चारों ओर इन्द्राणी और वल्लभाओं के भवन बने हुए हैं। इस पाँचवें परकोटे के आगे ‘इन्द्रपुर’ की चारों ही दिशाओं में दिव्य वनखण्ड हैं, इनको ही ‘नंदनवन’ कहते हैं।
इनमें से पूर्व दिशा में अशोक वन है, दक्षिण में सप्तच्छदवन हैं, पश्चिम में चंपक वन हैं और उत्तर में आम्रवन हैं। इन चारों दिशाओं के वनों में प्रत्येक के मध्य में एक-एक चैत्यवृक्ष हैं। ये जंबूवृक्ष के समान प्रमाण वाले पृथ्वीकायिक हैं। इन एक-एक चैत्यवृक्षों के चारों तरफ ‘पल्यंकासन’ से जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
इस प्रकार ये वनखण्ड चैत्यवृक्षों से सुशोभित, पुष्करिणी, वापी, मणिमय देव भवनों से संयुक्त, फल पुष्पादि से परिपूर्ण होकर सबको आनंद देने वाले हैं अत: ‘नंदनवन’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
सौधर्म इन्द्र नगर के मध्य में सौधर्म इन्द्र का प्रासाद है। इन्द्र के गृहों के आगे ३६ योजन ऊँचे १ योजन मोटे ऐसे स्तंभ हैं जिन्हें मानस्तंभ भी कहते हैं। इनमें १२ धाराएं हैं अर्थात् ये स्तंभ बारह कोण संयुक्त गोल हैं।
१ योजन मोटे-गोल की परिधि बारह कोश होने से १-१ कोश की धाराएं कोण बने हुए हैं। इन मानस्तंभों में उत्तम रत्नमय करण्डक (पिटारे) हैं। प्रत्येक करण्डक ५०० धनुष विस्तृत और एक कोश लंबे हैं। रत्नमय सींकों के समूहों के लटकते हुए ये सब संख्यातों करण्डक शक्रादि से पूजय अनादि निधन महारमणीय हैं।
इन सौधर्म इन्द्र के मान स्तंभों के करण्डकों से भरतक्षेत्र के तीर्थंकर के लिए दिव्य आभरण, भूषण आदि लाये जाते हैं। ऐसे ही ईशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में भी मानस्तंभ हैं जिनसे इन्द्र क्रमश: ऐरावत, पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह के तीर्थंकरों के लिए दिव्य वस्त्रादि लाते हैं।
इन इन्द्र के भवनों के आगे न्यग्रोध वृक्ष होते हैं जो कि जम्बूवृक्ष के समान पृथ्वीकायिक हैं। इनके मूल में प्रत्येक दिशा में जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं जिनके चरणों में सतत इन्द्रादिगण नमस्कार करते रहते हैं। उस मानस्तंभ के पास ईशान दिशा में ८ योजन ऊँचा, लंबा और चौड़ा उपपाद गृह है उसमें दो रत्नमयी उपपाद शय्या है।
यहीं पर इन्द्र का जन्मस्थान है। ईशान दिशा में ही उपपादगृह के समीप जिनमंदिर स्थित हैं जो कि अनेक शिखरों से युक्त हैं। इस मंदिर में रत्नमयी १०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
इन्द्र भवन से ईशान दिशा में ३०० कोश ऊँची, ४०० कोश लम्बी, २०० कोश विस्तृत ‘सुधर्मा’ नामक सभा है। इस सभाभवन में इन्द्र के सिंहासन के आगे ८ पट्टदेवियों के ८ आसन हैं, इन महादेवियों के आसन के बाहर पूर्व आदि दिशा में क्रम से सोम, यम, वरुण और कुबेर इन चार लोकपालों के ४ आसन हैं।
इन्द्रासन के आग्नेय, दक्षिण और नैऋत्य दिशा में अभ्यंतर, मध्यम और बाह्य पारिषद देवों के क्रम से १२ हजार, १४ हजार और १६ हजार आसन हैं। नैऋत्य दिशा में ही त्रायस्त्रिंश देवों के ३३ आसन हैं। सेनानायकों के ७ आसन पश्चिम दिशा में हैं। वायव्य और ईशान दिशा में क्रम से ४२-४२ हजार आसन हैं।
चारों ही दिशाओं में अंगरक्षक के भद्रासन हैं। सौधर्मेन्द्र के पूर्वादि दिशाओं में ८४ हजार आसन हैं। इस प्रकार सुधर्मा सभा में आसनों की व्यवस्था है। सौधर्म इन्द्र का ‘बालुक’ नामक यान-विमान होता है। यह १ लाख योजन लम्बा चौड़ा है। इसमें आसन, शय्या, घूपघट, चामर आदि विद्यमान हैं। ध्वजाएं फहराती रहती हैं।
सुन्दर द्वार हैं और वज्रमय कपाट लगे हुए हैं। सौधर्म इन्द्र के आभियोग्य देवों का अधिपति ‘बालक’ नामक देव है। यह देव विक्रिया से १ लाख योजन प्रमाण हाथी का रूप बना लेता है। इस हाथी के बत्तीस मुख होते हैं। एक-एक मुख में चार-चार दांत होते हैं। एक-एक दांत पर निर्मल जल से युक्त १-१ सरोवर होता है।
एक-एक सरोवर में एक-एक कमल बने रहते हैं। इन कमल वनों में ३२-३२ महाकमल होते हैं। विक्रिया से बनाये गये ये कमल सुवर्णमय हैं। एक-एक कमल पर १-१ नाट्यशाला होती हैं। उस १-१ नाट्यशाला में ३२-३२ अप्सराएं नृत्य करती रहती हैं।
सौधर्म इन्द्र भगवान के जन्मोत्सव आदि अवसर में इसी ऐरावत हाथी पर बैठकर आता है। लोकपालों में से प्रत्येक के विमानों की संख्या ६ लाख, छ्यासठ हजार छ: सौ छ्यासठ है। प्रत्येक लोकपाल के तीन करोड़ पचास लाख देवांगनाएं होती हैं।
इन्द्र-इन्द्राणी अथवा देवगण मूल शरीर से कहीं भी नहीं जाते-आते हैं। तीर्थंकरों के कल्याणकों में अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करने हेतु या अन्यत्र कहीं भी क्रीड़ा हेतु जाने में ये इन्द्रादि देव विक्रिया से निर्मित शरीर से ही गमनागमन करते हैं, मूल शरीर से नहीं। ये देवगण अंतर्मुहूर्त में शरीर की नई-नई विक्रिया करते रहते हैं।
इसमें इन्हें कष्ट का अनुभव नहीं होता है प्रत्युत् आनंद का अनुभव होता है। सौधर्म स्वर्ग में उत्कृष्ट आयु २ सागर प्रमाण है। जघन्य आयु १ पल्य है। इनमें देवियों की जघन्य आयु १ पल्य से कुछ अधिक और उत्कृष्ट आयु ५ पल्य है। सौधर्म स्वर्ग में शरीर की ऊँचाई ७ हाथ प्रमाण है। जिनदेवो की आयु २ सागर है।
वे २००० वर्षों के बीत जाने पर दिव्य अमृतमय मानसिक आहार ग्रहण करते हैं और ये देव दो पक्ष बाद उच्छ्वास ग्रहण करते हैं। जिनकी आयु पल्य प्रमाण है वे पाँच दिन में आहार ग्रहण करते हैं। सौधर्म स्वर्ग के देव-देवियाँ परस्पर में शरीर से कामसेवन करते हैं।
ये देव पहले नरक तक विक्रिया करते हैं। इनका अवधिज्ञान भी पहले नरक तक ही जानने में समर्थ है। जब एक इन्द्र मरण को प्राप्त होता है तो उसी स्थान पर दूसरे इन्द्र का जन्म हो जाता है। कदाचित् इन्द्र के मरने के बाद दूसरे इन्द्र के जन्म लेने में अधिक से अधिक अंतर पड़ जावे तो छह मास का पड़ सकता है।
इसके बाद नियम से दूसरा इन्द्र जन्म ले लेता है। देवों में अकालमृत्यु नहीं होती है। अत: वे अपनी आयु पूरी करके ही मरण को प्राप्त होते हैं। ‘सुरेन्द्रता’ नाम के परमस्थान में सौधर्म इन्द्र का पद प्रमुख है क्योंकि तीर्थंकरों के कल्याणकों में प्रमुखता सौधर्म इन्द्र की ही रहती है। वैसे ईशान इन्द्र आदि इन्द्रों के पद प्राप्त करना भी इस परमस्थान में गर्भित है। सौधर्म इन्द्र नियम से एक भवावतारी ही होता है। ईशान इंद्र आदि उत्तर इंद्रों के लिए कोई नियम नहीं है।
यहाँ इन्द्र पद सम्यग्दर्शन सहित घोर तपश्चरण करने वाले महामुनियों को ही प्राप्त होता है। अत: सप्त परमस्थानों में पारिव्राज्य परमस्थान के बाद में इस परमस्थान का नाम आता है। जो भव्यजीव इस चतुर्थ परमस्थान को प्राप्त कर लेता है वह क्रम से साम्राज्य, आर्हन्त्य और निर्वाण परमस्थान का अधिकारी हो जाता है।
जिसमें चक्ररत्न के साथ-साथ निधियों और रत्नों से उत्पन्न हुए भोगोपभोग रूपी सम्प्रदायों की परम्परा प्राप्त होती है ऐसे चक्रवर्ती के बड़े भारी राज्य को प्राप्त करना ‘साम्राज्य’ नाम का पांचवां परमस्थान कहलाता है। इस पद के भोक्ता छह खण्ड पृथ्वी पर एक छत्र शासन करने वाले चक्रवर्ती कहलाते हैं।
अब प्रश्न यह होता है कि इस चक्रवर्ती पद में परिवार और विभूति कितनी होती है? चक्रवर्ती के शरीर में वज्र की हड्डियों के बंधन और वज्र के ही वेष्टन रहते हैं और वह वज्रमयकीलियों से कीलित रहता है। इसलिए अभेद्य रहता है अर्थात् चक्रवर्ती को वज्रवृषभनाराच संहनन रहता है।
उनके शरीर का आहार और अंगोपांग बहुत ही सुन्दर मनोहर रहते हैं अर्थात् उनके समचतुरस्र संस्थान रहता है। छह खण्ड के सभी राजाओं से अधिक उनके शरीर में बल रहता है। उनके सुदर्शन नामक चक्ररत्न के प्रभाव से छह खण्ड के सभी राजा उनकी आज्ञा को शिर से धारण करते हैं।
बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनके चरणों की सेवा करते हैं। अच्छी-अच्छी रचना वाले बत्तीस हजार देश होते हैं जिससे चक्रवर्ती का लम्बा चौड़ा क्षेत्र बहुत ही अच्छा मालूम पड़ता है। ऐरावत हाथी के समान चौरासी लाख हाथी होते हैं। सूर्य की चाल के साथ स्पर्धा करने वाले, दिव्य रत्नों से निर्मित चौरासी लाख ही रथ होते हैं।
पृथ्वी, जल तथा आकाश में समान रूप से चलने में समर्थ ऐसे अट्ठारह करोड़ घोड़े रहते हैं। योद्धाओं के मर्दन में प्रसिद्ध ऐसे चौरासी करोड़ पदाति-पैदल चलने वाले सिपाही रहते हैं। एक चक्रवर्ती के छ्यानवे हजार रानियाँ होती हैं जिनमें बत्तीस हजार कन्याएं आर्यखण्ड की रहती हैं, विद्याधरों की बत्तीस हजार कन्याएं होती हैं एवं म्लेच्छ खण्ड के राजाओं की कन्याएं बत्तीस हजार होती हैं ऐसे कुल छ्यानवे हजार रानियाँ होती हैं।
इन रानियों के साथ रति क्रीड़ा में चक्रवर्ती विक्रिया के प्रभाव से एक साथ ही एक कम ९६ हजार रूप बना लेते हैं। बत्तीस हजार नाट्यशालाएं होती हैं। इन्द्र के नगर के समान बहत्तर हजार नगर होते हैं। नंदनवन सदृश बगीचों से रम्य छ्यानवे करोड़ गांव होते हैं। निन्यानवे हजार द्रोणमुख अर्थात् बंदरगाह होते हैं।
अड़तालीस हजार पत्तन होते हैं। कोट, परकोटे, अटारियां और परिखाओं से शोभायमान सोलह हजार खेट होते हैं। कुभोगभूमिया मनुष्यों से व्याप्त छप्पन अंतरद्वीप होते हैं जिनके चारों ओर परिखा बनी रहती हैै ऐसे चौदह हजार संवाह-पहाड़ों पर बसने वाले नगर होते हैं।
चावलों को पकाने वाले ऐसे पाकशालाओं में एक करोड़ हण्डे होते हैं। जिनके साथ बीज बोने की नाली लगी हुई है ऐसे एक लाख करोड़ हल होते हैं। दही मथने के शब्दों से पथिकों को आकर्षित करने वाली ऐसे तीन करोड़ तज अर्थात् गोशालाएं रहती हैं। जहाँ रत्नों के व्यापार होते हैं ऐसे सात सौ कुक्षिवास होते हैं।
निर्जन प्रदेश और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ी विभागों से विभक्त ऐसे अट्ठाईस हजार सघन वन होते हैं। जिनके चारों ओर रत्नों की खानें विद्यमान हैं ऐसे अट्ठारह हजार म्लेच्छ राजा होते हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती के काल, महाकाल, नैस्सप्र्य, पांडुक, पद्म, माणव, पिंग, शंख और सर्वरत्न इन नामो से प्रसिद्ध ऐसी नव निधियाँ होती हैं।
जिनसे चक्रवर्ती घर की आजीविका से बिल्कुल निश्चित रहते हैं। ‘काल’ नाम की निधि से प्रतिदिन लौकिक शास्त्र, व्याकरण आदि की उत्पत्ति होती रहती है तथा यही निधि वीणा, बांसुरी आदि इन्द्रियों के मनोज्ञ विषय भी प्रदान करती है। महाकाल नाम की निधि असि, मषि आदि छह कर्मों के साधनभूत द्रव्य तथा सम्प्रदायों को उत्पन्न करती है। नैसर्प निधि से शय्या, आसन, मकान आदि मिलते रहते हैं।
पाण्डुक निधि से धान्यों की उत्पत्ति होती है तथा छहों प्रकार के रस भी मिलते रहते है। पद्मनिधि रेशमी, सूती आदि सब तरह के वस्त्रों को देती रहती है। पिंगल निधि से दिव्य आभरण मिलते रहते हैं।
माणव निधि से नीतिशास्त्र तथा अनेक प्रकार के शस्त्रों की उत्पत्ति होती है। शंख निधि से सुवर्ण उत्पन्न होता है और सर्वरत्न नाम की निधि से नील, मरकत, पद्मराग आदि नाना मणिरत्नों की उत्पत्ति होती रहती है।
चक्रवर्ती के चौदह रत्न होते हैं जिनमें सात अजीव और सात सजीव होते हैं। चक्र, छत्र, दण्ड, असि, मणि, चर्म और काकिणी ये सात अजीव रत्न हैं एवं सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, स्थपति (सिलावट) और पुरोहित ये सात सजीव रत्न हैं। चक्र, दण्ड, असि और छत्र ये चार रत्न आयुधशाला में उत्पन्न होते हैं।
मणि, चर्म तथा काकिणी ये तीन रत्न श्रीगृह में प्रगट होते हैं। स्त्री, हाथी और घोड़ा इन तीन की उत्पत्ति विजयार्ध शैल पर होती है और अन्य रत्न निधियों के साथ-साथ अयोध्या में ही उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती सम्राट स्त्रीरत्न के साथ-साथ छहों ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रियों के योग्य भोगों को भोगता है।
चक्रवर्ती के सुभद्रा नाम का स्त्री रत्न होता है। चक्रवर्ती के दशांग भोग माने गये हैं-रत्न सहित नौ निधियाँ, रानियाँ, नगर, शय्या, आसन, सेना, नाट्यशाला, भाजन, भोजन और वाहन ये दश भोग के साधन होते हैं। चक्रवर्ती के रत्न निधि और स्वयं की रक्षा करने में तत्पर ऐसे सोलह हजार गणबद्ध देव होते हैंं जो हाथ में तलवार धारण कर रक्षा करते हैं। चक्रवर्ती के घर को घेरे हुए ‘क्षितिसार’ नाम का कोट होता है।
देदीप्यमान रत्नों के तोरणों से युक्त ‘सर्वतोभद्र’ नाम का गोपुर रहता है। उनकी बड़ी भारी छावनी के ठहरने का स्थान ‘नंद्यावर्त’ नाम का है। सब ऋतुओं में सुख देने वाला ऐसा ‘वैजयन्त’ नाम का महल होता है। बहुमूल्य रत्नों से जड़ी हुई, दिक्स्वास्तिका नाम की सभाभूमि होती है। टहलते समय हाथ में लेने के लिए मणियों की बनी हुई ‘सुविधि’ नाम की छड़ी रहती है।
