धर्मप्रेमी भव्यात्माओं! यह संसार एक विशाल नाटक का मंच है, जहाँ जीव और अजीव ये दो शृँगार सहित पात्र के सदृश एकरूप होकर प्रतिक्षण मंचन करते रहते हैं। जैसे नाटक, सिनेमा में पात्रगण अनेकों प्रकार के नकली रूप धारण करके दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत होते हैं उसी प्रकार से जीव और अजीव ये दोनों द्रव्य भी अपने असली स्वभाव को छोड़कर नरक, तिर्यंच आदि नाना पर्यायों को धारण करते हुए संसार मंच पर प्रस्तुत होकर लोकानुरंजन करते हैं-
शरीरी प्रत्येकं भवति भुवि वेधा स्वकृतित:,
विधत्ते नानाभूपवनजलवन्हिद्रुमतनुं।
त्रसो भूत्वा भूत्वा कथमपि विधायात्र कुशलं,
स्वयं स्वस्मिन्नास्ते भवति कृतकृत्य: शिवमय:।।
इस संसार में समस्त प्राणी अपने-अपने कर्मों के आधार पर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिरूप स्थावर पर्यायों में अनेकों बार जन्म धारण करता है। किसी पुण्ययोग से त्रस पर्याय प्राप्त करके भी किसी प्रकार मनुष्य भव धारण कर अपनी आत्मा का ध्यान करके मोक्षसुख को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाता है किन्तु यह अवस्था तो अत्यंत दुर्लभ है क्योंकि अनादिकालीन संस्कारों के कारण जीव को पंचेन्द्रिय विषय भोग तो सदैव याद रहते हैं तथा आत्मतत्त्व के प्रति उसका कभी ध्यान ही नहीं जाता।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी क्या कहते हैं
अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई। जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूर्विति।।३९।।
अर्थात् कोई अज्ञानी जीव आत्मतत्त्व को नहीं जानते हुए पुद्गल आदि परद्रव्यों को ही आत्मा कह देते हैं, कोई कर्म को जीव कह देते हैं, कोई नोकर्म को जीव मान लेते हैं, कोई कर्म के उदय को जीव मान लेते हैं, कोई जीव और कर्म दोनों के मिले हुए रूप को ही जीव मान लेते हैं लेकिन वास्तव में ये सभी जीव नहीं है, इनको जीव मानने वाले परात्मवादी कहलाते हैं।
अन्य सम्प्रदाय वालों को तो ये सारी बातें सत्य प्रतीत होती हैं। वास्तव में आत्मा और कर्म दोनों के संयोग संबंध से ही बंध होता है। वही आत्मा जब कर्मों से छूट जाता है तब शुद्धात्मा-परमात्मा कहलाता है।
आचार्यश्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं
इसी बात को आचार्यश्री अमृतचन्द्रसूरि ने अपनी आत्मख्याति टीका में स्पष्ट किया है- ‘‘इस संसार में आत्मा के असाधारण लक्षण को न समझने के कारण असमर्थ होने से अत्यन्त मूर्ख हुए अज्ञानीजन वास्तवभूत आत्मा को न जानते हुए बहुत से हैं जो कि बहुत प्रकार से पर को भी यह आत्मा है’ ऐसा बकवास करते हैं।’’
यदि चिंतन करके देखा जाये तो आत्मद्रव्य मात्र एक अकेला है। जब उसका शरीर ही अपना नहीं है तब स्त्री, पुत्र, मकान आदि साक्षात् परवस्तुएं अपनी कैसे हो सकती हैं? भले ही उस शुद्धात्मा की अनुभूति हमें न होवे किन्तु उसके प्रति श्रद्धान तो यही करना चाहिए कि मेरी आत्मा निश्चयनय से सभी परद्रव्यों से पृथक् है।
