भव्यात्माओं! अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन खिरी थी, उन्हीं के धर्मतीर्थ का प्रवर्तन वर्तमान में चल रहा है। उनके धर्म को धारण करने वाले जीव उन्हीं वीर प्रभु के शासन में रह रहे हैं। इसलिए यह श्रावणवदी एकम का दिवस ‘वीर शासन जयंती’ के नाम से सर्वत्र मनाया जाता है।
‘पंचशैलपुर (पंचपहाड़ी से शोभित राजगृही के पास) में विपुलाचल पर्वत के ऊपर भगवान महावीर ने भव्यजीवों को अर्थ का उपदेश दिया। इस अवसर्पिणी कल्पकाल के ‘दु:षमा सुषमा’ नाम के चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम चौंतीस वर्ष बाकी रहने पर वर्ष के प्रथम मास, प्रथम पक्ष और प्रथम दिन में अर्थात् श्रावण कृष्णा एकम् के दिन प्रात:काल के समय आकाश में अभिजित नक्षत्र के उदित रहने पर धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति हुई।।५५-५६।।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन रुद्रमुहूर्त में सूर्य का शुभ उदय होने पर और अभिजित् नक्षत्र के प्रथमयोग में जब युग की आदि हुई तभी तीर्थ की उत्पत्ति समझना चाहिए।।५७।।
यह श्रावण कृष्णा प्रतिपदा वर्ष का प्रथम मास है और युग की आदि-प्रथम दिवस है। जैसा कि अन्यत्र ग्रंथों में भी कहा है। अत: यह स्पष्ट है कि यह श्रावण कृष्णा एकम दिवस युग का प्रथम दिवस है। अर्थात् प्रत्येक सुषमा सुषमा, सुषमा आदि कालों का प्रारंभ इस दिवस से ही होता है। इसलिए यह दिवस अनादिनिधन जैन सिद्धांत के अनुसार वर्ष का प्रथम दिवस माना जाता है।
अनादिकाल से युग और वर्ष की समाप्ति आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को होती है। युग तथा वर्ष का प्रारंभ श्रावण कृष्णा एकम से होता है। वर्तमान में इसी दिन वीर प्रभु की दिव्यध्वनि खिरने से धर्मतीर्थ का प्रवर्तन इसी दिन से चला है। इसलिए यह दिवस और भी महान होने से महानतम अथवा पूज्यतम हो गया है।
भगवान महावीर को केवलज्ञान वैशाख शुक्ला दशमी को प्रगट हो चुका था किन्तु गणधर के अभाव में छ्यासठ दिन तक भगवान की दिव्य ध्वनि नहीं खिरी इसके बारे में जयधवला में स्पष्ट किया है कि- ‘केवलज्ञान होने के बाद छ्यासठ दिन तक दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरी?’’ गणधर के नहीं होने से।’
‘सौधर्म इन्द्र ने केवलज्ञान होने के बाद ही गणधर को उपस्थित क्यों नहीं किया? ‘नहीं, क्योंकि काललब्धि के बिना सौधर्म इन्द्र गणधर को उपस्थित करने में असमर्थ था।’ ‘जिसने अपने पादमूल में महाव्रत ग्रहण किया है ऐसे पुरुष को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरती?’ ‘ऐसा ही स्वभाव है, और स्वभाव दूसरों के द्वारा प्रश्न करने योग्य नहीं होता है। ‘उन इन्द्रभूति नाम के गौतम गणधर ने (उसी दिन) बारह अंग और चौदह पूर्व रूप ग्रंथों की एक ही मुहूर्त में (४८ मिनट में) क्रम से रचना की।
अत: भावश्रुत और अर्थ पदों के कर्ता तीर्थंकर हैं तथा तीर्थंकर के निमित्त से गौतम गणधर श्रुत पर्याय से परिणत हुए, इसलिए द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं। उन गौतम स्वामी ने भी दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान लोहाचार्य को दिया। लोहाचार्य ने भी जम्बूस्वामी को दिया। परिपाटी क्रम से (एक के बाद एक) ये तीनों ही सकलश्रुत के धारण करने वाले कहे गये हैं और यदि परिपाटी क्रम की अपेक्षा न की जाये तो उस समय संख्यात हजार सकलश्रुत के धारी हुए हैं।’ अर्थात् संख्यात हजार मुनि द्वादशांग के पारगामी हुए हैं।
अब मैं आपको दिव्यध्वनि के बारे में बताती हूँ कि दिव्यध्वनि वैसी होती है? दिव्यध्वनि सर्वभाषामयी है, अक्षर-अनक्षरात्मक है, जिसमें अनंत पदार्थ समाविष्ट हैं अर्थात् जो अनंत पदार्थों का वर्णन करती है, जिसका शरीर बीज पदों से गढ़ा गया है, जो प्रात:, मध्यान्ह और सायं इन तीनों कालों में छह-छह घड़ी तक निरंतर खिरती रहती है। इस समय को छोड़कर बाकी समय गणधरदेव के संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय को प्राप्त होने पर उन्हें दूर करने के लिए खिरती है।’’