सब दिशाएं देखने के लिए ‘गिरिकूटक’ नाम का राजमहल होता है। चक्रवर्ती के नृत्य देखने के लिए ‘वर्धमानक’ नाम की नृत्यशाला होती है। ग्रीष्म के संताप दूर करने के लिए बड़ा भारी ‘धारागृह’ रहता है।
वर्षा ऋतु में निवास करने के लिए ‘गृहकूटक’ नाम का महल रहता है। सफेद चूना से पुता हुआ ‘पुष्करावर्त’ नाम का खास महल होता है। ‘कुबेरकांत’ नाम का भण्डार गृह रहता है जो कभी भी खाली नहीं होता है।
‘वसुधारक’ नाम का बड़ा भारी अटूट कोठार रहता है और ‘जीमूत’ नाम का बहुत बड़ा स्नानगृह होता है।
‘अवतंसिका’ नाम की सुन्दर माला होती है। ‘देवरम्या’ नाम की सुन्दर चांदनी होती है, ‘सिंहवाहिनी’ नाम की शय्या रहती है तथा ‘अनुत्तर’ नाम का सिंहासन होता है। विजयार्ध कुमार के द्वारा प्रदत्त ‘अनुपमान’ नाम के चंवर होते हैं। बहुमूल्य रत्नों से निर्मित ‘सूर्यप्रभ’ नाम का देदीप्यमान छत्र होता है।
विद्युत् की दीप्ति को तिरस्कृत करने वाले ‘विद्युत्प्रभ’ नाम के दो सुन्दर कुण्डल होते हैं। ‘विषमोचिका’ नाम की खड़ाऊँ होती हैं जो कि चक्रवर्ती के अतिरिक्त दूसरे के पैर का स्पर्श होते ही विष छोड़ने लगती है।
‘अभेद्य’ नाम का कवच रहता है। दिव्य शस्त्रों से सुसज्जित ‘अजितंजय’ नाम का रथ होता है। जिसकी प्रत्यञ्चा के आघात से समस्त संसार कांप उठे ऐसा ‘वज्रकांड’ नाम का धनुष होता है जो कभी व्यर्थ नहीं जाते ऐसे ‘अमोघ’ नाम के बाण होते हैं। वज्र से निर्मित ऐसी ‘वज्रतुण्डा’ नामक शक्ति (शस्त्र) होती है। ‘सिंहाटक’ नाम का भाला होता है।
रत्नों से जिसकी मूठ बनी हुई है ऐसी ‘लोहवाहिनी’ नाम की छुरी रहती है। वज्र के समान ‘मनोवेग’ नाम का कणप (अस्त्रविशेष) रहता है। ‘सौनन्दक’ नाम की उत्तम तलवार होती है। भूतों के मुखों से चिन्हित ‘भूतमुख’ नाम का खेट (अस्त्रविशेष) रहता है।
‘सुदर्शन’ नाम का चक्ररत्न होता है, ‘चण्डवेग’ नाम का दण्ड रत्न होता है। ‘वज्रमय’ ‘चर्मरत्न’ रहता है जिसके बल से चक्रवर्ती की सेना जल के उपद्रव से बच जाती है। ‘चूड़ामणि’ नाम का चिंतामणि रत्न रहता है। ‘चिंताजननी’ नाम का काकिणी रत्न होता है जो विजयार्ध पर्वत की गुफाओं के अंधकार को दूर करता है।
‘अयोध्य’ नाम का सेनापति रत्न होता है। समस्त धार्मिक क्रियाओं में कुशल ‘बुद्धिसागर’ नाम का पुरोहित रत्न रहता है। ‘कामवृष्टि’ नाम का गृहपति रत्न होता है।
राजभवन आदि के निर्माण में कुशल ‘भद्रमुख’ नाम का शिलावट रत्न-इंजीनियर रहता है। ‘विजय-पर्वत’ नाम का सफेद हाथी होता है। विजयार्ध पर्वत की गुफा के मध्य भाग को लीला मात्र में उल्लंघन करने वाला ‘पवनञ्जय’ नाम का घोड़ा होता है तथा ‘सुभद्रा’ नाम का स्त्रीरत्न होता है।
चक्रवर्ती के इन दिव्य रत्नों की देवगण सदा रक्षा किया करते हैं।
चकव्रर्ती के बारह योजन तक गंभीर आवाज पहुँचाने वाली ऐसी ‘आनन्ददायिनी’ नाम की बारह भेरियां होती हैं। इसी प्रकार के ‘विजय घोष नाम के बारह पटह नगाड़े होते हैं। ‘गंभीरावर्त’ नाम के चौबीस शंख होते हैं। वायु के झकोरे से उड़ती हुई और चक्रवर्ती के यश को फैलाती हुई अड़तालीस करोड़ ‘पताकाएं’ होती हैं। चक्रवर्ती को हाथ में पहनने के लिए ‘वीरांगद’ नाम के रत्ननिर्मित उत्तम कड़े होते हैं।
‘महाकल्याण’ नाम का दिव्य भोजन होता है जो कि उनको अतिशय तृप्ति और पुष्टि करता है। जिसे अन्य कोई नहीं पचा सकते ऐसे गरिष्ठ, स्वादिष्ट और सुगंधित ‘अमृतगर्भ’ नाम के मोदक आदि भक्ष्य पदार्थ होते हैं।
‘अमृतकल्प’ नाम के खाद्य पदार्थ एवं ‘अमृत’ नाम के दिव्य पानक-पीने योग्य पदार्थ होते हैं। चक्रवर्ती के ये सब भोगोपभोग के साधन उसके पुण्यरूप कल्पवृक्ष के ही फलरूप से फलते हैं।
उन्हें अन्य कोई नहीं भोग सकता है और वे संसार में अपनी बराबरी नहीं रखते हैं। चक्रवर्ती के बंधु, कुल-परिवार का प्रमाण साढ़े तीन करोड़ होता है और संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियाँ होती हैं।
ये सब चक्रवर्ती का वैभव उन्हें ही प्राप्त होता है जो ‘सज्जाति, सद्गर्हस्थ, पारिव्राज्य और सुरेन्द्रता नाम के चार परम स्थानों को प्राप्त कर चुके हैं।
जो मुनिव्रत धारण कर सम्यक्त्व सहित घोर तपश्चरण करते हैं वे ही चक्रवर्ती के साम्राज्य रूप इस पाँचवें परम स्थान के स्वामी होते हैं।
अर्हंत परमेष्ठी का भाव अथवा कर्मरूप जो उत्कृष्ट क्रिया है उसे आर्हन्त्य क्रिया कहते हैं। इस क्रिया में स्वर्गावतार आदि महाकल्याणरूप संपदाओं की प्राप्ति होती है।
स्वर्ग में अवतीर्ण हुए तीर्थंकर महापुरुष को जो पंचकल्याणक रूप संपदाओं का मिलना है उसे ही आर्हन्त्य नाम का छठा परमस्थान जानना चाहिए।
जिन्होंने सोलहकारण भावनाओं को भाते हुए तीर्थंकर के पादमूल में अथवा सामान्य केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में तीर्थंकर नामक नामकर्म की प्रकृति का बंध कर लिया है, ऐसे महामुनि स्वर्ग में जाकर इन्द्र-अहमिन्द्र आदि उत्तम पद को प्र्राप्त कर लेते हैं।
वहाँ के सुखों का अनुभव करते हुए जब उनकी आयु छह महीने की शेष रह जाती है तब यहाँ मत्र्यलोक में जिस क्षत्रिय महाराज के यहाँ उनका जन्म होने को होता है, इन्द्र की आज्ञा से कुबेर उस नगरी को स्वर्गपुरी के समान सुन्दर सजाकर माता के आंगन में प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ प्रमाण रत्नों की वर्षा करना शुरू कर देता है।
तीर्थंकर शिशु के गर्भ में आने के पूर्व ही माता वृषभ आदि उत्तम-उत्तम सोलह स्वप्नों को देखती हैं। श्री, ह्री आदि देवियाँ इन्द्र की आज्ञा से माता की सेवा में तत्पर हो जाती हैं।
जब वह स्वर्ग का इन्द्र अपनी आयु पूर्णकर माता के गर्भ में अवतीर्ण होता है तब इन्द्रादि देवगण आसन के कंपायमान होने से भगवान का गर्भावतार जानकर मत्र्यलोक में आकर माता-पिता की पूजा कर गर्भकल्याणक उत्सव मनाते हैं। नव महीने बाद तीर्थंकर का जन्म होते ही इन्द्र महावैभव सहित यहाँ आकर बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से महाभिषेक आदि क्रिया सम्पन्न करके जन्मकल्याणक महोत्सव मनाते हैं।
तीर्थंकर महापुरुष को राज्य अनुशासन करने के बाद अथवा किसी को कुमारावस्था में ही वैराग्य हो जाने से जब वे दीक्षा के लिए तैयार होते हैं, तब इन्द्रों द्वारा प्रभु का दीक्षा कल्याणक उत्सव मनाया जाता है। दीक्षा लेकर तपश्चरण करते हुए जब केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब इंद्र की आज्ञा से समवसरण की रचना की जाती है। उस समय इन्द्रगण बड़ी भक्ति से आकर ज्ञानकल्याणक महोत्सव मनाते हैं।
इसी समय तीर्थंकर प्रकृति उदय में आती है और यह समवसरण आदि वैभव आर्हन्त्य वैभव कहलाता है। मुख्यरूप से यही आर्हन्त्य अवस्था छठा परमस्थान है। पुन: बहुत काल तक श्रीविहार करते हुए भगवान असंख्य प्राणियों को धर्मामृत पान कराते हैं। पुन: आयु के अंत में निर्वाणधाम को प्राप्त कर लेते हैं।
उस समय भी इन्द्रों द्वारा निर्वाणकल्याणक उत्सव किया जाता है। इस प्रकार से गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक कहलाते हैं। केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही तीर्थंकर का परमौदारिक शरीर पृथ्वी से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है। उस समय तीनों लोकों में अतिशय क्षोभ उत्पन्न होता है और सौधर्म आदि इन्द्रों के आसन कंपायमान हो जाते हैं।
भवनवासी देवों के यहाँ अपने आप शंख का नाद होने लगता है, व्यंतरवासी देवों के यहाँ भेरी बजने लगती है, ज्योतिषी देवों के यहाँ घण्टा बजने लगता है।
इन्द्रों के मुकुट के अग्रभाग स्वयमेव झुक जाते हैं और कल्पवृक्षों से पुष्पों की वर्षा होने लगती है। इन सभी कारणों से इन्द्र और देवगण तीर्थंकर के केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर भक्तियुक्त होते हुए सात पैर आगे बढ़कर भगवान को प्रणाम करते हैं।
जो अहमिन्द्र देव हैं, वे भी आसनों के कंपित होने से केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर सात पैर आगे बढ़कर वहीं से परोक्ष में जिनेन्द्रदेव की वंदना कर अपना जीवन सफल कर लेते हैं।
सोलह स्वर्ग तक के देव-देवियाँ तो भगवान की वंदना के लिए चले जाते हैं। उसी क्षण सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विक्रिया के द्वारा तीर्थंकर के समवसरण (धर्मसभा) को विचित्ररूप से रचता है।
उस समवसरण का अनुपम संपूर्ण स्वरूप वर्णन करने के लिए साक्षात् सरस्वती भी समर्थ नहीं है। यहाँ पर मैंने लेशमात्र वर्णन किया है। इस समवसरण के वर्णन में यहाँ ३१ विषय बता रही हूँ-
सामान्य भूमि, सोपान, विन्यास, वीथी, धूलिशाल, चैत्यप्रासाद भूमि, नृत्यशाला, मानस्तंभ, वेदी, खातिका, वेदी, लताभूमि, साल, उपवन भूमि, नृत्यशाला, वेदी, ध्वजभूमि, साल, कल्पभूमि, नृत्यशाला, वेदी, भवनभूमि, स्तूप, साल, श्रीमण्डप, ऋषि आदि गणों का विन्यास, वेदी, प्रथम पीठ, द्वितीय पीठ, तृतीय पीठ और गंधकुटी।
१. सामान्यभूमि- समवसरण की संपूर्ण सामान्य भूमि सूर्यमंडल के सदृश गोल, इन्द्र नीलमणि की होती है। यह सामान्यतया बारह योजन प्रमाण होती है। विदेह क्षेत्र के सम्पूर्ण तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का यही प्रमाण है। यहाँ भरतक्षेत्र के और ऐरावत के तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का उत्कृष्ट प्रमाण यही है, जघन्य प्रमाण एक योजन मात्र है, मध्यम के अनेक भेद हैं। जैसे कि भगवान वृषभदेव का समवसरण बारह योजन का था, शेष तीर्थंकरों का घटते-घटते अंतिम भगवान महावीर का एक योजनमात्र था।
२. सोपान- समवसरण में चढ़ने के लिए भूमि से एक हाथ ऊपर से आकाश में चारों ही दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ऊपर-ऊपर २०००० सीढ़ियां होती हैं। ये सीढ़ियाँ एक हाथ ऊँची और इतनी ही विस्तार वाली रहती हैं। ये सब स्वर्ण से निर्मित होती हैं। देव, मनुष्य और तिर्यंचगण अंतर्मुहूर्त मात्र में ही इन सभी सीढ़ियों को पारकर समवसरण में पहुँच जाते हैं।
३. विन्यास- समवसरण में चार कोट, पांच वेदियाँ, इनके बीच में आठ भूमियाँ और सर्वत्र प्रत्येक अन्तर भाग में तीन पीठ होते हैं। इस क्रम से समवसरण में सारी रचनाएं रहती हैं।
४. वीथी- प्रत्येक समवसरण में प्रारंभ से लेकर प्रथम पीठ (कटनी) पर्यंत, सीढ़ियों की लम्बाई के बराबर विस्तार वाली चार वीथियाँ होती हैं। यहाँ ‘वीथी’ से जाने का मार्ग (सड़क) समझना चाहिए।
इन वीथियों के पार्श्र्वभाग में स्फटिकपाषाण से बनी हुई वेदियाँ होती हैं। ये बाउण्ड्रीवाल के समान हैं। जो आठ भूमियाँ हैं उन आठों भूमियों के मूल में वज्रमय कपाटों से सुशोभित बहुत से तोरणद्वार होते हैं जिनमें देव, मनुष्य और तिर्यंचों का संचार बना रहता है।
५. धूलिशाल-सबके बाहर विशाल एवं समान गोल, मानुषोत्तर पर्वत के आकार वाला धूलिशाल नाम का कोट होता है। यह पंचवर्णी रत्नों से निर्मित होता है इसलिए इसका धूलिशाल नाम सार्थक है। इस कोट में मार्ग अट्टालिकाएं और ध्वजा पताकाएं रहती हैं। चार गोपुर द्वार (मुख्य फाटक) होते हैं।
यह तीनों लोकों को विस्मित करने वाला बहुत ही सुन्दर दिखता है। इस कोट के चारों गोपुर द्वारों में से पूर्वद्वार का नाम विजय है, दक्षिण द्वार का ‘वैजयन्त’ है, पश्चिम द्वार को ‘जयन्त’ और उत्तरद्वार को ‘अपराजित’ कहते हैं।
ये चारों द्वार सुवर्ण से बने रहते हैं, तीन भूमियों (खनों) से सहित देव और मनुष्य के जोड़ों से संयुक्त और तोरणों पर लटकती हुई मणिमालाओं से शोभायमान होते हैं। प्रत्येक द्वार के बाहर और मध्य भाग में, द्वार के पार्श्र्वभागों में मंगल द्रव्य विधि और धूपघट से युक्त विस्तीर्ण पुतलियाँ होती हैं।
झारी, कलश, दर्पण, चमर, ध्वजा, पंखा, छत्र और सुप्रतिष्ठ (ठोना) ये ८ मंगलद्रव्य हैं। ये प्रत्येक १०८-१०८ होते हैं। काल, महाकाल, पांडु, माणवक, शंख, पदम, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न, ये नव निधियाँ प्रत्येक १०८ होती हैं। ये निधियाँ क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्य-माला आदि, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, महल, आभरण और संपूर्ण रत्नों को देती हैं।
वहाँ एक-एक पुतली के ऊपर गोशीर्ष, मलय, चंदन और कालागुरु आदि धूपों के गंध से व्याप्त एक-एक धूपघट होते हैं। इन विजय आदि द्वार के प्रत्येक बाह्य भाग में सैकड़ों मरकततोरण और अभ्यन्तर भाग में सैकड़ों रत्नमय तोरण होते हैं। इन द्वारों के बीच दोनों पाश्र्व भागों में एक-एक नाट्यशाला होती है।
जिसमें देवांगनाएं नृत्य करती रहती हैं। इस धूलिसाल के चारों गोपुर द्वारों पर ज्योतिष्कदेव द्वार रक्षक होते हैं जो कि हाथ में रत्नदण्ड को लिये रहते हैं। इन चारों दरवाजों के बाहर और अंदर भाग में सीढ़ियाँ बनी रहती हैं जिनसे सुखपूर्वक संचार किया जाता है।
