जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौशल्य देश है। उसमें यमुना नदी के तट पर कौशाम्बी नाम की नगरी है, उसी नगर में परमपूज्य छठवें तीर्थंकर श्री पद्मप्रभु का जन्म हुआ था। एक समय इसी नगर में हरिवाहन नाम का राजा और उसकी शशिप्रभा पट्टरानी थी।
राजपुत्र का नाम सुकौशल था। यह राजकुमार सर्व विद्या और कलाओं में निपुण होने पर भी निरन्तर खेल-तमाशों आदि क्रीड़ाओं में निमग्न रहता था और राजकाज की ओर बिल्कुल भी ध्यान न देता था। इसलिए राजा को निरन्तर चिंता रहने लगी कि राजपुत्र राज्यकार्य में योग नहीं देता है, तब भविष्य में कार्य केसे चलेगा?
एक समय भाग्योदय से सोमप्रभ नाम के महामुनिराज संघ सहित विहार करते हुए इसी नगर के उद्यान में पधारे। राजा ने वनमाली द्वारा ये शुभ समाचार सुनकर पुरवासियों सहित हर्षित होकर श्रीगुरु के दर्शनों को प्रयाण किया और वहाँ पहुँचकर भक्तिभाव से वंदना-स्तुति करके धर्मश्रवण की इच्छा से नतमस्तक होकर बैठ गया।
श्रीगुरु ने प्रथम मिथ्यात्व के छुड़ाने वाले और संसार से भय उत्पन्न कराने वाले ऐसे मोक्षमार्ग का व्याख्यान सुनाया, मुनि और श्रावक के धर्म को पृथक् कर-करके समझाया और यह भी कहा कि मुनि परम्परा मोक्ष का कारण समझना चाहिए, यथार्थ में तो भव्यजीवों को मुनिधर्म ही पालन करना चाहिए, परन्तु यदि शक्तिहीनता के कारण एकाएक मुनिधर्म न धारण कर सवेंâ, तो कम से कम प्रतिमारूप श्रावक का धर्म ही धारण करें और निरन्तर अपने भावों को बढ़ाता और शरीरादि इन्द्रियों तथा मन को वश करता जावे, तब ही अभीष्ट सुख को प्राप्त हो सकता है।
श्रावक धर्म केवल अभ्यास ही के लिए है इसलिए इसी में रंजायमान होकर इति नहीं कर देना चाहिए किन्तु मुनिधर्म की भावना भाते हुए उसके लिए तत्पर रहना चाहिए।
राजा ने उपदेश सुनकर स्वशक्ति अनुसार व्रत धारण किया और विशेष बातों का श्रद्धान किया। पश्चात् अवसर देखकर पूछने लगे-हे नाथ! मेरा पुत्र विद्यादि में निपुण होने पर भी बालक्रीड़ाओं में अनुरक्त रहता है और राज्यभोग में कुछ भी नहीं समझता है अत: इसकी चिंता है कि भविष्य में राज्यस्थिति वैâसे रहेगी?
राजा का प्रश्न सुनकर श्रीगुरु ने कहा-इसी देश के वूâट नामक नगर में राजा रणवीर सिंह और उसकी त्रिलोचना नाम की रानी थी। इसी नगर में एक कुणबी रहता था। उसकी पुत्री तुंगभद्रा थी। इस भाग्यहीन कन्या के पापोदय से शैशव अवस्था में ही माता-पिता आदि बंधु-बांधव सब कालवश हो गये और यह अनाथिनी अकेली अन्न-वस्त्र से वंचित हुई, जूठन पर गुजार करती समय बिताने लगी।
वह जब आठ वर्ष की हुई, एक दिन घास काटने को वन में गई थी, वहाँ पिहिताश्रव मुनिराज के दर्शन हो गये। वह बालिका भी लोगों के साथ श्रीगुरु को नमस्कार करके धर्मश्रवण करने लगी, परन्तु भूख की वेदना से व्याकुल हुई।
इसके कुछ भी समझ में नहीं आता था, तब इस दु:खित कन्या ने दु:ख से कातर होकर पूछा-हे दयानिधान गुरुदेव! मैं जन्म से अनाथिनी अन्न-वस्त्र तक का कष्ट पा रही हूँ, इसलिए कृपाकर ऐसा कोई उपाय बताइये कि जिससे मेरा दु:ख दूर होवे।
तब श्रीगुरु ने कहा-हे पुत्री! यह सब तेरे पूर्वजन्म के पाप का फल है। अब तू श्रीजिनेन्द्रदेव, निग्र्रन्थ गुरु, दयामयी धर्म पर श्रद्धा करके भाव सहित मौन एकादशी व्रत का पालन कर, जिससे तेरे पाप का क्षय होवे और संसार का अन्त आवे। सुन, इस व्रत की विधि इस प्रकार है-