देखो! जब पाँचों पांडव दिगम्बर मुनि की अवस्था में ध्यान कर रहे थे, उस समय कुर्युधर नामक दुर्योधन के भानजे ने प्रतिशोध की भावना से उन्हें लोहे के गरम-गरम कंकण, कुंडल आदि पहना दिए। ऐसे उपसर्ग के काल में उन पांडवों ने असली समयसार का चिन्तन किया था-‘आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है।
अग्नि से उत्पन्न दाह की वेदना मेरे शरीर को हो रही है आत्मा को नहीं। शरीर नश्वर है आत्मा अविनश्वर है। उस अविनश्वर आत्मा की प्राप्ति मुझे करना है, ‘शरीर जलता है जलने दो।’ ऐसी उत्कृष्ट शुद्धात्म भावना के बल पर ही युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन इन तीनों ने क्षपक श्रेणी पर आरोहण कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और निर्वाण धाम पहुँच गए।
नकुल और सहदेव को किंचित् अपने भाइयों के दु:ख का विकल्प हो गया अत: वे मोक्ष न प्राप्त कर सके और उपशम श्रेणी में चढ़कर मरण करके सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र हो गये, वे दोनों भविष्य में मनुष्य भव धारण कर सिद्ध पद प्राप्त करेंगे। ऐसी विषम परिस्थितियों में यदि समयसार का चिन्तन मजबूती से किया जाता है तभी उसकी सार्थकता है।
केवल समयसार ग्रंथ को पढ़ लेने मात्र से किसी का कल्याण नहीं हो सकता क्योंकि समयसार व्याख्यान की वस्तु नहीं है यह तो आत्मानुभव का परिचायक है। स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य भी इसे लिखते समय व्यवहार में ही रहते थे निश्चय में तो लेखन, पठन-पाठन की क्रिया होती ही नहीं है।
पंचमकाल में तो हीन संहनन के द्वारा आत्मा का निर्विकल्प ध्यान संभव नहीं है अत: स्वाध्याय, भक्ति, स्तुति आदि धर्मध्यान के साधनों द्वारा कर्म निर्जरा संभावित है। आचार्य श्री अमृतचन्द सूरि ने एक कलशकाव्य में अत्यन्त करुणा बुद्धि से भव्यों को संबोधित करते हुए कहा है-
विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन,
स्वयमपि निभृत: सन् पश्य षण्मासमेवं।
हृदयसरसिपुंस: पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो,
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धि:।।
इसका अर्थ यह है कि- ‘हे वत्स! तू विरक्त हो, अन्य निष्प्रयोजनीभूत कोलाहल से तुझे क्या लाभ है? तू स्वयं भी निश्चल होकर अपने को-अपनी आत्मा को छह महीने तक देख, अनुभव कर, तब हृदयरूपी सरोवर में पुद्गल से भिन्न तेज:स्वरूप पुरुष-आत्मा की क्या उपलब्धि प्रतिभासित नहीं होगी? अर्थात् अवश्य होगी।’
प्रयत्नों के बल पर प्रत्येक कार्य संभव हो जाते हैं इसीलिए दिगम्बर मुनियों को गुरुदेव प्रेरित करते हैं कि सभी बाह्य प्रपंचों को छोड़कर आत्मा में लीन हो जाओ। यहां अकार्य कोलाहल से शुभ-अशुभ दोनों क्रियाओं को छोड़कर निर्विकल्प अवस्था प्राप्त करने का उपदेश है।
शुभ क्रियाएँ सर्वथा अकार्यकारी या निष्प्रयोजनीभूत नहीं हैं, निर्विकल्प ध्यान की अपेक्षा से ही निष्प्रयोजनीभूत हैं। वर्तमान युग में मुनि एवं श्रावक दोनों के लिए शुभोपयोग ही उपादेय है, शुद्धोपयोग मात्र श्रद्धा का विषय है जो आगम के अनुसार प्रत्येक मुनि एवं श्रावक को ध्यान रखने योग्य है।