प्रत्येक समवसरण के धूलिसाल कोट की ऊँचाई अपने तीर्थंकर के शरीर से चौगुनी होती है। इस कोट की ऊँचाई से तोरणों की ऊँचाई अधिक रहती है और इससे भी अधिक विजय आदि द्वारों की ऊँचाई रहती है।
६. चैत्यप्रासाद भूमि-धूलिसाल के अभ्यंतर भाग में ‘चैत्यप्रासाद’ नामक भूमि सकल क्षेत्र को घेरे हुए बनी रहती है। इसमें एक-एक जिनभवन के अन्तराल से ५-५ प्रासाद बने रहते हैं जो विविध प्रकार के वनखण्ड और बावड़ी आदि से रमणीय होते हैं। इन जिनभवन और प्रासादों की ऊँचाई अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारह गुणी रहती है।
७. नृत्यशाला-प्रथम पृथ्वी में पृथक्-पृथक् वीथियों के दोनों पाश्र्व भागों में उत्तम सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित दो-दो नाट्यशालाएं होती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में ३२ रंग भूमियाँ और प्रत्येक रंग भूमि में ३२ भवनवासी देवियाँ नृत्य करती हुई नाना अर्थ से युक्त दिव्य गीतों द्वारा तीर्थंकरों के विजय के गीत गाती हैं और पुष्पांजलि क्षेपण करती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में नाना प्रकार की सुगंधित धूप से दिग्मंडल को सुवासित करने वाले दो-दो घूपघट रहते हैं।
८. मानस्तंभ- प्रथम पृथ्वी के बहुमध्य भाग में चारों वीथियों के बीचोंबीच समान गोल मानस्तंभ भूमियाँ होती हैं। उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुर द्वारों से सुन्दर कोट होते हैं।
इनके भी मध्यभाग में विविध प्रकार के दिव्य वृक्षों से युक्त वनखण्ड होते हैं। इनके मध्य में पूर्वादि दिशाओं में क्रम से सोम, यम, वरुण और कुबेर इन लोकपालों के रमणीय क्रीड़ा नगर होते हैं। उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुर द्वार से युक्त कोट और इसके आगे वनवापिकाएं होती हैं। जिनमें नीलकमल खिले रहते हैं। उनके बीच में लोकपालों के अपनी-अपनी दिशा तथा चार विदिशाओं में भी दिव्य क्रीड़ानगर होते हैं।
उनके अभ्यंतर भाग में उत्तम विशाल द्वारों से युक्त कोट होते हैं और फिर इनके बीच में पीठ होते हैं। इनमें से पहला पीठ वैडूर्यमणिमय, उसके ऊपर दूसरा पीठ सुवर्णमय और उसके ऊपर तीसरा पीठ बहुत वर्ण के रत्नों से निर्मित होता है। ये तीन पीठ तीन कटनीरूप होते हैं। इन पीठों के ऊपर मानस्तंभ होते हैं।
इन मानस्तंभों की ऊँचाई अपने-अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारह गुणी होती है। प्रत्येक मानस्तंभ का मूल भाग वङ्का से युक्त और म
(श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचन)
सज्जाति: सद्गृहस्थत्वं पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता ।
साम्राज्यं परमाहृन्त्यं निर्वाण चेति सप्तधा ।।
भव्यात्माओं! मैं आपको जिनागम में सारभूत ऐसे सप्त परम स्थान के बारे में बता रही हूँ ।
# सज्जाति | # सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत) |
# पारिव्राज्य (मुनियों के व्रत) | # सुरेन्द्रपद |
# साम्राज्य (चक्रवर्ती पद) | # अरहंत पद |
# निर्वाण पद |
ये सात परम स्थान कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव क्रम-क्रम से इन परम स्थानों को प्राप्त कर लेता है।
इन्हें कर्तृन्वय क्रिया भी कहते हैं। इन सप्तपरमस्थानों का कर्तृन्वय क्रियाओं के नाम से
में सुन्दर विवेचन देखा जाता है।
इन क्रियाओं में कल्याण करने वाली सबसे पहली क्रिया सज्जाति है जो कि निकट भव्य को मनुष्य जन्म की प्राप्ति होने पर होती है। ‘‘दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंश में विशुद्ध जन्म धारण करने वाले मनुष्य के सज्जाति नाम का परमस्थान होता है। विशुद्ध कुल और विशुद्ध जातिरूपी सम्पदा सज्जाति है।
इस सज्जाति से ही पुण्यवान मनुष्य उत्तरोत्तर उत्तम-उत्तम वंशों को प्राप्त होता है। पिता के वंश की जो शुद्धि है उसे कुल कहते हैं और माता के वंश की शुद्धि जाति कहलाती है। कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को ‘सज्जाति’ कहते हैं, इस सज्जाति के प्राप्त होने पर बिना प्रयत्न के सहज ही प्राप्त हुए गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ हो जाती है।’ आर्यखंड की विशेषता से सज्जातित्व की प्राप्ति शरीर आदि योग्य सामग्री मिलने पर प्राणियों के अनेक प्रकार के कल्याण उत्पन्न करती है।
यह सज्जाति उत्तम शरीर के जन्म से ही मैंने वर्णित की है क्योंकि पुरुषों के समस्त इष्ट पदार्थों की सिद्धि का मूलकारण यही एक सज्जाति है। संस्काररूप जन्म से जो सज्जाति का वर्णन है वह दूसरी ही सज्जाति है उसे पाकर भव्यजीव द्विजन्मा कहलाता है अर्थात् प्रथम उत्तम वंश में जन्म यह एक सज्जाति हुई पुन: व्रतों के संस्कार से संस्कारित होना यह द्वितीय जन्म माना जाने से उस भव्य की ‘द्विज’ यह संज्ञा अन्वर्थ हो जाती है।
जिस प्रकार विशुद्ध खान में उत्पन्न हुआ रत्न संस्कार के योग से उत्कर्ष को प्राप्त होता है उसी प्रकार क्रियाओं और मंत्रों से सुसंस्कार को प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यंत उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है। यहाँ विशेष बात समझने की यह है कि जाति व्यवस्था को माने बिना ‘सज्जातित्व’ नहीं बन सकती।
इसी बात को उत्तरपुराण में श्री गुणभद्राचार्य कहते हैं-
जातिगोत्राणिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतव:।
येषु ते स्युस्त्रयो वर्णा: शेषा: शूद्रा: प्रकीर्तित:।।४९३।।
अच्छेद्यो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंतते:।
तद्धेतुनामगोत्राढ्यजीवाविच्छिन्नसंभवात्।।४९४।।
शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंतति:।
एवं वर्णविभाग: स्यान्मनुष्येषु जिनागमे।।४९५।।
जिनमें शुक्लध्यान के लिए कारण ऐसे जाति, गोत्र आदि कर्म पाये जाते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ऐसे तीन वर्ण हैं।’ उनसे अतिरिक्त शेष शूद्र कहे जाते हैं।
विदेह क्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता क्योंकि वहीं उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरंतर उत्पत्ति होती रहती है परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थकाल में ही जाति की परम्परा चलती है अन्य कालों में नहीं।
जिनागम में मनुष्यों का वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है कि-
जब प्रजा भगवान के सामने अपनी आजीविका की समस्या लेकर आई तब भगवान ने उसे आश्वासन देकर विचार किया- ‘पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जैसे असि, मषि आदि षट्कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम, घर, नगर आदि की रचना है वह सब यहाँ पर भी होनी चाहिए।
अनंतर भगवान के स्मरण मात्र से देवों के साथ सौधर्म इन्द्र वहाँ आया और उसने शुभ मुहूर्त में जगद्गुरु भगवान की आज्ञानुसार मांगलिक कार्यपूर्वक अयोध्या के बीच में ‘जिनमंदिर’ की रचना की। पुन: सर्व ग्राम, नगर आदि की रचना कर प्रजा को बसाकर चला गया। पुन: भगवान ने असि, मषि आदि षट्कर्मों का उपदेश देकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की। उस समय प्रजा अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य आजीविका नहीं करती थी इसलिए उनके कार्यों में कभी संकर (मिलावट) नहीं होता था।
उनके विवाह, जाति संबंध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान की आज्ञानुसार ही होते थे। अर्थात् इस कर्मभूमि की आदि में भगवान वृषभदेव ने अपने अवधिज्ञान के बल से विदेह क्षेत्र की अनादिनिधन कर्मभूमि की व्यवस्था को देखकर उसी के सदृश ही यहाँ सब व्यवस्था बनाई थी। अत: जैसे इस भरतक्षेत्र में मोक्षमार्ग की व्यवस्था सादि है, भोगभूमि में या प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा पंचम और छठे काल में मोक्ष नहीं होता है वैसे ही यह वर्ण व्यवस्था भी सादि है फिर भी इसके बिना भी मोक्ष नहीं है।
स्वयं कुन्दकुन्द देव भी कहते हैं- ‘देश, कुल, जाति से शुद्ध, विशुद्ध मन, वचन, काय से संयुक्त ऐसे हे गुरुदेव! तुम्हारे चरणकमल हमारे लिए हमेशा मंगलमयी होवें।’ जाति व्यवस्था को स्वीकार करने पर ही जाति से शुद्ध यह विशेषण सार्थक होता है।
दुर्भाव, अशुचि, सूतक-पातक दोष से युक्त रजस्वला स्त्री और जाति संकर आदि दोष से दूषित लोग यदि दान देते हैं तो वे कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं तथा जो कुपात्र में दान देते हैं तो वे भी कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं। जाति व्यवस्था मानने पर ही ‘जाति संकर’ दोष बनेगा अन्यथा नहीं।
उपासकाध्ययन में भी कहा है- ‘जैसे माता-पिता के शुद्ध होने पर संतान की शुद्धि देखी जाती है, वैसे ही आप्त के निर्दोष होने पर उनका कहा हुआ आगम निर्दोष माना जाता है।’ ‘द्रव्य, दाता और पात्र की विशुद्धि होने पर ही विधि शुद्ध हो सकती है क्योंकि सैकड़ों संस्कार से भी शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता है।’
उत्तरपुराण में एक कथा आती है कि जब सत्यभामा ब्राह्मणी को यह मालूम हुआ कि यह मेरा पति कपिल, ब्राह्मण न होकर दासी पुत्र है तो वह ब्रह्मचर्यव्रत लेकर राजा की शरण में गई। राजा ने भी सोचा कि पापी और विजातीय के लिए न करने योग्य कुछ भी नहीं है। इसीलिए राजा लोग कुलीन मनुष्यों का ही संग्रह करते हैं।
ऐसा समझकर राजा ने उस मायावी कपिल को दंडित किया।
‘एक समय एक मुनि वेश्या के दरवाजे की तरफ से निकले तब वेश्या ने विनय से निवेदन किया-हे मुने! मेरा कुल दान देने योग्य नहीं है।
इस तरह अपने कुल की निंदा करती हुई वह पूछती है-भगवन्! उत्तम कुल और रूपादि इस जीव को किन कार्यों से मिलते हैं? तब मुनि ने कहा-हे भद्रे! मद्य, मांस आदि के त्याग करने से उत्तम कुल आदि की प्राप्ति होती है।
इसीलिए सोमदेव सूरि कहते हैं- ‘मनुष्यों की क्रियाएं शुद्ध होने पर भी यदि उनके आप्त और आगम निर्दोष नहीं हैं तो उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैसे कि क्रियाएं शुद्ध होने पर भी विजाति लोगों से कुलीन संतानरूप उत्तम फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है।’
अत: आचार्य आदेश देते हैं कि- ‘धर्मभूमि में स्वभाव से ही मनुष्य कम कामी होते हैं। अत: अपनी जाति की विवाहित स्त्री से ही संबंध करना चाहिए। अन्य कुजातियों की स्त्रियों से, बंधु-बांधवों की तथा व्रती स्त्रियों से भी संबंध नहीं करना चाहिए।’
जीवंधर कुमार ने गायों के जीतने के बाद ग्वाल सरदार की कन्या गोविंदा को स्वयं न वरण करके अपने मित्र पद्मास्य को ही उसके योग्य समझा और उसके साथ विवाह कराया।’
श्री रविषेणाचार्य कहते हैं-
१. कुल | २. शील | ३. धन |
४. रूप | ५. समानता | ६. बल |
७. अवस्था | ८. देश | ९. विद्यागम |
ये नौ गुण वर के कहे गये हैं तथापि उत्तम पुरुष इन सभी गुणों में एक कुल को ही श्रेष्ठ गुण मानते हैं। परन्तु वहीं कुल गुण जिस
यही कारण है कि जब सुग्रीव की भार्या सुतारा के महल में साहसगति विद्याधर कृत्रिम सुग्रीव का रूप बनाकर घुस आया और सत्य सुग्रीव के आ जाने के बाद जब मंत्री लोग सत्य और मायावी का निर्णय नहीं कर सके, तब उन लोगों ने विचार किया कि- लोक में गोत्र शुद्धि अत्यंत दुर्लभ है इसलिए उसके बिना बहुत भारी राज्य से भी प्रयोजन नहीं है।
निर्मल गोत्र पाकर ही शीलादि आभूषणों से भूषित हुआ जाता है इसलिए इस निर्मल अंत:पुर की यत्नपूूर्वक रक्षा करनी चाहिए। इसलिए तो भारतीय संस्कृति में विधवा विवाह का सर्वथा निषेध है।
जब चन्द्रनखा को खरदूषण ने हरण कर लिया तब रावण के कुपित होने पर मंदोदरी कहती है- यदि किसी तरह वह खरदूषण मारा भी गया तो हरण के दोष से दूषित कन्या अन्य दूसरे को नहीं दी जा सकेगी उसे तो मात्र विधवा ही रहना पड़ेगा।
जब सुलोचना ने स्वयंवर में जयकुमार के गले में वरमाला डाल दी, तब भरतसम्राट के पुत्र अर्ककीर्ति कुछ लोगों के भड़काने से युद्ध के लिए तैयार हो गये। उसी बीच अर्ककीर्ति कहते हैं-
क्योंकि सबसे ईष्र्या करने वाला यह जयकुमार अभी मेरे बाणों से ही मर जावेगा तब उस विधवा से मुझे क्या प्रयोजन रह जावेगा?’ इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन काल में कुल की शुद्धि देखकर सजाति में ही विवाह किये जाते थे। विधवा विवाह, पुनर्विवाह आदि प्रथाएं निषिद्ध थीं।
सजातीय भार्या को ही ‘धर्मपत्नी’ यह संज्ञा दी जाती है। राजाओं के जो अन्य विजातीय स्त्रियाँ भी रहती थीं वे केवल भोगपत्नी मानी जाती थीं। क्योंकि ‘सज्जाति’ से उत्पन्न संतान ही दान, पूजन करने के लिए अधिकारी है और सज्जाति को ही दैगंबरी दीक्षा का विधान है। आचार ग्रंथों में तो है ही, श्री पूज्यपाद आचार्य विरचित ‘जैनेन्द्र व्याकरण’ का भी सूत्र है-