पौष वदी एकादशी को सोलह प्रहर का उपवास कर और ये सोलह प्रहर जिनालय में धर्मकथा, पूजाभिषेकादि धर्मध्यान में व्यतीत कर, तीनों काल सामायिक कर, सोलह प्रहर मौन से रह, अर्थात् मुँह से न बोले, हाथ, नाक, आँख आदि से संकेत भी न करे।
इस प्रकार जब सोलह प्रहर हो जावें तब द्वादशी की दोपहर को पूजाभिषेक करके सामायिक या स्वाध्याय करे और फिर अतिथि (मुनि, गृहत्यागी) श्रावक या साधर्मी गृहस्थ व दीन-दुखित भूखित को भोजन कराकर आप पारणा करे। जो कोई व्रती पुरुष हों उनको नारियल या खारक, बादाम आदि बाँटे। इस प्रकार ग्यारह वर्ष तक यह व्रत करके फिर उद्यापन करे और उद्यापन की शक्ति न होवे तो दूना व्रत करे। उद्यापन विधि इस प्रकार है कि आवश्यकता होवे तो श्री जिनमंदिर बनवाये, २४ भगवान की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करके पधरावे। घण्टा, झालर, चौकी, चन्दोवा, छत्र, चमर, शास्त्रादि २४-२४ जिनालय में पधरावे। शास्त्र भंडार की स्थापना करे, ग्रंथ वितरित करे, विद्यार्थियों को भोजन करावे, यथाशक्ति आवश्यक संघ को आहारदान देवे।
नारियल आदि साधर्मियों को बाँटे, महापूजा विधान करे, दु:खी अपाहिजों को भोजन, वस्त्र, औषधि आदि दान करे, भयभीत जीवों को अभयदान दे, इत्यादि विधि सुन, उस दरिद्र कन्या ने भावसहित व्रत पालन किया और अन्त समय संन्यास सहित णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर तेरे घर यह पुत्र हुआ है। यह पुत्र चरमशरीरी है, इसी से राज्यभोग मेें इसका चित्त नहीं लगता है, यह बहुत ही थोड़े समय घर मेें रहेगा।
राजा इस प्रकार श्रीगुरु के मुख से अपने पुत्र का वृत्तांत सुनकर घर आया। संसार, देह, भोगों से विरक्त होकर उसने अपने पुत्र का राज्यतिलक किया, पश्चात् पिहिताश्रव आचार्य के पास दीक्षा ले ली। इसके साथ और भी बहुत से राजाओं ने दीक्षा ली और राजा सुकौशल राज्य करने लगा। सो वह अल्पसंसारी राजनीति की कुटिलता को न जानता हुआ सुखपूर्वक कालक्षेप करने लगा।
एक समय मतिसागर नामक भण्डारी ने श्रुतसागर नामक मंत्री से मंत्रणा किया कि राजा राजनीति से अनभिज्ञ है, इसलिए इसे वैâद करके मैं तुम्हें राजा बनाए देता हूँ और मैं मंत्री होकर रहूँगा। परन्तु वह वार्ता मतिसागर के पुत्र और राजा के बालसखा द्वारा राजा के कान तक पहुँच गई, राजा ने मतिसागर को इस कुटिलता व घृष्टता के बदले अपमान सहित देश से निकाल दिया और श्रुतसागर को राज्यभार सौंपकर आप अपने पिता के पास गये और दीक्षा ले ली।
यह मतिसागर भण्डारी भ्रमण करते हुए दु:ख से (आर्तभावों से) मरणकर सिंह हुआ, सो विकराल रूप धारण किये अनेक जीवों का घात करता हुआ विचरता था कि उसी वन में विहार करते हुए वे हरिवाहन और सुकौशलस्वामी आ पहुँचे। सिंह ने इन्हें देखकर पूर्व वैर के कारण क्रोधित होकर इनके शरीर को विदीर्ण कर दिया। वे मुनिराज उपसर्ग जानकर निश्चल हो शुक्लध्यान को धारणकर आत्मा में निमग्न हो गये, तब सिंह भी उपशांत होकर वहाँ से चला गया और वे मुनि अंतकृत केवली होकर सिद्ध पद को प्राप्त हुए और सिंह मुनिहत्या के कारण मरकर नरक में घोर दु:ख भोगने को चला गया।
प्राणी नि:संदेह अपने ही द्वारा किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल सुख व दु:ख भोगा करते हैं।
इस प्रकार एक दरिद्रा कन्या ने भी मौन एकादशी व्रत श्रद्धा व भक्तिपूर्वक पालन किया, जिसके फल से वह सुकौशल स्वामी होकर सकल कर्मों का क्षय कर सिद्धपद को प्राप्त हुई। तो और जो कोई भव्यजीव ज्ञान व श्रद्धापूर्वक यह व्रत करेंगे, तो अवश्य ही उत्तमोत्तम सुखों को प्राप्त करेंगे।