भव्यात्माओं! आगम में पांच उदुम्बर और मद्य, मांस तथा मधु का त्याग ये आठ मूलगुण गृहस्थों के बतलाये हैं।
अर्थात् शराब महामोह को करने वाला है, सभी पापों का मूल है और सभी दोषों को उत्पन्न करने वाला है। इसके पीने से मुनष्य को हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता है और हित-अहित का ज्ञान न रहने से प्राणी संसाररूपी वन में भटकाने वाला ऐसा कौन सा पाप नहीं करता है ?, लोक में यह कथा प्रसिद्ध है कि शराब पीने से यादव नष्ट हो गये और जुआ खेलने से पांडवों ने अनेक कष्ट उठाये हैं।
बहुत से प्राणी अनेक बार जन्म-मरण करके काल के द्वारा प्राणियों का मन मोहित करने के लिए मद्य का रूप धारण करते हैं। मद्य की एक बूंद में इतने जीव रहते हैं कि यदि वे फैलें तो समस्त जगत् में भर जायें इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। ऐसे जीव के निवास स्थान स्वरूप और दुर्गति में ले जाने वाले इस मद्य का सुख के आकांक्षी जनों को सदैव के लिए त्याग कर देना चाहिए।
जो स्वभाव से ही अपवित्र है, दुर्गंध से भरा है, दूसरों के प्राणों का घात करने पर ही तैयार होता है तथा कसाई घर जैसे अपवित्र स्थानों से ही प्राप्त होता है। ऐसे मांस को भले आदमी कैसे खा सकते हैं। यदि जिस पशु को मांस के लिये हम मारते हैं, दूसरे जन्म में वह हमें मारे या मांस के बिना जीवन ही न रह सके तब तो प्राणी पशु हत्या भले ही करें किंतु ऐसी बात नहीं है, बल्कि मांस के बिना भी मनुष्यों का जीवन चलता ही है।
धर्म के फलस्वरूप प्राप्त हुए अनेक सुखों को भोगने वाले मनुष्य भी न जाने धर्म से द्वेष क्यों करते हैं ? भला इच्छित वस्तु को देने वाले कल्पवृक्ष से कौन द्वेष करेगा ? यदि बुद्धिमान पुरूष थोड़े से कष्ट से अच्छा सुख प्राप्त करना चाहता है तो जो काम उसे स्वयं बुरे लगें उन कार्यों को दूसरों के प्रति भी उसे नहीं करना चाहिए। जो दूसरों का घात न करने से सुख का सेवन करता है वह इस जन्म में भी सुख भोगता है और दूसरे जन्म में भी सुख प्राप्त करता है।
जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरूषार्थों में से एक का भी पालन नहीं करता है वह पृथ्वी का भार है और जीते हुए भी मृत है तथा जो धर्म का फल भोगता हुआ भी धर्माचरण करने में आलस्य करता है वह मूर्ख है, जड़ है, अज्ञानी है और पशु से भी गया बीता है और जो न तो स्वयं अधर्म करता है न दूसरों से कराता है वह विद्वान है, समझदार है, बुद्धिमान है और पंडित है। जो अपना हित चाहते हैं और अहित से बचना चाहते हैं वे भला दूसरों के मांस से अपने मांस की वृद्धि कैसे कर सकते हैं?
जैसे दूसरे को दिया हुआ धन कालान्तर में ब्याज के बढ़ जाने से अपने को अधिक होकर मिलता है वैसे ही मनुष्य दूसरे को जो सुख या दुःख देता है वह सुख या दुःख कालान्तर में उसे अधिक होकर मिलता है अर्थात् सुख देने से अधिक सुख मिलता है और दु:ख देने से अधिक दु:ख मिलता है। यदि मद्य, मांस और मधु का सेवन करना धर्म हो जावे तो फिर अधर्म क्या होगा? और दुर्गति का कारण क्या होगा ?