‘वर्णेनार्हद्रूपायोग्यानां।’
जो वर्ण से अर्हंत रूप के योग्य नहीं है इससे स्पष्ट है कि तीन वर्ण ही दीक्षा के योग्य हैं और अंतिम वर्ण दीक्षा के अयोग्य हैं।
जिस प्रकार गुलाब के वृक्ष की टहनी (कलम) काटकर लगाते हैं तो श्वेत, लाल या गुलाबी जैसे भी गुलाब तरु की टहनी है वैसा ही फूल आता है और यदि आजकल विज्ञान से शिक्षित लोग सफेद गुलाब की कलम और लाल गुलाब की कलम दोनों को मिलाकर लगा देते हैं ।
तो उसमें श्वेत या लाल गुलाब फूल न आकर एक तीसरे ही रंग का फूल आ जाता है तथा श्वेत या लाल गुलाब जैसी असली सुगंधि भी उसमें नहीं रहती है। कालांतर में उस संकर (मिश्रित) गुलाब की कलम भी नहीं लगायी जा सकती है चूँकि उसकी उपजाऊ शक्ति खत्म हो जाती है।
वैसे ही ‘जाति संकर’ से दूषित कुल में मोक्षमार्ग परम्परा नहीं चलती है क्योंकि ‘सज्जाति’ परम स्थान के बिना ‘पारिव्राज्य’ परमस्थान और मोक्ष मिलना असंभव है।
कि छठे काल में ‘सज्जातित्त्व’ समाप्त हो जावेगा, क्योंकि तब विवाह प्रथा रहेगी ही नहीं। पुन: आगे छठे और पंचमकाल के बाद चतुर्थकाल के अंत में कुलकर जन्म लेंगे एवं उन्हीं में तीर्थंकरों का भी जन्म होगा तो बिना ‘सज्जाति’ के भी मोक्षमार्ग चलेगा ही।
इस पर चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने बहुत ही सुंदर समाधान दिया था। उन्होंने कहा था कि- छठे काल के अंत में प्रलय के समय जो बहत्तर जोड़े देवों द्वारा यहाँ से ले जाये जाकर विजयार्ध की गुफाओं में सुरक्षित किए जावेंगे, तिलोयपण्णत्ति में ऐसा कथन है कि उस समय कुछ और भी मनुष्य सुरक्षित रखे जावेंगे।
उन्हीं में से जिनमें ‘सज्जाति’ (बिना विवाह के भी एक स्त्री से संबंध होने की परम्परा) सुरक्षित रह जावेगी उन्हीं से कुलकर तीर्थंकर आदि जन्म लेवेंगे।
उदाहरण के लिए देखिए- यदि कोई एक बोरी गेहूं घुने हुए लाकर किसी चतुर महिला को दे देवे और कहे कि इन सर्वथा घुने हुए गेहूँ में से भी तुम २-४-१० गेहूँ बिना घुने हुए निकाल दो तो आप बतलाइये १०-२० गेहूँ बिना घुने हुए उस बोरी भर गेहूँ में से ढूंढने पर मिलेंगे या नहीं? यदि मिल सकते हैं ।
तो फिर वैसे ही कई करोड़ों मनुष्यों की संख्या में से १०-२० स्त्री-पुरुष (दंपती) शुद्ध ‘सज्जाति’ वाले तब भी सुरक्षित रह सकते हैं और उन्हीं में ही किन्हीं को कुलकर तथा तीर्थंकर जैसे महापुरुषों को जन्म देने का सौभाग्य मिल सकता है। ऐसा विश्वास करना चाहिए।
सज्जाति नाम के परमस्थान को प्राप्त करने वाला भव्य ‘सद्गृहित्व’ परमस्थान को प्राप्त करता है। वह सद्गृहस्थ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन करता है।
गृहस्थ अवस्था में करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं, अरहंत भगवान् द्वारा कहे गये उन-उन समस्त आचरणों का जो आलस्य रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्रदेव से उत्तम जन्म प्राप्त किया है और गणधरदेव ने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेज को धारण करता है अर्थात् प्रथम तो शरीर का जन्म, पुन: गुरु के द्वारा व्रतों को ग्रहण करने से संस्कार का जन्म ऐसे दो जन्म जिसके होते हैं उसे द्विज, द्विजन्मा कहते हैं। वर्तमान में ब्राह्मणों को द्विज संज्ञा है।
भरत सम्राट ने भी जैनव्रती श्रावकों को ही ब्राह्मण संज्ञा दी थी किन्तु यहाँ पर तो उच्चवर्णीय सद्गृहस्थ ही विवक्षित हैं। यहाँ यह आशंका हो सकती है कि जो असि, मषि आदि छह कर्मों से आजीविका करने वाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसा का दोष लग सकता है परन्तु इस विषय में जैनाचार्य कहते हैं कि यद्यपि आजीविका के लिए छह कर्मों के करने वाले जैन गृहस्थों को थोड़ी सी हिंसा की संगति अवश्य होती है परन्तु शास्त्रों में उन दोषों की शुद्धि भी तो दिखलाई गई है।
उनकी विशुद्धि के अंग तीन हैं-पक्ष, चर्या और साधन। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनियों का पक्ष कहलाता है। किसी देवता के लिए, किसी मंत्र की सिद्धि के लिए अथवा किसी औषध या भोजन बनवाने के लिए मैं किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है।
इस प्रतिज्ञा में यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमाद से दोष लग जावे तो प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि की जाती है तथा अंत में अपना सब कुटुम्ब पुत्र के लिए सौंपकर घर का परित्याग किया जाता है।
यह गृहस्थ लोगों की चर्या है। आयु के अंत समय में शरीर, आहार और समस्त प्रकार की चेष्टाओं का परित्याग कर ध्यान की शुद्धि से जो आत्मा को शुद्ध करना है वह साधन है। अरहंत देव को मानने वाले जैनों का पक्ष, चर्या और साधन इन तीनों में हिंसा के साथ स्पर्श भी नहीं होता।
चारों आश्रमों की शुद्धता भी श्री अर्हंतदेव के मत में ही है। अन्य लोगों ने जो चार आश्रम माने हैं वे विचार किये बिना ही सुन्दर प्रतीत होते हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियों के चार आश्रम माने हैं जो कि उत्तरोत्तर अधिक विशुद्धि होने से प्राप्त होते हैं।
ये चारों ही आश्रम अपने-अपने अन्तर्भेदों से सहित होकर अनेक प्रकार के हो जाते हैं।
# अनादिकाल से आठ प्रकार के कर्मबंधन से बंधे हुए जीव तीव्र दु:खों के लिए कारणभूत ऐसी चारों गतियों में हमेशा ही दु:ख उठाते रहते हैं। इन संसारी प्राणियों को ही यहाँ सत्व संज्ञा है।
ऐसे सभी सत्वों में प्राणी मात्र में मैत्री भाव रखना अर्थात् मन-वचन-काय और कृत, कारित, अनुमोदना से दूसरों को दु:ख न होने देने की अभिलाषा का नाम मैत्री भावना है। मैं सब जीवों के प्रति क्षमाभाव रखता हूँ सब जीव मुझे क्षमा करें, मेरी सब जीवों से प्रीति है मेरा किसी से बैर नहीं है, इत्यादि प्रकार की भावना ही मैत्री है।
# सम्यग्दर्शन, ज्ञान आदि गुणों से विशिष्ट पुरुष गुणाधिक है। ऐसे गुणी जनों में प्रमोदभाव होता है। गुणीजनों को देखकर मुख की प्रसन्नता, नेत्र का आल्हाद, रोमांच, स्तुति, सद्गुण, कीर्तन आदि के द्वारा अंतरंग की भक्ति को, भावों के अनुराग को प्रगट करना प्रमोद भावना है ।
# असाता वेदनीय के उदय से जो शारीरिक या मानसिक दु:खों से संतप्त हैं क्लिश्यमान कहलाते हैं। ऐसे दीन प्राणियों के ऊपर अनुग्रह रूप भाव का होना कारुण्य भावना है। मोह से अभिभूत कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञान से युक्त विषय तृष्णा से जलने वाले, हित-अहित में विपरीत प्रवृत्ति करने वाले, विविध दु:खों से पीड़ित दीन, अनाथ, बाल, वृद्ध आदि जीव क्लिश्यमान हैं। उन जीवों के प्रति दया भाव से ओतप्रोत हो जाना कारुण्य भावना है।
# तत्त्वों के उपदेश को जो श्रवण करते हैं और उनको ग्रहण करने के पात्र हैं उन्हें विनेय कहते हैं। इससे विपरीत अविनेय हैं। इन विरुद्ध चित्तवालों में माध्यस्थ भाव रखना। जो व्यक्ति ग्रहण धारण, विज्ञान और ऊहापोह से रहित हैं, महामोह से अभिभूत हैं और विपरीत दृष्टि-महामिथ्यादृष्टि हैं ऐसे विरुद्ध वृत्ति वाले जीवों के प्रति राग-द्वेष न करके माध्यस्थ भाव रखना चौथी भावना है।
वास्तव में ऐसे अविनेय लोगों के प्रति किया गया धर्म का उपदेश सफल नहीं हो सकता है प्रत्युत् कभी-कभी अनर्थ का कारण भी बन जाया करता है अतएव आचार्यों ने ऐसे विपरीत वृत्ति वालों के प्रति मध्यस्थ रहने का आदेश दिया है। जैसे कि रक्षाबंधन कथा में श्रुतसागर मुनि के द्वारा दिया गया तत्त्वों का उपदेश बलि आदि दुर्बुद्धि मंत्रियों के लिए उल्टा हुआ और वे संघ के अहित में तत्पर हो गये।
इस प्रकार से इन मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओं का भाने वाला व्यक्ति जब समस्त हिंसा को अर्थात् संकल्पपूर्वक त्रय हिंसा को छोड़ देता है और धर्म के पक्ष में तत्पर हो जाता है तब वह पाक्षिक कहलाता है।
सागार धर्मामृत में इस पाक्षिक श्रावक के लिए मद्य, मांस, मधु और पंच उदुम्बर फल इन आठों का त्याग करना अत्यावश्यक बतलाया है।
रात्रिभोजन त्याग और अनछना पानी पीने का त्याग भी कहा है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांचों पापों का भी स्थूल त्याग करना चाहिए तथा जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री इन सात व्यसनों का त्याग भी होना चाहिए।
तभी वह ‘पाक्षिक’ संज्ञा को प्राप्त होता है। दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं ऐसा आर्ष में कहा गया है। दान के चार भेद हैं-आहार दान, औषधिदान, शास्त्रदान और वसतिकादान।
अंतिम दो दान के ज्ञानदान और अभयदान भी नाम प्रसिद्ध हैं। श्रावक मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि चतुर्विध संघ को ये चारों दान देते हैं। पात्र के भी उत्तम, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा तीन भेद माने गये हैं।
नित्यमह, चतुर्मुखमह, कल्पद्रुममह, आष्टान्हिकमह और ऐंद्रध्वजमह। मह का अर्थ पूजा है। नित्यप्रति जिनेन्द्रदेव की जल गंधादि से अर्चना करना, जिनबिंब, जिनमंदिर बनवाना, मुनीश्वरों की पूजा करके उन्हें आहार देना यह सब नित्यमह है।
महामुकुटबद्ध राजा लोग जो बड़े वैभव से पूजा करते हैं, वह चतुर्मुख या सर्वतोभद्र है। आष्टान्हिक पर्व में की गई आष्टान्हिकमह है, चक्रवर्ती सबकी इच्छा पूर्ण करने वाला ऐसा किमिच्छक दान देते हुए जो पूजा करते हैं वह कल्पवृक्ष पूजा है। इन्द्रों के द्वारा जो पूजन होती है उसका नाम ऐंद्रध्वज है।
ब्रह्मचर्य का पालन करना शील है और अष्टमी आदि पर्वों मे चतुर्विध आहार का त्याग करना उपवास है। इस उपवास के अनुष्ठान में अनेकों भेद होते हैं। इस श्रावक धर्म का उपदेश जिनेन्दद्रेव ने दिया है यह बात सिद्धांतग्रंथों में कही गई है।
‘शंका होती है कि चौबीसों तीर्थंकर सदोष हैं क्योंकि उन्होंने छहकाय के जीवों की विराधना के कारणभूत ऐसे श्रावक धर्म का उपदेश दिया है।
दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं। यह चारों ही प्रकार का श्रावक धर्म छहकाय के जीवों की विराधना का कारण है क्योंकि भोजन का पकाना, दूसरे से पकवाना, अग्नि का सुलगाना, अग्नि का जलाना, अग्नि का खूतना और खुतवाना आदि व्यापारों से होने वाली जीव विराधना के बिना दान नहीं बन सकता है।
उसी प्रकार वृक्ष का काटना और कटवाना, का गिराना और गिरवाना तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छहकाय के जीवों की विराधना के कारणभूत व्यापार के बिना जिनभवन का निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है तथा अभिषेक करना, अवलेप करना, संमार्जन करना, चंदन लगाना, फूल चढ़ाना और धूप जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारों के बिना पूजा करना नहीं बन सकता है।
4शील की रक्षा भी सावद्य है क्योंकि अपनी स्त्री को पीड़ा दिये बिना शील का परिपालन नहीं हो सकता है। उपवास भी सावद्य है क्योंकि अपने पेट में स्थित प्राणियों को पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है। अथवा जिनेन्द्रदेव श्रावकों को स्थूल अहिंसा का उपदेश देते हैं अर्थात् ‘स्थावर जीवों को छोड़कर केवल त्रसजीवों को ही मत मारो।’ ऐसा प्रतिपादन करते हैं। इन्हीं सब सावद्य कारणों का उपदेश देने से जिनेन्द्रदेव निर्दोष नहीं हैं।
अथवा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, वृक्ष के मूल में सूर्य के आतप में और खुले हुए स्थान में निवास करना, उत्कुटासन, पल्यंकासन, अर्धपल्यंकासन, खड्गासन, गवासन, वीरासन, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यानादि क्लेशों में जीवों को डालकर उन्हें ठगने के कारण जिनेन्द्रदेव निरवंद्य नहीं हैं और इसीलिए वे वंदनीय नहीं है।
यहाँ तक शंकाकार ने अपनी शंका रखी अब आचार्य इसका समाधान देते हैं- ‘उपर्युक्त शंकाओं का परिहार करते हैं कि यद्यपि तीर्थंकर पूर्वोक्त प्रकार का उपदेश देते हैं तो भी उनके कर्मबंध नहीं होता है।’
‘तीर्थंकर का विहार संसार के लिए सुखकर है किन्तु उससे पुण्यफलस्वरूप कर्मबंंध होता हो ऐसा नहीं है तथा दान और पूजा आदि आरंभ के करने वाले वचन उन्हें कर्मबंध से लिप्त नहीं करते हैं अर्थात् वे दान, पूजा आदि आरंभों का उपदेश देते हैं उससे भी उन्हें कर्मबंध नहीं होता है।’
‘जीवों में पापास्रव के द्वार अनादिकाल से खुले हुए हैं। उनके खुले रहते हुए जो जीव शुभास्रव के द्वार को खोलता है अर्थात् शुभास्रव के कारणभूत कार्यों को करता है, वह सदोष कैसे हो सकता है? और जब महाव्रती मुनियों के प्रतिसमय घटिकायंत्र जल के समान असंख्यातगुणित श्रेणीरूप से कर्मों की निर्जरा होती रहती है तब उनके पाप कैसे संभव है?’