यहाँ पर दिव्यध्वनि को सर्वभाषा रूप कहा है-‘‘अठारह महाभाषा और सात सौ लघु भाषाओं से युक्त, तिर्यंच, देव और मनुष्यों की भाषा के रूप में परिणत होने वाली ऐसी दिव्यध्वनि है।’’ ‘‘अठारह महाभाषा, सात सौ क्षुद्र भाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएं हैं उन सभी रूप से दिव्यध्वनि होती है।
वह तालु, दांत, कंठ, ओष्ठ के व्यापार से रहित है। तीनों कालों में नव मुहूर्तों तक खिरती है। इसके अतिरिक्त गणधरदेव, इंद्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप शेष समयों में भी खिरती है, ऐसा वर्णन तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में आया है। दिव्यध्वनि सुनने का माहात्म्य अचिन्त्य है। ‘‘जैसे चन्द्रमा से अमृत झरता है उसी प्रकार जिनेन्द्रदेव की वाणी को सुनकर बारह गणों के भव्यजीव अनंतगुण श्रेणी रूप विशुद्धि से संयुक्त शरीर को धारण करते हुए असंख्यात श्रेणी रूप कर्मपटल को नष्ट कर देते हैं।’’
दिव्यध्वनि सुनने के लिए बैठने का स्थान कैसा है? ‘‘समवसरण में बारह कोठों के क्षेत्र से यद्यपि वहाँ पर पहुँचने वाले जीवों का क्षेत्रफल असंख्यातगुणा अधिक है, तथापि वे सब जीव जिनदेव के माहात्म्य से एक-दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं। जिन भगवान के माहात्म्य से बालक आदि सभी जीव प्रवेश करने अथवा निकलने में अंतर्मुहूर्त में ही (४८ मिनट के अंदर ही) संख्यात योजन चले जाते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन कोठों में कौन जा सकते हैं? इन कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं जाते हैं तथा अनध्यवसाय से युक्त, संदेह से संयुक्त और विविध प्रकार के विपरीत भावों सहित जीव भी वहाँ नहीं रहते हैं। इससे अतिरिक्त वहाँ पर जिन भगवान के माहात्म्य से आतंक, रोग, मरण, जन्म, वैर, कामबाधा, क्षुधा और पिपासा की बाधाएं भी नहीं होती है।’’
हरिवंशपुराण में भी बताया है कि वहाँ पर शूद्र, पाखंडी व अन्य वेषधारी तापसी आदि नहीं जा सकते हैं। वर्तमान में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुसार ग्यारह अंग और चौदह पूर्वरूप श्रुत नहीं है। फिर भी वर्तमान में जो षट्खण्डागम, कसायपाहु़ड़, महाबंध, समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे भगवान की वाणी के अंशरूप ही हैं। अर्थात् ‘‘जिनका अर्थरूप से तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है और गणधरदेव ने जिनकी ग्रंथ रचना की है ऐसे द्वादश अंग आचार्यपरम्परा से निरंतर चले आ रहे हैं।
परन्तु काल प्रभाव से उत्तरोत्तर बुद्धि के क्षीण होने पर उन अंगों को धारण करने वाले योग्य पात्रों के अभाव में वे उत्तरोत्तर क्षीण होते जा रहे हैं। इसलिए जिन आचार्यों ने आगे श्रेष्ठ बुद्धि वाले पुरुषों का अभाव देखा और जो अत्यन्त पाप भीरु थे, जिन्होंने गुरु परम्परा से श्रुत और उसका अर्थ ग्रहण किया था उन आचार्यों ने तीर्थ विच्छेद के भय से उस समय अवशिष्ट रहे हुए अंग संबंधी अर्थ को पोथियों में लिपिबद्ध किया, अतएव वे असूत्र न होकर सूत्र ही हैं, ऐसा धवला ग्रंथ में कहा है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि आचार्यों द्वारा रचित ग्रंथ भगवान की वाणी के ही अंशरूप हैं।
अत: पूर्णतया प्रामाणिक हैं। इस वीर शासन जयंती दिवस को सोल्लासपूर्ण वातावरण में मनाते हुए प्रत्येक जैन श्रावकों का कर्तव्य हो जाता है कि उस दिन स्वाध्याय करने का नियम लेकर अपने ज्ञान को समीचीन बनावें और वीर भगवान के शासन में रहते हुए अपनी आत्मा को कर्मों से छुटाने के पुरुषार्थ में लगें तथा प्रतिदिन निम्नलिखित श्लोक के द्वारा श्रुतदेवता की आराधना, उपासना, भक्ति करते रहें-
‘‘अंगंगबज्झणिम्मी अणाइमज्झंतणिम्मलंगाए।
सुयदेवयअंबाए णमो सया चक्खुमइयाए।।४।।
अर्थात् जिसका आदि, मध्य और अंत से रहित निर्मल शरीर अंग और अंगबाह्य से निर्मित है और जो सदा चक्षुष्मती जाग्रतचक्षु है ऐसी श्रुतदेवी माता को मेरा सतत नमस्कार होवे।