(ज्ञानमती_माताजी_के_प्रवचन)
जो देश नगर, नदी और पर्वत से घिरा हो वह खेट है। जो केवल पर्वतों से घिरा हो वह खर्वट है। जो पाँच सौ गाँवों से घिरा हो वह मटम्ब है। जो समुद्र के किनारे हो तथा जहाँ पर लोग नाव से उतरते हों वह पत्तन या पुटभेदन कहलाता है। जो नदी के किनारे बसा हो उसे द्रोणामुख कहते हैं।
जहाँ सोना, चाँदी आदि निकलते हैं उसे खान कहते हैं। अन्न उसन्न होने की भूमि क्षेत्र– खेत है। जिसमें बाढ़ से घिरे हुए घर हों, जिसमें अधिकतर किसान लोग निवास करते हों, जो बाग–बगीचा और मकानों से सहित हो उन्हें ग्राम कहते हैं और जहाँ अहीर लोग रहते हों उसे घोष कहते हैं।
ये सब शास्त्रीय प्राचीन परिभाषाएँ हैं। इन सभी से सहित वह विदेह देश था। इस देश की राजधानी कुण्डपुर या कुण्डलपुर प्रसिद्ध थी। यह परकोटा एवं खाई आदि से विभूषित बहुत ही वैभवपूर्ण नगरी थी। इसका वर्णन बहुत ही सुन्दर किया गया है। आचार्य ने कहा है कि-
एतावतैव पर्याप्तं, पुरस्य गुणवर्णनम्।
स्वर्गावतरणे तद्यद्वीरस्याधारतां गतम्।। १२।।।
इस नगर के गुणों का वर्णन तो इतने से ही पर्याप्त हो जाता है कि वह नगर स्वर्ग से अवतार लेते समय भगवान महावीर का आधार हुआ था अर्थात् साक्षात् महावीर स्वामी जहाँ अवतीर्ण हुए थे। यहाँ के राजा सर्वार्थ महाराज थे और उनकी महारानी का नाम श्रीमती था।
इनके पुत्र का नाम सिद्धार्थ था। इनकी रानी महाराजा चेटक की पुत्री प्रियकारिणी थीं जिनका दूसरा नाम त्रिशला था। जो राजा सिद्धार्थ वर्तमान में भगवान वर्धमान के पितृपद को प्राप्त हुए थे भला उनके उत्कृष्ट गुणों का वर्णन कौन कर सकता है? तथा अपने पुण्य से तीर्थंकर महावीर को जन्म देने वाली उन त्रिशला के गुणों का वर्णन भी कोई मनुष्य नहीं कर सकता है। राजा सिद्धार्थ के माता–पिता का नाम हरिवंशपुराण में वर्णित है।
सर्वार्थश्रीमतीजन्मा तस्मिन् सर्वार्थदर्शन:।
सिद्धार्थोभवदर्काभो भूप: सिद्धार्थपौरुष:।। ३।।
एक बात यह विशेष ज्ञातव्य है कि तीर्थंकर भगवान दीक्षा लेते ही मौन ग्रहण कर लेते हैं और केवलज्ञान प्रगट होने तक उनकी वाणी नहीं खिरती है। भगवान महावीर एक बार जृंभिकाग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वन में रत्ननिर्मित एक शिलापट्ट पर प्रतिमायोग से विराजमान हो गए। ध्यान में लीन प्रभु ने वैशाख शुक्ला दशमीके दिन घातिकर्म को नष्ट कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। तत्क्षण ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने आकर आकाश में अधर समवसरण की रचना कर दी। समवसरण में बारह सभा बनी हुई थी किन्तु भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी। विपुलाचल पर प्रथम देशना–एक बार इंद्र ने विचार किया कि गणधर के अभाव में प्रभु की दिव्यध्वनि नहीं खिरी है।
तब युक्ति से इंद्रभूति नामक गौतम गोत्रीय ब्राह्मण को वहाँ उपस्थित किया। इंद्रभूति ने आकर प्रभु से जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करके मन:पर्ययज्ञान के साथ–साथ अनेक ऋद्धियों को प्राप्त कर प्रथम गणधर का पद प्राप्त कर लिया। श्रावण कृ. एकम के दिन भगवान की दिव्यध्वनि खिरी, असंख्य भव्यों ने प्रभु का उपदेश श्रवण करके अपने जीवन को सफल किया। इन इंद्रभूति का नाम गोत्र के नाम से गौतमस्वामी प्रसिद्ध हो गया। चन्दना ने भी आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रमुख गणिनी पद प्राप्त कर लिया। राजगृही में विपुलाचल पर्वत पर भगवान की प्रथम बार दिव्यध्वनि खिरी थी अत: वह पर्वत भी तीर्थ बन गया है। राजगृही के राजा श्रेणिक प्रभु के समवसरण में मुख्य श्रोता कहलाए हैं।
उस समय सुर और असुरों के द्वारा जलाई हुई बहुत भारी देदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा। तदनंतर सभी मनुष्य एवं देवगण प्रभु की निर्वाणकल्याणक पूजा कर यथास्थान चले गए। उस समय से लेकर भगवान के निर्वाणकल्याणक की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान महावीर की पूजा करने के लिए उद्यत रहने लगे अर्थात् भगवान महावीर के निर्वाण कल्याणक की स्मृति में ही दीपावली पर्व मनाने लगे। ये अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हमारे और आप सब के लिए मंगलकारी होवें। इसी भावना के साथ आप सबके लिए बहुत-बहुत आशीर्वाद है।