इन शंका और समाधान के प्रकरण को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि जिनेन्द्रदेव ने श्रावकों के लिए दान, पूजन करना, जिनमंदिर बनवाना आदि आरंभ का उपदेश दिया है एवं मुनियों के लिए अनशन आदि तपश्चरण का उपदेश दिया है फिर भी न वे सदोष हैं और न उनके बताये मार्ग पर चलने वाले श्रावक और मुनि ही सदोष हैं अत: इस ‘सद्गृहित्व’ नामक परमस्थान के इच्छुक गृहस्थ को दान, पूजा, शील, उपवास धर्मों को यथाशक्ति करते रहना चाहिए।
घर से विरक्त होकर जो पुरुष का दीक्षा ग्रहण करना है वह पारिव्राज्य है। परिव्राट् का जो निर्वाण दीक्षारूप भाव है उसे पारिव्राज्य कहते हैं।
इस पारिव्राज्य परमस्थान में ममत्व भाव छोड़कर दिगम्बर रूप धारण करना पड़ता है। मोक्ष के इच्छुक पुरुष को शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहों के अंश में निर्ग्रन्थ आचार्य के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चारित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभा अच्छी है ऐसा पुरुष ही जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है।
जिस दिन ग्रहोंका उपरोग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य-चन्द्रमा पर परिवेष मंडल हो, इन्द्रधनुष हो, दुष्ट ग्रहों का उदय हो, आकाश मेघ पटल से ढका हुआ हो, नष्ट मास अथवा अधिक मास का दिन हो, संक्रांति हो अथवा क्षय तिथि हो उस दिन बुद्धिमान आचार्य को मोक्ष की इच्छा करने वाले भव्यों का दीक्षा संस्कार नहीं करना चाहिए।
आचार्य सुयोग्य शिष्य को दीक्षाविधि में सर्वप्रथम केशलोंच कराते हैं पुन: सर्व वस्त्र आभूषण त्याग कराकर अट्ठाईस मूलगुणों की विधि समझाकर उन्हें देते हैं। संयम की रक्षा के लिए मयूर पंखों की पिच्छी, शौच के लिए काठ का कमण्डलु और ज्ञान के लिए शास्त्र देते हैं।
पाँच महाव्रत, पंच समिति, पंच इन्द्रियों को वश में करना, छ: आवश्यक क्रिया, लोच, आचेलक्य, स्थान का त्याग, क्षितिशयन, दंत धावन न करना, खड़े होकर आहार करना, एक बार आहार करना ये २८ मूलगुण हैं।
पाँच महाव्रत- मुख्य व्रतों को महाव्रत कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए कारणभूत हिंसादि के त्याग को व्रत कहते हैं। जिनको तीर्थंकर आदि महापुरुष ग्रहण करते हैं अथवा जो पालन करने वाले को महान बना देते हैं वे महाव्रत कहलाते हैं।
इसके पाँच भेद हैं- अहिंसा महाव्रत- कषाययुक्त मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को प्रमत्तयोग कहते हैं, प्रमत्त योग से दस प्राणों का वियोग करना हिंसा है, ऐसी हिंसा से विरत होना सर्व प्राणियों पर पूर्ण दया का पालन करना अहिंसा महाव्रत है।
सत्य महाव्रत- प्राणियों को जिससे पीड़ा होगी, ऐसा भाषण, चाहे विद्यमान पदार्थ विषयक हो अथवा न हो, उसको त्याग करना। अचौर्य महाव्रत-अदत्त वस्तु को ग्रहण नहीं करना।
ब्रह्मचर्य महाव्रत- पूर्णतया मैथुन का-स्त्री मात्र का त्याग कर देना। परिग्रह त्याग महाव्रत- बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग करना, मुनियों के अयोग्य समस्त वस्तुओं का त्याग करना। ये पाँच महाव्रत सर्व सावद्य पापों के त्याग के कारण हैं।
सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है। उसके पाँच भेद हैं- ईर्या समिति- अच्छी तरह देखकर मन को स्थिर कर गमन-आगमन करना। भाषा समिति- आगम से अविरुद्ध, पूर्वापर संबंध से रहित, निष्ठुरता, कर्कश, मर्मच्छेदक आदि दोषों से रहित भाषण करना।
एषणा समिति- लोक निंद्य आदि कुलों को छोड़कर और सूतक, पातक, जाति संकर आदि दोषों से रहित घरों में छ्यालीस दोष और बत्तीस अंतराय टालकर आहार ग्रहण करना।
आदान निक्षेपण समिति- आंखों से देखकर और पिच्छिका से शोधनकर यत्नपूर्वक वस्तु को रखना और उठाना।
प्रतिष्ठापन समिति- जन्तु रहित प्रदेश में ठीक से देखकर मलमूत्रादि का त्याग करना। ये पाँच समितियाँ हैं।
पंच इन्द्रिय निरोध- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को हटाना, नियंत्रण करना इन्द्रिय निरोध है।
अवश्य करने योग्य क्रियाएं आवश्यक कहलाती हैं। समता- रागद्वेष, मोह से रहित होना अथवा त्रिकाल पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करना। स्तव- ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना।
वंदना- एक तीर्थंकर का दर्शन या वंदन करना अथवा पंचगुरुभक्ति पर्यंत दर्शन, वंदना करना।
प्रतिक्रमण- अशुभ मन, वचन और काय के द्वारा जो प्रवृत्ति हुई थी उससे प्रावृत्त होना अथवा किये हुए दोषों का शोधन करना।
इस प्रतिक्रमण के दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ ऐसे सात भेद हैं।
प्रत्याख्यान- अयोग्य द्रव्य का त्याग करना अथवा योग्य वस्तु का भी त्याग करना।
व्युत्सर्ग- देह से ममत्व रहित होकर जिनगुण चिंतन युक्त कायोत्सर्ग करना। ऐसे छह आवश्यक हैं। इन्द्रिय, कषाय, रागद्वेषादि के वश में जो नहीं है वे अवश हैं, उनकी क्रियाएं आवश्यक क्रियाएं हैं।
ये छह आवश्यक मुनियों को नित्य ही करना चाहिए।
लोच- अपने हाथों से मस्तक और दाढ़ी मूंछ के केशों को उखाड़कर फेंक देना। यह केशलोंच उत्कृष्ट दो महीने में, मध्यम तीन और जघन्य चार महीने में होता है।
आचेलक्य- चेल-वस्त्र, मुनिपने के अयोग्य सर्व परिग्रहों का त्याग कर देना।
अस्नान- स्नान का त्याग।
क्षितिशयन- घास, लकड़ी का फलक, शिला इत्यादि पर सोना।
अदन्तधावन- दातौन के लिए दंत मंजन, काष्ठादि का उपयोग नहीं करना।
स्थितिभोजन- खड़े होकर पैरों को चार अंगुल अंतर से रखकर भोजन करना।
एक भक्त- दिन में एक बार आहार लेना। इस प्रकार ये अट्ठाईस मूलगुण कहलाते हैं। प्रत्येक दिगम्बर मुनि में इन मूलगुणों का होना आवश्यक है।
मुनियों के २२ परीषहजय, १२ तप और ये ३४ उत्तरगुण कहलाते हैं। ये किन्हीं में होते हैं, किन्हीं में नहीं भी होते हैं।
पारिव्राज्य परमस्थान में सत्ताईस सूत्रपद निरूपित किये गये हैं कि जिनका निर्णय होने पर पारिव्राज्य का साक्षात लक्षण प्रगट होता है उनके नाम हैं-
ये जाति आदि सत्ताईस सूत्रपद कहलाते हैं।
जाति | मूर्ति | उसमें रहने वाले लक्षण |
शरीर की सुन्दरता | प्रभा | मण्डल |
चक्र | अभिषेक | नाथता |
सिंहासन | उपधान | छत्र |
चामर | घोषणा | अशोक वृक्ष |
निधि | गृहशोभा | अवगाहन |
क्षेत्रज्ञ | आज्ञा | सभा |
कीर्ति | वंदनीयता | वाहन |
भाषा | आहार | सुख |
ये परमेष्ठियों के गुणस्वरूप हैं। ये गुण जिस प्रकार परमेष्ठियों में होते हैं उसी प्रकार दीक्षा लेने वाले शिष्य में भी यथासंभव रूप से होते हैं परन्तु शिष्य को अपने जाति आदि गुणों का सन्मान नहीं करके परमेष्ठी के ही जाति आदि गुणों का सन्मान करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से वह शिष्य अहंकार आदि दुर्गुणों से बचकर अपने आपका उत्थान शीघ्र ही कर सकता है।
१.जाति-स्वयं उत्तम जातिवाला होने पर भी अहंकार रहित होकर अरहंतदेव के चरणों की सेवा करनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने पर वह भव्य मुनि दूसरे जन्म में क्रम से दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार जातियों को प्राप्त हो जाता है।
इन्द्र के दिव्या जाति होती है, चक्रवर्तियों के विजयाश्रिता, अरहंत देव के परमा और मोक्ष को प्राप्त हुए जीवों के अपने आत्मा से उत्पन्न होने वाली स्वा जाति होती है।
२. मूर्ति-जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियों को प्राप्त करना चाहता है उसे अपना शरीर कृश करना चाहिए। जिस प्रकार जाति के चार भेद हैं उसी प्रकार मूर्ति के भी चार भेद होते हैं। दिव्या मूर्ति, विजयाश्रिता मूर्ति, परमामूर्ति और स्वामूर्ति। कोई आचार्य मूर्ति के तीन भेद ही मानते हैं वे सिद्धों में स्वामूर्ति नहीं मानते हैं क्योंकि मूर्ति का अर्थ शरीर से है।
३. लक्षण-शरीर में उत्तम-उत्तम तिल, व्यंजन आदि लक्षणों को धारण करता हुआ भी मुनि उन अपने लक्षणों को निर्देश करने के अयोग्य मानता हुआ जिनेन्द्रदेव के लक्षणों का चिंतवन करते हुए तपश्चरण करे। इसमें भी दिव्य लक्षण, विजयाश्रित लक्षण, परमलक्षण और स्वलक्षण ऐसे चार भेद हो जाते हैं।
४. सुन्दरता-जिनकी परम्परा अक्षुण्ण है। ऐसे दिव्य आदि सौंदर्यों की इच्छा करता हुआ मुनि अपने शरीर के सौंदर्य को मलिन करता हुआ कठिन तपश्चरण करे। इसके प्रभाव से ही उसे अगले भवों में दिव्य सौंदर्य, विजयाश्रित सौंदर्य, परमसौंदर्य और स्वसौंदर्य प्राप्त होगा।
५. प्रभा-मुनि अपने शरीर से उत्पन्न होने वाली प्रभा का त्याग कर शरीर को रज, पसीने आदि से मलिन रखते हुए अरहंत देव की प्रभा का ध्यान करे। इसी के प्रभाव से वह अगले भवों में दिव्य प्रभा, विजयाश्रित प्रभा, परम प्रभा और स्वप्रभा को प्राप्त कर लेता है।
६. मण्डल-जो मुनि अपने मणि और दीपक आदि के तेज को छोड़कर तेजोमय जिनेन्द्रदेव की आराधना करता है वह प्रभामण्डल से उज्ज्वल हो उठता है अर्थात् वह दिव्य प्रभा मण्डल, विजयाश्रित प्रभा मण्डल, परम प्रभा मण्डल और स्वप्रभा मण्डल को प्राप्त कर लेता है।
७. चक्र-जो पहले के अस्त्र, शस्त्र और वस्त्र आदि को छोड़कर अत्यंत शांत होता हुआ जिनेन्द्र भगवान की आराधना करता है वह मुनि धर्मचक्र का अधिपति होता है अर्थात् वह इन्द्र का दिव्य चक्र, चक्रवर्ती का विजयाश्रित सुदर्शन चक्र, अरहंत देव का परमचक्र धर्मचक्र और सिद्धों का स्वचक्र-स्वगुण समूह को प्राप्त कर लेता है।
८. अभिषेक-जो मुनि स्थान आदि संस्कार छोड़कर केवली जिनेन्द्र का आश्रय लेता है अर्थात् उनका चिंतवन करता है वह मेरु पर्वत पर उत्कृष्ट जन्माभिषेक को प्राप्त होता है। यहाँ पर भी इन्द्र का दिव्य अभिषेक, चक्रवर्ती का साम्राज्यपद पर विजयाश्रित अभिषेक और तीर्थंकर अरहंत का जन्म काल में जन्माभिषेक समझना चाहिए।
९. नाथता-जो मुनि अपने इस लोक संबंधी स्वामीपने को छोड़कर परम स्वामी श्री जिनेन्द्रदेव की सेवा करता है वह जगत् के जीवों द्वारा सेवनीय होने से सबके नाथपने को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जगत् के सब जीव उसकी सेवा करते हैं। यहाँ पर भी दिव्यनाथता, विजयाश्रितनाथता, परमनाथता और स्वनाथता घटित कर लेना चाहिए।
१०. सिंहासन-जो मुनि अपने योग्य अनेक आसनों के भेदों का त्याग कर दिगम्बर हो जाता है वह सिंहासन पर आरूढ़ होकर तीर्थ को प्रसिद्ध करने वाला तीर्थंकर होता है। यहाँ पर भी क्रम से दिव्य सिंहासन, विजयाश्रित सिंहासन, परमसिंहासन और स्वसिंहासन लगा लेना चाहिए।
११. उपधान-जो मुनि अपने तकिया आदि का अनादर करके परिग्रह रहित हो जाता है और केवल अपनी भुजा पर शिर को रखकर पृथ्वी के ऊँचे-नीचे प्रदेश पर शयन करता है वह महाअभ्युदय को प्राप्त कर जिन हो जाता है। उस समय सब लोग उसका आदर करते हैं और वह देवों के द्वारा बने हुए देदीप्यमान तकिया को प्राप्त होता है। यहाँ भी दिव्य उपधान, विजयाश्रित उपधान, परम उपधान और स्वउपधान समझना चाहिए।
१२. छत्र-जो मुनि शीतल छत्र-छाते आदि अपने समस्त परिग्रह का त्याग कर देता है वह स्वयं देदीप्यमान रत्नों के युक्त तीन छत्रों से सुशोभित होता है अर्थात् गृहस्थावस्था के धूप के निवारक छाता आदि परिग्रह त्यागी मुनि को क्रम से दिव्य छत्र, विजयाश्रित छत्र, परम छत्र और स्वछत्र प्राप्त होते हैं।
१३. चामर-जिसने अनेक प्रकार के पंखाओं के त्याग से तपश्चरण विधि का पालन किया है ऐसे मुनि को जिनेन्द्र पर्याय प्राप्त होने पर चौंसठ चामर ढुलाये जाते हैं। अर्थात् दिव्य चामर, विजयाश्रित चामर और परम चामर संज्ञक चंवर उन पर ढुरते हैं।
१४. घोषणा-जो मुनि नगाड़े तथा संगीत आदि की घोषणा का त्याग कर तपश्चरण करता है उसके विजय की सूचना स्वर्ग के दुंदुभियों के गंभीर शब्दों से घोषित की जाती है। यहाँ पर भी क्रम से दिव्य घोषणा, विजयाश्रित घोषणा और परमघोषणा समझना चाहिए।
१५. अशोकवृक्ष-चूँकि पहले उसने अपने उद्यान आदि की छाया का परित्याग कर तपश्चरण किया था इसलिए अब उसे अरहंत अवस्था में महाअशोक वृक्ष की प्राप्ति होती है। यहाँ पर भी इन्द्र के नंदन वन का अशोक दिव्य अशोक, चक्रवर्ती के उद्यान का विजयाश्रित अशोक और अरहंतदेव का परम अशोक वृक्ष समझना।
१६. निधि-जो अपना योग्य धन छोड़कर निर्ममत्व भाव को प्राप्त होता है समवसरण भूमि में निधियाँ दरवाजे पर खड़ी होकर उसकी सेवा करती हैं। यहाँ पर भी दिव्य निधि, विजयाश्रित निधि और परमनिधि की कल्पना की जा सकती है।
१७. गृहशोभा-जिसकी सब ओर से रक्षा की गई थी ऐसे अपने घर की शोभा को छोड़कर इसने तपश्चरण किया था इसीलिए श्रीमण्डप की शोभा अपने आप इसके सामने आ जाती है। यहाँ पर भी इन्द्र के विमान की शोभा दिव्य गृह शोभा है, चक्रवर्ती के भवन की शोभा विजयाश्रित गृहशोभा है और अरहंतदेव के समवसरण में श्रीमण्डप की शोभा परम गृहशोभा है, अंत में निर्वाणधाम की शोभा स्व-गृह शोभा कही जायेगी।
