भव्यात्माओं! मोह का नाश करने के लिए कारणभूत जिनेन्द्रदेव का उपदेश है उस उपदेश को अर्थात् जिनेन्द्रदेव की वाणी को प्राप्त करके भी पुरुषार्थ ही अर्थ क्रियाकारी है। बिना पुरुषार्थ के मोह का नाश नहीं किया जा सकता है। प्रवचनसार में कहा है कि-
जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलद्ध जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण।।८८।।
अर्थात् जो जिनेन्द्रदेव के उपदेश को प्राप्त करके मोह, राग-द्वेष का हनन करता है वह अल्पकाल में सर्वदु:खों से छुटकारा पा लेता है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं-
वास्तव में इस दीर्घ संसार में जैसे-तैसे बहुत ही मुश्किल से श्री जिनेश्वर का उपदेश मिलता है, जो कि तीक्ष्ण तलवार की धार के समान है, जो महापुरुष इस उपदेशरूपी तीक्ष्ण तलवार से मोह, राग और द्वेषरूपी अपने अंतरंग शत्रुओं का सफाया कर देते हैं वे ही जीव संसार के दु:खों से छूट जाते हैं। चूँकि हाथ में तलवार रहते हुए उसका फल यही है कि शत्रु पर प्रहार करना, यदि हाथ में तलवार रहते हुए भी कोई अपने शत्रु का वार सहता रहे और उसका सामना न कर सके या उसे न मार सके तो उसके हाथ में रखी हुई तलवार का क्या उपयोग हुआ? आचार्य कहते हैं कि
‘अतएव सर्वारंभेण मोहक्षपणाय पुरुषकारे निषीदामि।’
इसलिए संपूर्ण प्रयत्नपूर्वक मोक्ष का क्षपण करने के लिए पुरुषार्थ में सन्नद्ध होता हूँ। इसी गाथा की टीका करते हुए श्री जयसेनाचार्य ने कहा है कि – यह जिनेन्द्रदेव का उपदेश इस संसार में अत्यन्त दुर्लभ है। एकेन्द्रिय से दो इन्द्रिय पर्याय पाना दुर्लभ है, दो इन्द्रिय से तीन इंद्रिय पर्याय को प्राप्त करना दुर्लभ है और तीन इंद्रिय से चार इन्द्रिय होना दुर्लभ है पुन: पंचेन्द्रिय होना अत्यंत दुर्लभ है।
पंचेन्द्रिय पर्याय में भी मनुष्य पर्याय पाना तो बहुत ही कठिन है, मनुष्य पर्याय पाकर भी जिनेन्द्रदेव का उपदेश प्राप्त करना तो अत्यंत ही दुर्लभ है, जैसे-तैसे बड़ी कठिनता से परम्परा से दुर्लभ ऐसे जिन उपदेश को प्राप्त करके भी जो भव्यजीव निज शुद्धात्मा की निश्चल अनुभूति लक्षण निश्चय सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्ज्ञान इन दोनों के साथ अविनाभूत संबंध रखने वाले ऐसे वीतराग चारित्र नामक पैनी खड्ग को पा लेता है और इस तीक्ष्ण खड्ग से मोह राग-द्वेषरूपी शत्रुओं का नाश कर देता है। वही जीव अपने सम्पूर्ण दु:खों का क्षय कर देता है।
इस गाथा में भगवान कुन्दकुन्ददेव शिष्यों को चरित्ररूप पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दे रहे हैं। टीकाकारों ने इसी भाव को स्पष्ट किया हुआ है। श्री अमृतचन्द्र सूरि ने जिनदेव की वाणी को ही पैनी तलवार की धार बताया है और मोहादि शत्रुओं के ऊपर उस शस्त्र का प्रहार करना ही चारित्र है अत: चारित्र को पालन करने की प्रेरणा दी है और स्वयं भी कहा है कि मैं मोह का क्षपण करने के लिए सर्वप्रयत्न से पुरुषार्थ में लगता हूँ।
श्री जयसेन स्वामी ने वीतराग चारित्र को पैनी तलवार बताया है चूँकि साक्षात् रूप में उसी से मोह राग-द्वेष का निर्मूल नाश होता है। अब सोचना यह है कि जब तक हमें वीतराग चारित्र की प्राप्ति न हो तब तक क्या करना चाहिए? तब तक सराग चारित्र में प्रवृत्ति करनी चाहिए क्योंकि वह सराग चारित्र ही वीतराग चारित्र को प्राप्त कराने वाला है। अब आपको यह जानना है कि सराग चारित्र क्या है?