सुख वही है जिसमें दुःख नहीं है, ज्ञान वही है जिसमें अज्ञान नहीं है और गति वही है जहाँ से लौटकर आना नहीं है। जिस प्रकार अपने को अपना जीवन प्रिय है उसी प्रकार से दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय है इसलिये मांस और अंडों के भक्षण का सदैव के लिए त्याग कर देना चाहिए। जो मांस खाते हैं उनमें दया नहीं होती, जो शराब पीते हैं वे सच नहीं बोल सकते, जो मधु और उदुम्बर फलों का भक्षण करते हैं उनमें रहम नहीं होता है।
अर्थात् शहद जो मधुमक्खियों के छत्ते को निचोड़ने से पैदा होता है। वह रज और वीर्य के मिश्रण के समान है। भला सज्जन पुरूष ऐसे शहद का सेवन वैसे कर सकते हैं ? मधु का छत्ता व्याकुल शिशु के गर्भ की तरह है और अंडों से उत्पन्न होने वाले जंतुओं के छोटे-छोटे अंडों के टुकड़ों से सदृश है। करूणा से रहित मनुष्य ही उस मधु का भक्षण करते हैं।
पीपल,कठूमर, पाकर, बड़फल और ऊमरफल, ये पांचों फल त्रस जीवों के रहने के स्थान भूत हैं। इन फलों में बहुत से त्रस जीव प्रत्यक्ष ही दिखाई देते हैं।
इनके सिवाय इन फलों में बहुत से सूक्ष्म जंतु भी पाये जाते हैं जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है। इस प्रकार से मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फल इन आठों का त्याग करना ही मूल गुण है जो कि सम्यग्दृष्टी जीवों के लिये धारण करने योग्य है। जिस प्रकार से इन वस्तुओं के खाने में महान पाप है वैसे ही इन वस्तुओं के सेवन करने वालों की संगति करना भी सर्वथा हानिप्रद ही है।
इसी बात को स्वयं उपासकाध्ययन ग्रंथ के कर्ता कह रहे हैं। मद्य, मांस वगैरह सेवन करने वाले लोगों के घरों में भी खानपान नहीं करना चाहिए तथा उनके बर्तनों को भी काम में नहीं लेना चाहिए।
जो मनुष्य मद्य, मांस सेवन करने वालों के साथ खानपान करते हैं उनकी यहां तो निन्दा होती ही है किन्तु परलोक में भी उन्हें अच्छी गति प्राप्त नहीं होती है।
व्रती पुरुष को चमड़े की मशक का पानी, चमड़े के पात्र में रखा हुआ घी, तेल और मद्य, मांस आदि का सेवन करने वाली स्त्रियों को भी सदा के लिए छोड़ देना चाहिए। इसी संदर्भ में उपासकाध्ययन ग्रंथ के भाषाकार पं. श्री कैलाशचंद्र जी सिद्धांत शास्त्री अपने अभिप्राय को प्रकट करते हुए भावार्थ में कहते हैं कि- ‘छोटी से छोटी बुराई से बचने के लिए बड़ी सावधानी रखनी होती है फिर आज तो मद्य, मांस का इतना प्रचार बढ़ता जाता है कि उच्च कुलीन पढ़े लिखे लोग भी उनसे परहेज नहीं रखते हैं, अंग्रेजी सभ्यता के साथ अंग्रेजी खान-पान भी भारत में बढ़ता जाता है और अंग्रेजी खान-पान की जान मद्य और मांस ही है। प्राय: जो लोग शाकाहारी होते हैं उनका भोजन भी रेलवे वगैरह में माँसाहारियों के भोजन के साथ ही पकाया जाता है। उसी में से माँस को बचाकर शाकाहारियों को खिला देते हैं।
जो लोग पार्टी वगैरह में शरीक होते हैं उनमें से कोई-कोई सभ्यता के विरुद्ध समझकर जो कुछ मिल जाता है उसे ही खा आते हैं। इस तरह संगति के दोष से बचे-खुचे शाकाहारी भी मांसाहार के स्वाद से नहीं बच पाते और ऐसा करते-करते उनमें से कोई-कोई मांसाहार करने लग जाते हैं। अंग्रेजी दवाईयों का तो कहना ही क्या है,
उनमें भी मद्य वगैरह का सम्मिश्रण रहता है। पौष्टिक औषधियों और तथोक्त विटामिनों को न जाने किन-किन पशु-पक्षियों और जलचर जीवों तक के अवयवों और तेलों से बनाया जाता है। फिर भी सब खुशी-खुशी उनका सेवन करते हैं। ओवल्टीन नाम के पौष्टिक खाद्य में अण्डे डाले जाते हैं फिर भी जैन घरानों तक में उसका सेवन छोटे और बड़े करते हैं। यह सब संगति दोष का ही कुफल है।
उसी के कारण बुरी चीजों से घृणा का भाव घटता जाता है और धीरे-धीरे उनके प्रति लोगों की अरूचि टूटती जाती है। इन्हीं बुराईयों से बचने के लिए आचार्यों ने ऐेसे स्त्री-पुरुषों के साथ रोटी-बेटी के व्यवहार का निषेध किया है जो मद्यादिक का सेवन करते हैं। जैनाचार को बनाये रखने के लिये और अहिंसा धर्म को जीवित रखने के लिए यह आवश्यक है कि जैनधर्म का पालन करने वाले कम से कम अपने खान-पान में दृढ़ बने रहें।
यदि उन्होंने भी देखा-देखी शुरू की और वे भी भोग विलास के गुलाम बन गये तो दुनिया को फिर अहिंसा धर्म का संदेश कौन देगा? कौन दुनिया को बताएगा कि शराब का पीना और मांस का खाना मनुष्य को बर्बर बनाता है और बर्बरता के रहते हुए दुनिया में शांति नहीं हो सकती। अत: जैसे सफ़ेदपोश बदमाशों से बचे रहने में ही कल्याण है वैसे ही सभ्य कहे जाने वाले पियक्कड़ों और गोश्तखोरों के साथ खान-पान का सम्बन्ध न रखने में ही सबका हित है। ऐसा करने से आप प्रतिगामी, वूढ़मगज या दकियानूसी भले ही कहलावें किन्तु इसकी परवाह न करें।
आप दृढ़ रहेंगे तो दुनिया आपकी बात की कदर करने लगेगी किन्तु यदि आप ही अपना विश्वास खो बैठेंगे और क्षण भर की वाहवाही में बह जाएंगे तो न अपना हित कर सक़ेंगे और न दूसरों का हित कर सकेंगे। मधु भी मद्य और मांस का ही भाई है। कुछ लोग आधुनिक ढंग से निकाले जाने वाले मधु को खाद्य बतलाते हैं।
किंतु ढंग के बदलने मात्र से मधु खाद्य नहीं हो सकता। आखिर को तो वह मधु- मक्खियों का ही उगाल है।’ इस प्रकार से अष्टमूलगुण को धारण करने वाला व्यक्ति अपनी आत्मा की दया करता है। उसका पालन कर आप सब अपनी आत्मा का कल्याण करें, यही मंगल आशीर्वाद है।