१८. अवगाहन-जो मुनि तप करने के लिए सघन वन में निवास करता है उसे तीनों जगत् के जीवों के लिए स्थान दे सकने वाली अवगाहन शक्ति प्राप्त हो जाती है अर्थात् उसका ऐसा समवसरण रचा जाता है जिसमें तीनों लोकों के समस्त जीव स्थान पा सकते हैं। यहाँ पर भी इन्द्रों का दिव्य अवगाहन, चक्रवर्ती का विजयाश्रित अवगाहन, अरहंत का परम अवगाहन और सिद्धों का स्व-अवगाहन घटित कर लेना चाहिए।
१९. क्षेत्रज्ञ-जो क्षेत्र, मकान आदि का त्याग कर शुद्ध आत्मा का आश्रय लेता है उसे तीनों जगत को अपने अधीन रखने वाला ऐश्वर्य प्राप्त होता है अर्थात् इन्द्र को दिव्य क्षेत्रज्ञ, चक्रवर्ती को विजयाश्रित क्षेत्रज्ञ, अरहंत को परमक्षेत्रज्ञ और सिद्धों को स्वक्षेत्रज्ञ प्राप्त होता है।
२०. आज्ञा-जो मुनि आज्ञा देने का अभिमान छोड़कर मौन धारण करता है उसकी उत्कृष्ट आज्ञा सुर-असुरगण अपने मस्तक से धारण करते हैं अर्थात् उसकी आज्ञा समस्त जीव मानते हैं। यहाँ भी दिव्य आज्ञा, विजयाश्रित आज्ञा, परम आज्ञा और अंत में स्व आज्ञा प्राप्त होती है।
२१. सभा-जो मुनि अपने इष्ट सेवक तथा भाई आदि की सभा का परित्याग कर देता है उसके अरहंत अवस्था में तीनों लोकों की सभा समवसरण सभा प्राप्त होती है। अर्थात् इंद्र की दिव्य सभा, चक्रवर्ती की विजयाश्रित सभा, अरहंत की परमसभा और सिद्धों की स्व सभा ये क्रम से उसे प्राप्त हो जाती हैं।
२२. कीर्ति-जो सब प्रकार की इच्छाओं का परित्याग कर अपने गुणों की प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चरण करता हुआ स्तुति-निंदा में समान भाव रखता है वह तीनों लोकों के इंद्रों द्वारा प्रशंसित होता है। यहाँ भी क्रम से दिव्य कीर्ति, विजयाश्रित कीर्ति, परमकीर्ति और स्वकीर्ति मिलती है।
२३. वंदनीयता-जिस मुनि ने वंदना करने योग्य अरहंतदेव की वंदना कर तपश्चरण किया था इसीलिए वह वंदना करने योग्य भी पूज्य पुरुषों द्वारा वंदना को प्राप्त हो जाता है। यहाँ भी दिव्य वंदनीयता, विजयाश्रित वंदनीयता, परम वंदनीयता और स्ववंदनीयता इन चारों की प्राप्ति उन वंदना करने वाले मुनि को प्राप्त हो जाती है।
२४. वाहन-जो पादत्राण-जूता और सवारी आदि का त्याग कर पैदल चलता हुआ तपश्चरण करता है। वह कमलों के मध्य में चरण रखने योग्य हो जाता है अर्थात् अरहंत अवस्था में देवगण उनके चरणों के नीचे कमलों की रचना करते हैं। यहाँ भी दिव्यवाहन, विजयाश्रित वाहन, परमवाहन और स्ववाहन घटित करना चाहिए।
२५. भाषा-चूँकि यह मुनि वचनगुप्ति को धारण कर अथवा हित-मित वचनरूप भाषा समिति का पालन कर तपश्चरण में स्थित हुआ था इसलिए ही इसे समस्त सभा को संतुष्ट करने वाली दिव्यध्वनि प्राप्त हुई है। यहाँ भी इंद्रों की दिव्यभाषा, चक्रवर्ती की विजयाश्रित भाषा, अरहंत की परमभाषा समझना तथा सिद्धों की भाषा नहीं है।
२६. आहार-इस मुनि ने पहले उपवास धारण कर अथवा नियमित आहार और पारणाएं कर तप को तपा था इसलिए ही इसे दिव्यतृप्ति, विजयतृप्ति, परमतृप्ति, अमृततृप्ति ये चारों ही तृप्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
२७. सुख-यह मुनि कामजनित सुख को छोड़कर चिरकाल तक तपश्चरण में स्थिर रहा है। इसलिए ही यह सुख स्वरूप होकर परमानंद को प्राप्त हुआ है। यहाँ पर भी क्रम से इसे दिव्यसुख, विजयसुख, परमसुख और स्वसुख प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार से ये सत्ताईस सूत्रपद कहे गये हैं। इनके होने पर मुनिचर्या आदर्शचर्या हो जाती है।
इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है? संक्षेप में इतना ही कह देना ठीक है कि मुनि संकल्परहित होकर जिस प्रकार की जिस-जिस वस्तु का परित्याग करता है उसका तपश्चरण उसके लिए वही-वही वस्तु उत्पन्न कर देता है। जो आगम में कही हुई जिनेन्द्रदेव की आज्ञा को प्रमाण मानता हुआ तपस्या धारण करता है अर्थात् दीक्षा ग्रहण करता है उसी के वास्तविक पारिव्राज्य होता है।
अनेक प्रकार के वचनों के जाल में निबद्ध तथा युक्ति से बाधित अन्य लोगों के पारिव्राज्य को छोड़कर इसी सर्वोत्कृष्ट पारिव्राज्य को ग्रहण करना चाहिए। यह तीसरा पारिव्राज्य परमस्थान होता है।
इन्द्रपद प्राप्त करना ‘सुरेन्द्रता’ नाम का चौथा ‘परमस्थान’ होता है। जिन्होंने पारिव्राज्य नामक परम स्थान को प्राप्तकर अंत में सल्लेखना विधि से शरीर को छोड़ा है।
उन्हीं को यह ‘सुरेन्द्रता’ परम स्थान प्राप्त होता है। कोई भी पुण्यशाली मुनि सन्यास विधि से मरणकर देवगति नामकर्म के उदय से स्वर्ग में इंद्र पर्याय को प्राप्त होता है। वहाँ उपपादगृह में उपपादशय्या से जन्म होता है। अंतर्मुहूर्त में ही छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाने से नवयौवन सम्पन्न दिव्य वैक्रियिक शरीर बन जाता है।
उस शरीर में नख, केश, रोम, चर्म, रुधिर, मांस, हड्डी एवं मल मूत्रादि धातुएं नहीं होती हैं। देव विमान में उत्पन्न होते ही बिना खोले किवाड़ खुल जाते हैं। उसी समय आनन्दभेरी का शब्द होने लगता है। उस भेदी के शब्द को सुनकर परिवार के देव-देवियाँ ‘जय, जय, नंद आदि शब्दों को बोलते हुए वहाँ आ जाते हैं।
किल्विष देव घंटा पटह आदि बजाने लगते हैं। गंधर्व देव नृत्य प्रारंभ कर देते हैं। सब देव-देवियों को देखकर नवीन जन्म को प्राप्त हुए इन्द्र कौतुक से सबको देखते हैं। तत्क्षण ही उन्हें अवधिज्ञान प्रकट हो जाता है।
तब वे अपने इन्द्र जन्म को जानकर प्रसन्नता से अपने परिकर की ओर देखते हैं। नियोग के अनुसार द्रह में स्नान करके वस्त्राभूषण धारणकर सर्वप्रथम जिनमंदिर में जाकर जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का १००८ कलशों से अभिषेक करते हैं, जल, चंदन आदि से पूजा करते हैं।
पुन: अपने स्थान पर आकर सिंहासन पर आरूढ़ होकर सभी देव-देवियों को संतुष्ट करते हुए अपने-अपने कार्यों में नियुक्त कर देते हैं।
सौधर्म इन्द्र के दश प्रकार के परिवार होते हैं-प्रतीन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, लोकपाल, आत्मरक्ष, पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक। एक इन्द्र के एक ही प्रतीन्द्र होते हैं।
वे आज्ञा ऐश्वर्य के सिवाय बाकी के सभी वैभव में इंद्र के सदृश होते हैं। सौधर्म इन्द्र के ८४ हजार सामानिक देव होते हैं। तेंतीस त्रायस्त्रिंश होते हैं।
सोम, यम, वरुण और कुबेर नाम के ४ लोकपाल होते हैं। तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्ष देव होते हैं। पारिषद देवों में अभ्यंतर पारिषद की संख्या बारह हजार, मध्यम पारिषद की चौदह हजार और बाह्य पारिषद की सोलह हजार है। अनीक जाति के देवों में सेनाओं के भेद से ७ भेद होते हैं।
वृषभ, अश्व, रथ, गज, पदाति, गंधर्व और नर्तक ये ७ सेनाएं हैं। इन सातों में से प्रत्येक सेना सात-सात कक्षाओं से युक्त रहती है। उनमें से प्रथम सेना का प्रमाण अपने सामानिक देवों के बराबर है। इससे आगे सप्तम सेना पर्यंत उससे दूना-दूना है। सौधर्म इन्द्र की बैल की प्रथम सेना की प्रथम कक्षा में चौरासी हजार बैल हैं।
इससे आगे सात कक्षाओं तक इस जल सेना का प्रमाण एक करोड़ छह लाख अड़सठ हजार है। अश्व, रथ आदि सेनाएं भी इतने-इतने मात्र हैंं, सौधर्म इन्द्र के समस्त अनीकों की संख्या सात करोड़ छ्यालीस लाख, छियत्तर हजार प्रमाण है। इन सातों अनीकों में जो अधिपति देव हैं उनके नाम क्रम से दामयष्टि, हरिदाम, मातलि, ऐरावत, वायु, यशस्क और नीलांजना है।
सौधर्म इन्द्र के आभियोग्य, प्रकीर्णक और किल्विषक देवों का प्रमाण असंख्यात है। सौधर्म इन्द्र के १ लाख ६० हजार देवियाँ हैं और उनमें आठ महादेवियाँ हैं। आठ महादेवियों में प्रथम देवी का नाम ‘शची’ है। अनुपम लावण्य वाली इन महादेवियों के १६-१६ हजार परिवार देवियाँ हैं तथा इस इन्द्र के ३२ हजार वल्लभिका देवियाँ हैं।
ऐसे कुल मिलाकर ८²१६०००+३२०००=१,६०,००० हो जाती हैं। ८ महादेवियाँ और ३२००० बल्लभाएं ये प्रत्येक ही १६-१६ हजार विक्रिया करने में समर्थ होती हैं। यह सौधर्म इन्द्र बत्तीस लाख विमानों का अधिपति है। ऐसे ही ईशानेन्द्र के २८ लाख आदि विमान माने गये हैं।
सौधर्म-ईशान इन दो स्वर्गों के इन्द्रक विमान ३१ हैं।
h31
उनके नाम ऋतु, विमल, चन्द्र, वल्गु, वीर, अरुण, नंंदन, नलिन, कंचन, रोहित, चंच, मरुत, ऋद्धीश, वैडूर्य, रुचक, रुचिर, अंक, स्फटिक, तपनीय, मेघ, अभ्र, हारिद्र, पद्म, लोहित, वज्र, नंद्यावर्त, प्रभाकर, पृष्ठक, गज, मित्र और प्रभा। ये सभी इन्द्रक एक के ऊपर एक होने से भवनों के खन के समान हैं। एक-एक इन्द्रक का आपस में अंतराल असंख्यात योजन प्रमाण है।
सब इंद्रक विमान की चारों दिशाओं में श्रेणीबद्ध और विदिशाओं में प्रकीर्णक विमान हैं। सभी इंद्रक और श्रेणीबद्ध विमान गोल हैंं। दिव्य रत्नों से निर्मित हैं और ध्वजा तोरणों से सुशोभित हैं। इनके अंतराल में विदिशाओं में पुष्पों के सदृश रत्नमय उत्तम प्रकीर्णक विमान हैं।
इस सौधर्म स्वर्ग में ३१ इन्द्रक, चार हजार तीन सौ इकहत्तर श्रेणीबद्ध और इकतीस लाख, पंचानवे हजार, पाँच सौ अट्ठानवे प्रकीर्णक विमान हैं, ये सब मिलाकर ३१+४३७१+३१९५५९८=३२००००० हो जाते हैं।
सभी इंद्रक विमान संख्यात योजन प्रमाण वाले हैं। जिनमें से पहला ऋतु नाम का इंद्रक विमान ४५ लाख योजन प्रमाण वाला है। सभी श्रेणीबद्ध विमान असंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं।
प्रकीर्णक विमानों में कुछ संख्यात योजन वाले हैं कुछ असंख्यात योजन वाले हैं। ये सभी विमान सुन्दर-सुन्दर तटवेदी, गोपुरद्वार, तोरण और पताकाओं से सुशोभित हैं। ३१ इंद्रकों में जो अंतिम ‘प्रभा’ नाम का इंद्रक है, उसके दक्षिण श्रेणी में जो अट्ठारहवाँ श्रेणीबद्ध विमान है, उसमें सौधर्म इन्द्र रहता है।
वहाँ पर ८४ हजार योजन विस्तृत एक नगर बना हुआ है, जिसका नाम है सौधर्म इन्द्र नगर। यह नगर सुवर्णमय परकोटे से वेष्ठित है। परकोटे के अग्रभाग पर कहीं पर पंक्तिबद्ध ध्वजाएं हैं और कहीं पर मयूराकार यंत्र शोभायमान हो रहे हैं।
इस नगर में सौधर्म इन्द्र का प्रासाद (भवन) है जो कि १२० योजन विस्तार वाला है और ६०० योजन ऊँचा है। इस भवन में सौधर्म इन्द्र अपनी १ लाख ६० हजार इन्द्राणियों सहित निरन्तर सुख समुद्र में मग्न रहता है। इन्द्र के नगर के बाहर पाँच परकोटे माने गये हैं। उन्हें वेदी भी कहते हैं।
इन पाँचों परकोटों के बीच में चार अंतराल हो जाते हैं। प्रथम अंतराल १३ लाख योजन का है, दूसरा ६३ लाख योजन का है, तीसरा ६४ लाख योजन का है और चौथा ८४ लाख योजन वाला है। प्रथम अंतराल में सौधर्म इन्द्र के आत्म रक्षक देव अपने-अपने परिवार सहित रहते हैं।
दूसरे में पारिषद जाति के देव, तीसरे में सामानिक देव और चौथे में आरोहक, अनीक, आभियोग्य, किल्विषक, प्रकीर्णक तथा त्रायस्त्रिंश देव सपरिवार रहते हैं। इंद्र भवन के चारों ओर इन्द्राणी और वल्लभाओं के भवन बने हुए हैं। इस पाँचवें परकोटे के आगे ‘इन्द्रपुर’ की चारों ही दिशाओं में दिव्य वनखण्ड हैं, इनको ही ‘नंदनवन’ कहते हैं।
इनमें से पूर्व दिशा में अशोक वन है, दक्षिण में सप्तच्छदवन हैं, पश्चिम में चंपक वन हैं और उत्तर में आम्रवन हैं। इन चारों दिशाओं के वनों में प्रत्येक के मध्य में एक-एक चैत्यवृक्ष हैं। ये जंबूवृक्ष के समान प्रमाण वाले पृथ्वीकायिक हैं। इन एक-एक चैत्यवृक्षों के चारों तरफ ‘पल्यंकासन’ से जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
इस प्रकार ये वनखण्ड चैत्यवृक्षों से सुशोभित, पुष्करिणी, वापी, मणिमय देव भवनों से संयुक्त, फल पुष्पादि से परिपूर्ण होकर सबको आनंद देने वाले हैं अत: ‘नंदनवन’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
सौधर्म इन्द्र नगर के मध्य में सौधर्म इन्द्र का प्रासाद है। इन्द्र के गृहों के आगे ३६ योजन ऊँचे १ योजन मोटे ऐसे स्तंभ हैं जिन्हें मानस्तंभ भी कहते हैं। इनमें १२ धाराएं हैं अर्थात् ये स्तंभ बारह कोण संयुक्त गोल हैं।
१ योजन मोटे-गोल की परिधि बारह कोश होने से १-१ कोश की धाराएं कोण बने हुए हैं। इन मानस्तंभों में उत्तम रत्नमय करण्डक (पिटारे) हैं। प्रत्येक करण्डक ५०० धनुष विस्तृत और एक कोश लंबे हैं। रत्नमय सींकों के समूहों के लटकते हुए ये सब संख्यातों करण्डक शक्रादि से पूजय अनादि निधन महारमणीय हैं।
इन सौधर्म इन्द्र के मान स्तंभों के करण्डकों से भरतक्षेत्र के तीर्थंकर के लिए दिव्य आभरण, भूषण आदि लाये जाते हैं। ऐसे ही ईशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में भी मानस्तंभ हैं जिनसे इन्द्र क्रमश: ऐरावत, पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह के तीर्थंकरों के लिए दिव्य वस्त्रादि लाते हैं।
इन इन्द्र के भवनों के आगे न्यग्रोध वृक्ष होते हैं जो कि जम्बूवृक्ष के समान पृथ्वीकायिक हैं। इनके मूल में प्रत्येक दिशा में जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं जिनके चरणों में सतत इन्द्रादिगण नमस्कार करते रहते हैं। उस मानस्तंभ के पास ईशान दिशा में ८ योजन ऊँचा, लंबा और चौड़ा उपपाद गृह है उसमें दो रत्नमयी उपपाद शय्या है।