सराग चारित्र क्या है
अट्ठाईस मूलगुणरूप चारित्र जिसका कि मुनिजन पालन करते हैं वही सराग चारित्र है। यदि हम सराग चारित्र भी ग्रहण न कर सकें तो क्या करना चाहिए? तो सराग चारित्र धारण करने की भावना भाते हुए एकदेशरूप पाँच अणुव्रतों को अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए? क्योंकि मुनि तो शुद्धोपयोग में स्थित होने की भावना करते हैं और श्रावक मुनि बनने की भावना करते हैं किन्तु अणुव्रत तो ग्रहण अवश्य ही करते हैं और वे ही श्रावक कहलाने के अधिकारी होते हैं।
‘‘मुनियों के मूलगुण तो बंध के ही कारण हैं अत: उनकी भावना कैसे करना? क्योंकि यह व्यवहार चारित्र भी हेय ही है। इन मूलगुणों से कर्मों की निर्जरा भी होती है तथा मूलगुणों को धारण किए बिना, इस सराग चारित्र का आश्रय लिये बिना आज तक किसी ने भी वीतराग चारित्र को प्राप्त नहीं किया है अत: यह व्यवहार चारित्र सर्वथा हेय नहीं है अन्यथा तीर्थंकर भगवान् स्वयं इस सराग चारित्र को क्यों ग्रहण करते और इस भेद रत्नत्रय को पालन करने का उपदेश भी क्यों देते? अत: जो चारित्र तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट है वह हेय नहीं कहा जा सकता है।
हाँ इतना अवश्य है कि वीतराग चारित्र की अपेक्षा सराग चारित्र हेय है किन्तु वीतराग चारित्र को प्राप्त करने का यह मार्ग होने से यह उपादेय भी है। ‘‘जो अन्त में छोड़ने योग्य है ऐसा व्यवहार चारित्र क्यों ग्रहण करना? वास्तव में तो मोक्ष की भावना करना ही सर्वोत्तम है। देखो! भावना तो आप भगवान बनने की ही करिए। किन्तु यहाँ पर शरीर के साथ रहते हुए कम से कम इंसान तो बने रहिए और यह व्यवहार चारित्र ही आपको इंसान बनाता है अन्यथा आप क्या करेंगे?
व्यवहार चारित्र अर्थात् पाँच अणुव्रत और पाँच महाव्रतों को हेय समझकर क्या पाँच पापों का सेवन करते रहेंगे, आखिर करेंगे क्या? व्रत नहीं तो अव्रतरूप ही तो प्रवृत्ति होगी। अत: सम्यग्दृष्टि बनकर मोक्ष की प्राप्ति ध्येय रखना चाहिए। किन्तु यदि श्रावक है तो मुनि होने की भावना भानी चाहिए और मुनि है तो शुद्धोपयोग को प्राप्त करने की सतत भावना रहनी चाहिए।
यह भावना दोषास्पद नहीं प्रत्युत् कर्म निर्जरा के लिए भी कारणभूत है क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति के लिए कारणभूत सामग्री की उपेक्षा करने से और मात्र मोक्ष को प्राप्त करने की भावना करते रहने से मोक्ष की प्राप्ति असंभव ही है।