फाल्गुन महिने में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र जिस तिथि को पूरा होगा, इस व्रत धारकों को शुचिजल से अभ्यंग स्नान करके शुभ्र वस्त्र पहनना। बाद में सब पूजा सामग्री अपने हाथ में लेकर जिनालय में जाना। वहाँ जाकर मंदिर की तीन प्रदक्षिणा करके ईर्यापथ शुद्धि आदि क्रियापूर्वक श्री जिनेन्द्र की भक्ति से वंदना करना। अखण्डदीप लगाना। वेदी पर श्री आदिनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा गोमुखयक्ष चक्रेश्वरी यक्षी सहित स्थापित करके उनका पंचामृत से अभिषेक करना। पूजन, स्तोत्र, जयमाला सहित पूजा करना। सरस्वती और गुरु की पूजा करना। यक्ष, यक्षी और क्षेत्रपाल की भी अर्चना करना। ॐ ह्रीं गोमुखयक्षचक्रेश्वरीययक्षीसहिताय श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नम:।
इस मंत्र से १०८ फूल चढ़ाना। णमोकार मंत्र का १०८ बार जाप करना। श्री जिनसहस्रनाम स्तोत्र पढ़कर श्री आदिनाथ चरित्र पढ़ना। बाद में एक पात्र में महाघ्र्य करके आरती उतारते हुए तीन प्रदक्षिणा देकर मंगल आरती करना। उस दिन उपवास करके धर्मध्यानमें समय बिताना। सत्पात्र को आहारादि दान करना। ब्रह्मचर्य पालना। दूसरे दिन पारणा करना।
इस तरह फाल्गुन महिने में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र को पूजा करके किए हुए उपवास को ‘पंचकल्याण’ कहते हैं। इस उपवास के योग से एक लाख उपवास का फल मिलता है।
उसी प्रकार चैत्र मास में चित्रा नक्षत्र को पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। इस दिन किए हुए उपवास का ‘अष्टमहाविभूति’ यह नाम है। इस उपवास से दो लाख उपवास का फल मिलता है।
वैशाख महीने में विशाखा नक्षत्र को पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। इस दिन किए हुए उपवास का ‘जिनदर्शन’ यह नाम है। इस उपवास से चार लक्ष उपवास का फल मिलता है।
ज्येष्ठ मास में ‘ज्येष्ठा’ नक्षत्र को पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। इस दिन किए हुए उपवास का ‘चतुर्विंशति तीर्थंकर’ यह नाम है। इस उपवास से आठ लाख उपवास का फल मिलता है।
आषाढ़ मास में ‘‘पूर्वाषाढा’’ नक्षत्र को पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। उस दिन किए हुए उपवास को ‘अनंत श्रीवर्धन’ यह नाम है। इस उपवास से सोलह लक्ष उपवास का फल मिलता है।
श्रावण मास में श्रवण नक्षत्र को पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। इस दिन किए हुए उपवास को ‘धर्मानंद’ यह नाम है। इस उपवास से बत्तीस लक्ष उपवास का फल मिलता है।
भादों मास में उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र को पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। इस उपवास को ‘आयुर्वर्धन’ ऐसा नाम है। इस उपवास से चौंसठ लाख उपवास का फल मिलता है।
आश्विन मास में आश्विनी नक्षत्र को पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। इस उपवास को ‘श्रीवर्धमान’ कहते हैं। इस उपवास से एक करोड़ २८ लाख उपवास का फल मिलता है।