यहीं पर इन्द्र का जन्मस्थान है। ईशान दिशा में ही उपपादगृह के समीप जिनमंदिर स्थित हैं जो कि अनेक शिखरों से युक्त हैं। इस मंदिर में रत्नमयी १०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं।
इन्द्र भवन से ईशान दिशा में ३०० कोश ऊँची, ४०० कोश लम्बी, २०० कोश विस्तृत ‘सुधर्मा’ नामक सभा है। इस सभाभवन में इन्द्र के सिंहासन के आगे ८ पट्टदेवियों के ८ आसन हैं, इन महादेवियों के आसन के बाहर पूर्व आदि दिशा में क्रम से सोम, यम, वरुण और कुबेर इन चार लोकपालों के ४ आसन हैं।
इन्द्रासन के आग्नेय, दक्षिण और नैऋत्य दिशा में अभ्यंतर, मध्यम और बाह्य पारिषद देवों के क्रम से १२ हजार, १४ हजार और १६ हजार आसन हैं। नैऋत्य दिशा में ही त्रायस्त्रिंश देवों के ३३ आसन हैं। सेनानायकों के ७ आसन पश्चिम दिशा में हैं। वायव्य और ईशान दिशा में क्रम से ४२-४२ हजार आसन हैं।
चारों ही दिशाओं में अंगरक्षक के भद्रासन हैं। सौधर्मेन्द्र के पूर्वादि दिशाओं में ८४ हजार आसन हैं। इस प्रकार सुधर्मा सभा में आसनों की व्यवस्था है। सौधर्म इन्द्र का ‘बालुक’ नामक यान-विमान होता है। यह १ लाख योजन लम्बा चौड़ा है। इसमें आसन, शय्या, घूपघट, चामर आदि विद्यमान हैं। ध्वजाएं फहराती रहती हैं।
सुन्दर द्वार हैं और वज्रमय कपाट लगे हुए हैं। सौधर्म इन्द्र के आभियोग्य देवों का अधिपति ‘बालक’ नामक देव है। यह देव विक्रिया से १ लाख योजन प्रमाण हाथी का रूप बना लेता है। इस हाथी के बत्तीस मुख होते हैं। एक-एक मुख में चार-चार दांत होते हैं। एक-एक दांत पर निर्मल जल से युक्त १-१ सरोवर होता है।
एक-एक सरोवर में एक-एक कमल बने रहते हैं। इन कमल वनों में ३२-३२ महाकमल होते हैं। विक्रिया से बनाये गये ये कमल सुवर्णमय हैं। एक-एक कमल पर १-१ नाट्यशाला होती हैं। उस १-१ नाट्यशाला में ३२-३२ अप्सराएं नृत्य करती रहती हैं।
सौधर्म इन्द्र भगवान के जन्मोत्सव आदि अवसर में इसी ऐरावत हाथी पर बैठकर आता है। लोकपालों में से प्रत्येक के विमानों की संख्या ६ लाख, छ्यासठ हजार छ: सौ छ्यासठ है। प्रत्येक लोकपाल के तीन करोड़ पचास लाख देवांगनाएं होती हैं।
इन्द्र-इन्द्राणी अथवा देवगण मूल शरीर से कहीं भी नहीं जाते-आते हैं। तीर्थंकरों के कल्याणकों में अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करने हेतु या अन्यत्र कहीं भी क्रीड़ा हेतु जाने में ये इन्द्रादि देव विक्रिया से निर्मित शरीर से ही गमनागमन करते हैं, मूल शरीर से नहीं। ये देवगण अंतर्मुहूर्त में शरीर की नई-नई विक्रिया करते रहते हैं।
इसमें इन्हें कष्ट का अनुभव नहीं होता है प्रत्युत् आनंद का अनुभव होता है। सौधर्म स्वर्ग में उत्कृष्ट आयु २ सागर प्रमाण है। जघन्य आयु १ पल्य है। इनमें देवियों की जघन्य आयु १ पल्य से कुछ अधिक और उत्कृष्ट आयु ५ पल्य है। सौधर्म स्वर्ग में शरीर की ऊँचाई ७ हाथ प्रमाण है। जिनदेवो की आयु २ सागर है।
वे २००० वर्षों के बीत जाने पर दिव्य अमृतमय मानसिक आहार ग्रहण करते हैं और ये देव दो पक्ष बाद उच्छ्वास ग्रहण करते हैं। जिनकी आयु पल्य प्रमाण है वे पाँच दिन में आहार ग्रहण करते हैं। सौधर्म स्वर्ग के देव-देवियाँ परस्पर में शरीर से कामसेवन करते हैं।
ये देव पहले नरक तक विक्रिया करते हैं। इनका अवधिज्ञान भी पहले नरक तक ही जानने में समर्थ है। जब एक इन्द्र मरण को प्राप्त होता है तो उसी स्थान पर दूसरे इन्द्र का जन्म हो जाता है। कदाचित् इन्द्र के मरने के बाद दूसरे इन्द्र के जन्म लेने में अधिक से अधिक अंतर पड़ जावे तो छह मास का पड़ सकता है।
इसके बाद नियम से दूसरा इन्द्र जन्म ले लेता है। देवों में अकालमृत्यु नहीं होती है। अत: वे अपनी आयु पूरी करके ही मरण को प्राप्त होते हैं। ‘सुरेन्द्रता’ नाम के परमस्थान में सौधर्म इन्द्र का पद प्रमुख है क्योंकि तीर्थंकरों के कल्याणकों में प्रमुखता सौधर्म इन्द्र की ही रहती है। वैसे ईशान इन्द्र आदि इन्द्रों के पद प्राप्त करना भी इस परमस्थान में गर्भित है। सौधर्म इन्द्र नियम से एक भवावतारी ही होता है। ईशान इंद्र आदि उत्तर इंद्रों के लिए कोई नियम नहीं है।
यहाँ इन्द्र पद सम्यग्दर्शन सहित घोर तपश्चरण करने वाले महामुनियों को ही प्राप्त होता है। अत: सप्त परमस्थानों में पारिव्राज्य परमस्थान के बाद में इस परमस्थान का नाम आता है। जो भव्यजीव इस चतुर्थ परमस्थान को प्राप्त कर लेता है वह क्रम से साम्राज्य, आर्हन्त्य और निर्वाण परमस्थान का अधिकारी हो जाता है।
जिसमें चक्ररत्न के साथ-साथ निधियों और रत्नों से उत्पन्न हुए भोगोपभोग रूपी सम्प्रदायों की परम्परा प्राप्त होती है ऐसे चक्रवर्ती के बड़े भारी राज्य को प्राप्त करना ‘साम्राज्य’ नाम का पांचवां परमस्थान कहलाता है। इस पद के भोक्ता छह खण्ड पृथ्वी पर एक छत्र शासन करने वाले चक्रवर्ती कहलाते हैं।
अब प्रश्न यह होता है कि इस चक्रवर्ती पद में परिवार और विभूति कितनी होती है? चक्रवर्ती के शरीर में वज्र की हड्डियों के बंधन और वज्र के ही वेष्टन रहते हैं और वह वज्रमयकीलियों से कीलित रहता है। इसलिए अभेद्य रहता है अर्थात् चक्रवर्ती को वज्रवृषभनाराच संहनन रहता है।
उनके शरीर का आहार और अंगोपांग बहुत ही सुन्दर मनोहर रहते हैं अर्थात् उनके समचतुरस्र संस्थान रहता है। छह खण्ड के सभी राजाओं से अधिक उनके शरीर में बल रहता है। उनके सुदर्शन नामक चक्ररत्न के प्रभाव से छह खण्ड के सभी राजा उनकी आज्ञा को शिर से धारण करते हैं।
बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनके चरणों की सेवा करते हैं। अच्छी-अच्छी रचना वाले बत्तीस हजार देश होते हैं जिससे चक्रवर्ती का लम्बा चौड़ा क्षेत्र बहुत ही अच्छा मालूम पड़ता है। ऐरावत हाथी के समान चौरासी लाख हाथी होते हैं। सूर्य की चाल के साथ स्पर्धा करने वाले, दिव्य रत्नों से निर्मित चौरासी लाख ही रथ होते हैं।
पृथ्वी, जल तथा आकाश में समान रूप से चलने में समर्थ ऐसे अट्ठारह करोड़ घोड़े रहते हैं। योद्धाओं के मर्दन में प्रसिद्ध ऐसे चौरासी करोड़ पदाति-पैदल चलने वाले सिपाही रहते हैं। एक चक्रवर्ती के छ्यानवे हजार रानियाँ होती हैं जिनमें बत्तीस हजार कन्याएं आर्यखण्ड की रहती हैं, विद्याधरों की बत्तीस हजार कन्याएं होती हैं एवं म्लेच्छ खण्ड के राजाओं की कन्याएं बत्तीस हजार होती हैं ऐसे कुल छ्यानवे हजार रानियाँ होती हैं।
इन रानियों के साथ रति क्रीड़ा में चक्रवर्ती विक्रिया के प्रभाव से एक साथ ही एक कम ९६ हजार रूप बना लेते हैं। बत्तीस हजार नाट्यशालाएं होती हैं। इन्द्र के नगर के समान बहत्तर हजार नगर होते हैं। नंदनवन सदृश बगीचों से रम्य छ्यानवे करोड़ गांव होते हैं। निन्यानवे हजार द्रोणमुख अर्थात् बंदरगाह होते हैं।
अड़तालीस हजार पत्तन होते हैं। कोट, परकोटे, अटारियां और परिखाओं से शोभायमान सोलह हजार खेट होते हैं। कुभोगभूमिया मनुष्यों से व्याप्त छप्पन अंतरद्वीप होते हैं जिनके चारों ओर परिखा बनी रहती हैै ऐसे चौदह हजार संवाह-पहाड़ों पर बसने वाले नगर होते हैं।
चावलों को पकाने वाले ऐसे पाकशालाओं में एक करोड़ हण्डे होते हैं। जिनके साथ बीज बोने की नाली लगी हुई है ऐसे एक लाख करोड़ हल होते हैं। दही मथने के शब्दों से पथिकों को आकर्षित करने वाली ऐसे तीन करोड़ तज अर्थात् गोशालाएं रहती हैं। जहाँ रत्नों के व्यापार होते हैं ऐसे सात सौ कुक्षिवास होते हैं।
निर्जन प्रदेश और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ी विभागों से विभक्त ऐसे अट्ठाईस हजार सघन वन होते हैं। जिनके चारों ओर रत्नों की खानें विद्यमान हैं ऐसे अट्ठारह हजार म्लेच्छ राजा होते हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती के काल, महाकाल, नैस्सप्र्य, पांडुक, पद्म, माणव, पिंग, शंख और सर्वरत्न इन नामो से प्रसिद्ध ऐसी नव निधियाँ होती हैं।
जिनसे चक्रवर्ती घर की आजीविका से बिल्कुल निश्चित रहते हैं। ‘काल’ नाम की निधि से प्रतिदिन लौकिक शास्त्र, व्याकरण आदि की उत्पत्ति होती रहती है तथा यही निधि वीणा, बांसुरी आदि इन्द्रियों के मनोज्ञ विषय भी प्रदान करती है। महाकाल नाम की निधि असि, मषि आदि छह कर्मों के साधनभूत द्रव्य तथा सम्प्रदायों को उत्पन्न करती है। नैसर्प निधि से शय्या, आसन, मकान आदि मिलते रहते हैं।
पाण्डुक निधि से धान्यों की उत्पत्ति होती है तथा छहों प्रकार के रस भी मिलते रहते है। पद्मनिधि रेशमी, सूती आदि सब तरह के वस्त्रों को देती रहती है। पिंगल निधि से दिव्य आभरण मिलते रहते हैं।
माणव निधि से नीतिशास्त्र तथा अनेक प्रकार के शस्त्रों की उत्पत्ति होती है। शंख निधि से सुवर्ण उत्पन्न होता है और सर्वरत्न नाम की निधि से नील, मरकत, पद्मराग आदि नाना मणिरत्नों की उत्पत्ति होती रहती है।
चक्रवर्ती के चौदह रत्न होते हैं जिनमें सात अजीव और सात सजीव होते हैं। चक्र, छत्र, दण्ड, असि, मणि, चर्म और काकिणी ये सात अजीव रत्न हैं एवं सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, स्थपति (सिलावट) और पुरोहित ये सात सजीव रत्न हैं। चक्र, दण्ड, असि और छत्र ये चार रत्न आयुधशाला में उत्पन्न होते हैं।
मणि, चर्म तथा काकिणी ये तीन रत्न श्रीगृह में प्रगट होते हैं। स्त्री, हाथी और घोड़ा इन तीन की उत्पत्ति विजयार्ध शैल पर होती है और अन्य रत्न निधियों के साथ-साथ अयोध्या में ही उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती सम्राट स्त्रीरत्न के साथ-साथ छहों ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रियों के योग्य भोगों को भोगता है।
चक्रवर्ती के सुभद्रा नाम का स्त्री रत्न होता है। चक्रवर्ती के दशांग भोग माने गये हैं-रत्न सहित नौ निधियाँ, रानियाँ, नगर, शय्या, आसन, सेना, नाट्यशाला, भाजन, भोजन और वाहन ये दश भोग के साधन होते हैं। चक्रवर्ती के रत्न निधि और स्वयं की रक्षा करने में तत्पर ऐसे सोलह हजार गणबद्ध देव होते हैंं जो हाथ में तलवार धारण कर रक्षा करते हैं। चक्रवर्ती के घर को घेरे हुए ‘क्षितिसार’ नाम का कोट होता है।
देदीप्यमान रत्नों के तोरणों से युक्त ‘सर्वतोभद्र’ नाम का गोपुर रहता है। उनकी बड़ी भारी छावनी के ठहरने का स्थान ‘नंद्यावर्त’ नाम का है। सब ऋतुओं में सुख देने वाला ऐसा ‘वैजयन्त’ नाम का महल होता है। बहुमूल्य रत्नों से जड़ी हुई, दिक्स्वास्तिका नाम की सभाभूमि होती है। टहलते समय हाथ में लेने के लिए मणियों की बनी हुई ‘सुविधि’ नाम की छड़ी रहती है।
सब दिशाएं देखने के लिए ‘गिरिकूटक’ नाम का राजमहल होता है। चक्रवर्ती के नृत्य देखने के लिए ‘वर्धमानक’ नाम की नृत्यशाला होती है। ग्रीष्म के संताप दूर करने के लिए बड़ा भारी ‘धारागृह’ रहता है।
वर्षा ऋतु में निवास करने के लिए ‘गृहकूटक’ नाम का महल रहता है। सफेद चूना से पुता हुआ ‘पुष्करावर्त’ नाम का खास महल होता है। ‘कुबेरकांत’ नाम का भण्डार गृह रहता है जो कभी भी खाली नहीं होता है।
‘वसुधारक’ नाम का बड़ा भारी अटूट कोठार रहता है और ‘जीमूत’ नाम का बहुत बड़ा स्नानगृह होता है।
‘अवतंसिका’ नाम की सुन्दर माला होती है। ‘देवरम्या’ नाम की सुन्दर चांदनी होती है, ‘सिंहवाहिनी’ नाम की शय्या रहती है तथा ‘अनुत्तर’ नाम का सिंहासन होता है। विजयार्ध कुमार के द्वारा प्रदत्त ‘अनुपमान’ नाम के चंवर होते हैं। बहुमूल्य रत्नों से निर्मित ‘सूर्यप्रभ’ नाम का देदीप्यमान छत्र होता है।
विद्युत् की दीप्ति को तिरस्कृत करने वाले ‘विद्युत्प्रभ’ नाम के दो सुन्दर कुण्डल होते हैं। ‘विषमोचिका’ नाम की खड़ाऊँ होती हैं जो कि चक्रवर्ती के अतिरिक्त दूसरे के पैर का स्पर्श होते ही विष छोड़ने लगती है।
‘अभेद्य’ नाम का कवच रहता है। दिव्य शस्त्रों से सुसज्जित ‘अजितंजय’ नाम का रथ होता है। जिसकी प्रत्यञ्चा के आघात से समस्त संसार कांप उठे ऐसा ‘वज्रकांड’ नाम का धनुष होता है जो कभी व्यर्थ नहीं जाते ऐसे ‘अमोघ’ नाम के बाण होते हैं। वज्र से निर्मित ऐसी ‘वज्रतुण्डा’ नामक शक्ति (शस्त्र) होती है। ‘सिंहाटक’ नाम का भाला होता है।
रत्नों से जिसकी मूठ बनी हुई है ऐसी ‘लोहवाहिनी’ नाम की छुरी रहती है। वज्र के समान ‘मनोवेग’ नाम का कणप (अस्त्रविशेष) रहता है। ‘सौनन्दक’ नाम की उत्तम तलवार होती है। भूतों के मुखों से चिन्हित ‘भूतमुख’ नाम का खेट (अस्त्रविशेष) रहता है।
‘सुदर्शन’ नाम का चक्ररत्न होता है, ‘चण्डवेग’ नाम का दण्ड रत्न होता है। ‘वज्रमय’ ‘चर्मरत्न’ रहता है जिसके बल से चक्रवर्ती की सेना जल के उपद्रव से बच जाती है। ‘चूड़ामणि’ नाम का चिंतामणि रत्न रहता है। ‘चिंताजननी’ नाम का काकिणी रत्न होता है जो विजयार्ध पर्वत की गुफाओं के अंधकार को दूर करता है।
‘अयोध्य’ नाम का सेनापति रत्न होता है। समस्त धार्मिक क्रियाओं में कुशल ‘बुद्धिसागर’ नाम का पुरोहित रत्न रहता है। ‘कामवृष्टि’ नाम का गृहपति रत्न होता है।
