वर्तमान में लोग उनके समयसार को ही उनकी प्रमुख देन समझने लगे हैं किन्तु यदि आचार्य कुन्दकुन्द की दशों भक्तियाँ आप पढ़ेंगे तो ज्ञात होगा कि उनका हृदय तो भक्ति से ओतप्रोत था। राग की परिभाषा को समझने की आवश्यकता है क्योंकि राग प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों रूप होता है।