कार्तिक मास में कृत्तिका नक्षत्र पर पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। इस उपवास का ‘आरोग्यज्ञानवर्धन’ यह नाम है। इस उपवास से २ करोड़ ५६ लाख उपवास का फल मिलता है।
मगसिर मास में ‘मृगशिरा’ नक्षत्र में पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। इस उपवास का ‘‘परमैश्वर्यवर्धन’’ नाम है। इस व्रत से पाँच करोड़ बारह लाख उपवास का फल प्राप्त होता है।
पौष मास में ‘पुष्य’ नक्षत्र में पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। इसका नाम ‘‘पंचालंकार’’ है। इस उपवास से दश करोड़, चौबीस लाख उपवास का फल प्राप्त होता है।
माघ मास में ‘मघा’ नक्षत्र पर पूर्ववत् पूजा करके उपवास करना। इस उपवास का ‘धनवर्धन’ यह नाम है। इससे २० करोड़ ४८ लाख उपवास का फल मिलता है।
इस क्रम से ३ वर्ष तीन महीने यह व्रत पूजा और उपवास करना। ऐसे कुल ३९ दिन पूजा और उपवास करना। इस ३९ उपवास से ४० करोड़ ९५ लाख उपवास का फल प्राप्त होता है।
इस प्रकार सब पूजा और उपवास पूरे होने के बाद इस व्रत का उद्यापन करना। उसी समय श्रीआदिनाथ तीर्थंकर की नूतन सुवर्णमयी गोमुख यक्ष चव्रेâश्वरी यक्षी सहित मूर्ति निर्माण कराके उसकी पंचकल्याणक विधिपूर्वक प्रतिष्ठा कराना। चतु:संघ को चतुर्विध दान करना। इस प्रकार इस व्रत की विधि है।
यह व्रत श्रीगुरु के पास ग्रहण करके जो भव्यात्मा यथाविधि पालन करते हैं, उनको अपार पुण्यबंध होता है। इस पुण्ययोग से उनको सब अभ्युदय सुख प्राप्त होकर पुन: क्रम से मुक्तिसुख प्राप्त होता है। इस प्रकार से व्रत का प्रभाव है।
कथा-
जिन्होंने क्षुधादि अठारह दोष नष्ट किये हैं, जिनको लोकालोक को प्रकाशित करने वाले ज्ञान की प्राप्ति हुई है, जो नरेन्द्र, नागेंद्रादि सौ इंद्रों से वंद्य हुए हैं, जो परमागम के अधिपति हुए हैं, ऐसे श्री महावीर तीर्थंकर, केवलज्ञान से सम्पन्न होकर समवसरण के साथ आर्यखण्ड में देश-देश में भव्यजन को उपदेश देते हुए विहार करते थे। एक दिन बुद्धायन राजा अपनी धर्मपत्नी इंद्रायिणी और अपने जनसमूह के साथ बड़े आदर से भगवंत के समवसरण में प्रवेश करके उनका त्रिप्रदक्षिणापूर्वक दर्शन, पूजन, स्तवन आदि करके मानव की सभा में जाकर बैठे। कुछ समय दिव्यध्वनि से तत्वोपदेश श्रवण करने के बाद इंद्रायिणी रानी अपने करकमल जोड़कर विनय से गौतम गणधर को बोली-भो! भवसिंधुतारक जगद्गुरो! आज आप हमारे लिए सब प्रकार के पापनाशक और सर्वसुखप्रद ऐसा व्रत विधान कहो। इनके इस विनयपूर्वक वचन को सुनकर वे गणेन्द्र इनको बोले-हे भव्यगुणमणि पुत्रि! चक्रवालव्रत पालन करने से सभी सुख प्राप्त होते हैं। ऐसा कहकर उन्होंने व्रत की सब विधि उसको कही। यह सब सुनकर इंद्रायिणी आदि सब लोगों को बहुत आनंद हुआ। बाद में उन्होंने गणधर की वंदना करके यह व्रत भक्तिभाव से उनके पास ग्रहण किया। फिर सब जन भगवान को और समस्त मुनिगणों को नमस्कार करके अपनी नगरी में वापस आ गये। आगे कालक्रम से इंद्रायिणी ने यह व्रत यथाविधि धारण करके उसका उद्यापन किया। इस योग से वह अंत में सन्यासविधि से मरकर स्त्रीलिंग छेद करके स्वर्ग में देव हुई और कुछ भव में ही मोक्ष प्राप्त करेंगी।