राजभवन आदि के निर्माण में कुशल ‘भद्रमुख’ नाम का शिलावट रत्न-इंजीनियर रहता है। ‘विजय-पर्वत’ नाम का सफेद हाथी होता है। विजयार्ध पर्वत की गुफा के मध्य भाग को लीला मात्र में उल्लंघन करने वाला ‘पवनञ्जय’ नाम का घोड़ा होता है तथा ‘सुभद्रा’ नाम का स्त्रीरत्न होता है।
चक्रवर्ती के इन दिव्य रत्नों की देवगण सदा रक्षा किया करते हैं।
चकव्रर्ती के बारह योजन तक गंभीर आवाज पहुँचाने वाली ऐसी ‘आनन्ददायिनी’ नाम की बारह भेरियां होती हैं। इसी प्रकार के ‘विजय घोष नाम के बारह पटह नगाड़े होते हैं। ‘गंभीरावर्त’ नाम के चौबीस शंख होते हैं। वायु के झकोरे से उड़ती हुई और चक्रवर्ती के यश को फैलाती हुई अड़तालीस करोड़ ‘पताकाएं’ होती हैं। चक्रवर्ती को हाथ में पहनने के लिए ‘वीरांगद’ नाम के रत्ननिर्मित उत्तम कड़े होते हैं।
‘महाकल्याण’ नाम का दिव्य भोजन होता है जो कि उनको अतिशय तृप्ति और पुष्टि करता है। जिसे अन्य कोई नहीं पचा सकते ऐसे गरिष्ठ, स्वादिष्ट और सुगंधित ‘अमृतगर्भ’ नाम के मोदक आदि भक्ष्य पदार्थ होते हैं।
‘अमृतकल्प’ नाम के खाद्य पदार्थ एवं ‘अमृत’ नाम के दिव्य पानक-पीने योग्य पदार्थ होते हैं। चक्रवर्ती के ये सब भोगोपभोग के साधन उसके पुण्यरूप कल्पवृक्ष के ही फलरूप से फलते हैं।
उन्हें अन्य कोई नहीं भोग सकता है और वे संसार में अपनी बराबरी नहीं रखते हैं। चक्रवर्ती के बंधु, कुल-परिवार का प्रमाण साढ़े तीन करोड़ होता है और संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियाँ होती हैं।
ये सब चक्रवर्ती का वैभव उन्हें ही प्राप्त होता है जो ‘सज्जाति, सद्गर्हस्थ, पारिव्राज्य और सुरेन्द्रता नाम के चार परम स्थानों को प्राप्त कर चुके हैं।
जो मुनिव्रत धारण कर सम्यक्त्व सहित घोर तपश्चरण करते हैं वे ही चक्रवर्ती के साम्राज्य रूप इस पाँचवें परम स्थान के स्वामी होते हैं।
अर्हंत परमेष्ठी का भाव अथवा कर्मरूप जो उत्कृष्ट क्रिया है उसे आर्हन्त्य क्रिया कहते हैं। इस क्रिया में स्वर्गावतार आदि महाकल्याणरूप संपदाओं की प्राप्ति होती है।
स्वर्ग में अवतीर्ण हुए तीर्थंकर महापुरुष को जो पंचकल्याणक रूप संपदाओं का मिलना है उसे ही आर्हन्त्य नाम का छठा परमस्थान जानना चाहिए।
जिन्होंने सोलहकारण भावनाओं को भाते हुए तीर्थंकर के पादमूल में अथवा सामान्य केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में तीर्थंकर नामक नामकर्म की प्रकृति का बंध कर लिया है, ऐसे महामुनि स्वर्ग में जाकर इन्द्र-अहमिन्द्र आदि उत्तम पद को प्र्राप्त कर लेते हैं।
वहाँ के सुखों का अनुभव करते हुए जब उनकी आयु छह महीने की शेष रह जाती है तब यहाँ मत्र्यलोक में जिस क्षत्रिय महाराज के यहाँ उनका जन्म होने को होता है, इन्द्र की आज्ञा से कुबेर उस नगरी को स्वर्गपुरी के समान सुन्दर सजाकर माता के आंगन में प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ प्रमाण रत्नों की वर्षा करना शुरू कर देता है।
तीर्थंकर शिशु के गर्भ में आने के पूर्व ही माता वृषभ आदि उत्तम-उत्तम सोलह स्वप्नों को देखती हैं। श्री, ह्री आदि देवियाँ इन्द्र की आज्ञा से माता की सेवा में तत्पर हो जाती हैं।
जब वह स्वर्ग का इन्द्र अपनी आयु पूर्णकर माता के गर्भ में अवतीर्ण होता है तब इन्द्रादि देवगण आसन के कंपायमान होने से भगवान का गर्भावतार जानकर मत्र्यलोक में आकर माता-पिता की पूजा कर गर्भकल्याणक उत्सव मनाते हैं। नव महीने बाद तीर्थंकर का जन्म होते ही इन्द्र महावैभव सहित यहाँ आकर बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से महाभिषेक आदि क्रिया सम्पन्न करके जन्मकल्याणक महोत्सव मनाते हैं।
तीर्थंकर महापुरुष को राज्य अनुशासन करने के बाद अथवा किसी को कुमारावस्था में ही वैराग्य हो जाने से जब वे दीक्षा के लिए तैयार होते हैं, तब इन्द्रों द्वारा प्रभु का दीक्षा कल्याणक उत्सव मनाया जाता है। दीक्षा लेकर तपश्चरण करते हुए जब केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब इंद्र की आज्ञा से समवसरण की रचना की जाती है। उस समय इन्द्रगण बड़ी भक्ति से आकर ज्ञानकल्याणक महोत्सव मनाते हैं।
इसी समय तीर्थंकर प्रकृति उदय में आती है और यह समवसरण आदि वैभव आर्हन्त्य वैभव कहलाता है। मुख्यरूप से यही आर्हन्त्य अवस्था छठा परमस्थान है। पुन: बहुत काल तक श्रीविहार करते हुए भगवान असंख्य प्राणियों को धर्मामृत पान कराते हैं। पुन: आयु के अंत में निर्वाणधाम को प्राप्त कर लेते हैं।
उस समय भी इन्द्रों द्वारा निर्वाणकल्याणक उत्सव किया जाता है। इस प्रकार से गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक कहलाते हैं। केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही तीर्थंकर का परमौदारिक शरीर पृथ्वी से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है। उस समय तीनों लोकों में अतिशय क्षोभ उत्पन्न होता है और सौधर्म आदि इन्द्रों के आसन कंपायमान हो जाते हैं।
भवनवासी देवों के यहाँ अपने आप शंख का नाद होने लगता है, व्यंतरवासी देवों के यहाँ भेरी बजने लगती है, ज्योतिषी देवों के यहाँ घण्टा बजने लगता है।
इन्द्रों के मुकुट के अग्रभाग स्वयमेव झुक जाते हैं और कल्पवृक्षों से पुष्पों की वर्षा होने लगती है। इन सभी कारणों से इन्द्र और देवगण तीर्थंकर के केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर भक्तियुक्त होते हुए सात पैर आगे बढ़कर भगवान को प्रणाम करते हैं।
जो अहमिन्द्र देव हैं, वे भी आसनों के कंपित होने से केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर सात पैर आगे बढ़कर वहीं से परोक्ष में जिनेन्द्रदेव की वंदना कर अपना जीवन सफल कर लेते हैं।
सोलह स्वर्ग तक के देव-देवियाँ तो भगवान की वंदना के लिए चले जाते हैं। उसी क्षण सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विक्रिया के द्वारा तीर्थंकर के समवसरण (धर्मसभा) को विचित्ररूप से रचता है।
उस समवसरण का अनुपम संपूर्ण स्वरूप वर्णन करने के लिए साक्षात् सरस्वती भी समर्थ नहीं है। यहाँ पर मैंने लेशमात्र वर्णन किया है। इस समवसरण के वर्णन में यहाँ ३१ विषय बता रही हूँ-
सामान्य भूमि, सोपान, विन्यास, वीथी, धूलिशाल, चैत्यप्रासाद भूमि, नृत्यशाला, मानस्तंभ, वेदी, खातिका, वेदी, लताभूमि, साल, उपवन भूमि, नृत्यशाला, वेदी, ध्वजभूमि, साल, कल्पभूमि, नृत्यशाला, वेदी, भवनभूमि, स्तूप, साल, श्रीमण्डप, ऋषि आदि गणों का विन्यास, वेदी, प्रथम पीठ, द्वितीय पीठ, तृतीय पीठ और गंधकुटी।
१. सामान्यभूमि- समवसरण की संपूर्ण सामान्य भूमि सूर्यमंडल के सदृश गोल, इन्द्र नीलमणि की होती है। यह सामान्यतया बारह योजन प्रमाण होती है। विदेह क्षेत्र के सम्पूर्ण तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का यही प्रमाण है। यहाँ भरतक्षेत्र के और ऐरावत के तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का उत्कृष्ट प्रमाण यही है, जघन्य प्रमाण एक योजन मात्र है, मध्यम के अनेक भेद हैं। जैसे कि भगवान वृषभदेव का समवसरण बारह योजन का था, शेष तीर्थंकरों का घटते-घटते अंतिम भगवान महावीर का एक योजनमात्र था।
२. सोपान- समवसरण में चढ़ने के लिए भूमि से एक हाथ ऊपर से आकाश में चारों ही दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ऊपर-ऊपर २०००० सीढ़ियां होती हैं। ये सीढ़ियाँ एक हाथ ऊँची और इतनी ही विस्तार वाली रहती हैं। ये सब स्वर्ण से निर्मित होती हैं। देव, मनुष्य और तिर्यंचगण अंतर्मुहूर्त मात्र में ही इन सभी सीढ़ियों को पारकर समवसरण में पहुँच जाते हैं।
३. विन्यास- समवसरण में चार कोट, पांच वेदियाँ, इनके बीच में आठ भूमियाँ और सर्वत्र प्रत्येक अन्तर भाग में तीन पीठ होते हैं। इस क्रम से समवसरण में सारी रचनाएं रहती हैं।
४. वीथी- प्रत्येक समवसरण में प्रारंभ से लेकर प्रथम पीठ (कटनी) पर्यंत, सीढ़ियों की लम्बाई के बराबर विस्तार वाली चार वीथियाँ होती हैं। यहाँ ‘वीथी’ से जाने का मार्ग (सड़क) समझना चाहिए।
इन वीथियों के पार्श्र्वभाग में स्फटिकपाषाण से बनी हुई वेदियाँ होती हैं। ये बाउण्ड्रीवाल के समान हैं। जो आठ भूमियाँ हैं उन आठों भूमियों के मूल में वज्रमय कपाटों से सुशोभित बहुत से तोरणद्वार होते हैं जिनमें देव, मनुष्य और तिर्यंचों का संचार बना रहता है।
५. धूलिशाल-सबके बाहर विशाल एवं समान गोल, मानुषोत्तर पर्वत के आकार वाला धूलिशाल नाम का कोट होता है। यह पंचवर्णी रत्नों से निर्मित होता है इसलिए इसका धूलिशाल नाम सार्थक है। इस कोट में मार्ग अट्टालिकाएं और ध्वजा पताकाएं रहती हैं। चार गोपुर द्वार (मुख्य फाटक) होते हैं।
यह तीनों लोकों को विस्मित करने वाला बहुत ही सुन्दर दिखता है। इस कोट के चारों गोपुर द्वारों में से पूर्वद्वार का नाम विजय है, दक्षिण द्वार का ‘वैजयन्त’ है, पश्चिम द्वार को ‘जयन्त’ और उत्तरद्वार को ‘अपराजित’ कहते हैं।
ये चारों द्वार सुवर्ण से बने रहते हैं, तीन भूमियों (खनों) से सहित देव और मनुष्य के जोड़ों से संयुक्त और तोरणों पर लटकती हुई मणिमालाओं से शोभायमान होते हैं। प्रत्येक द्वार के बाहर और मध्य भाग में, द्वार के पार्श्र्वभागों में मंगल द्रव्य विधि और धूपघट से युक्त विस्तीर्ण पुतलियाँ होती हैं।
झारी, कलश, दर्पण, चमर, ध्वजा, पंखा, छत्र और सुप्रतिष्ठ (ठोना) ये ८ मंगलद्रव्य हैं। ये प्रत्येक १०८-१०८ होते हैं। काल, महाकाल, पांडु, माणवक, शंख, पदम, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न, ये नव निधियाँ प्रत्येक १०८ होती हैं। ये निधियाँ क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्य-माला आदि, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, महल, आभरण और संपूर्ण रत्नों को देती हैं।
वहाँ एक-एक पुतली के ऊपर गोशीर्ष, मलय, चंदन और कालागुरु आदि धूपों के गंध से व्याप्त एक-एक धूपघट होते हैं। इन विजय आदि द्वार के प्रत्येक बाह्य भाग में सैकड़ों मरकततोरण और अभ्यन्तर भाग में सैकड़ों रत्नमय तोरण होते हैं। इन द्वारों के बीच दोनों पाश्र्व भागों में एक-एक नाट्यशाला होती है।
जिसमें देवांगनाएं नृत्य करती रहती हैं। इस धूलिसाल के चारों गोपुर द्वारों पर ज्योतिष्कदेव द्वार रक्षक होते हैं जो कि हाथ में रत्नदण्ड को लिये रहते हैं। इन चारों दरवाजों के बाहर और अंदर भाग में सीढ़ियाँ बनी रहती हैं जिनसे सुखपूर्वक संचार किया जाता है।
प्रत्येक समवसरण के धूलिसाल कोट की ऊँचाई अपने तीर्थंकर के शरीर से चौगुनी होती है। इस कोट की ऊँचाई से तोरणों की ऊँचाई अधिक रहती है और इससे भी अधिक विजय आदि द्वारों की ऊँचाई रहती है।
६. चैत्यप्रासाद भूमि-धूलिसाल के अभ्यंतर भाग में ‘चैत्यप्रासाद’ नामक भूमि सकल क्षेत्र को घेरे हुए बनी रहती है। इसमें एक-एक जिनभवन के अन्तराल से ५-५ प्रासाद बने रहते हैं जो विविध प्रकार के वनखण्ड और बावड़ी आदि से रमणीय होते हैं। इन जिनभवन और प्रासादों की ऊँचाई अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारह गुणी रहती है।
७. नृत्यशाला-प्रथम पृथ्वी में पृथक्-पृथक् वीथियों के दोनों पाश्र्व भागों में उत्तम सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित दो-दो नाट्यशालाएं होती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में ३२ रंग भूमियाँ और प्रत्येक रंग भूमि में ३२ भवनवासी देवियाँ नृत्य करती हुई नाना अर्थ से युक्त दिव्य गीतों द्वारा तीर्थंकरों के विजय के गीत गाती हैं और पुष्पांजलि क्षेपण करती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में नाना प्रकार की सुगंधित धूप से दिग्मंडल को सुवासित करने वाले दो-दो घूपघट रहते हैं।
८. मानस्तंभ- प्रथम पृथ्वी के बहुमध्य भाग में चारों वीथियों के बीचोंबीच समान गोल मानस्तंभ भूमियाँ होती हैं। उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुर द्वारों से सुन्दर कोट होते हैं।
इनके भी मध्यभाग में विविध प्रकार के दिव्य वृक्षों से युक्त वनखण्ड होते हैं। इनके मध्य में पूर्वादि दिशाओं में क्रम से सोम, यम, वरुण और कुबेर इन लोकपालों के रमणीय क्रीड़ा नगर होते हैं। उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुर द्वार से युक्त कोट और इसके आगे वनवापिकाएं होती हैं। जिनमें नीलकमल खिले रहते हैं। उनके बीच में लोकपालों के अपनी-अपनी दिशा तथा चार विदिशाओं में भी दिव्य क्रीड़ानगर होते हैं।
उनके अभ्यंतर भाग में उत्तम विशाल द्वारों से युक्त कोट होते हैं और फिर इनके बीच में पीठ होते हैं। इनमें से पहला पीठ वैडूर्यमणिमय, उसके ऊपर दूसरा पीठ सुवर्णमय और उसके ऊपर तीसरा पीठ बहुत वर्ण के रत्नों से निर्मित होता है। ये तीन पीठ तीन कटनीरूप होते हैं। इन पीठों के ऊपर मानस्तंभ होते हैं।
इन मानस्तंभों की ऊँचाई अपने-अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारह गुणी होती है। प्रत्येक मानस्तंभ का मूल भाग वङ्का से युक्त और म