संसार में दो प्रकार के मार्ग बताये गये हैं-पहला भक्तिमार्ग और दूसरा वैराग्यमार्ग। विचार करके देखा जाये तो चतुर्थकाल में भक्ति और निवृत्ति में भरत-बाहुबली ने सर्वोत्कृष्ट पथ का अनुसरण किया था। क्या उन बाहुबली के वैराग्य की समानता कोई कर सकता है जो एक वर्ष तक बिना आहार पानी के ध्यान में लीन रहे। गर्मी, सर्दी, बरसात तीनों ऋतुओं को दिगम्बर शरीर पर झेलते रहे।
उनके प्रभाव से जन्मजात वैरी प्राणी आपसी वैर को छोड़कर शान्त हो गये थे। सर्पों ने उनके शरीर में वामी बना लीं, चिड़ियों ने घोंसले बना लिए, जंगल की वनस्पतियों ने शरीर पर बेलें चढ़ा दीं किन्तु बाहुबली अपने ध्यान से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए क्योंकि वे तो एक अलौकिक महामना मानव थे।
एक वर्ष पूर्ण होने ही वाला था, वे शुक्लध्यान प्राप्ति के सम्मुख ही थे कि तभी भरत के द्वारा स्तुति करते ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवों ने गंधकुटी की रचना कर दी जिसमें बाहुबली अर्हंत अवस्था में विराजमान होकर समस्त भव्य प्राणियों को दिव्यध्वनि का पान कराने लगे।
भगवान बाहुबली की शल्य
यहाँ एक बात मैं यह बताना चाहूँगी कि भगवान बाहुबली के बारे में आज यह किंवदन्ती चल गई है कि ‘उन्हें यह शल्य थी कि मैं भरत की भूमि पर खड़ा हूँ’ इसीलिए उन्हें एक वर्ष तक केवलज्ञान नहीं हुआ एवं भरत के आते ही बाहुबली के हृदय से यह शल्य निकल गई और उन्हें तुरंत केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
किन्तु सिद्धांत की दृष्टि से यह बात बिल्कुल असत्य ठहरती है क्योंकि शल्य के तीन भेद माने हैं-माया, मिथ्यात्व और निदान। ये तीनों शल्य तो पंचम गुणस्थानवर्ती के ही नहीं होती हैं तो बाहुबली सरीखे उत्कृष्ट जिनकल्पी महाव्रती में इन शल्यों के होने का प्रसंग ही नहीं उठता। शल्य के रहते हुए उन्हें अनेक ऋद्धियाँ कैसे प्राप्त हो सकती थीं?
जबकि बाहुबली भगवान को ध्यानावस्था में बहुत सारी ऋद्धियाँ प्रगट हो गई थीं। यह शल्य वाली किं वदन्ती कहाँ से चल गई है समझ में नहीं आता। आदिपुराण में तो कथन आया है कि ‘बाहुबली के हृदय में यह विकल्प कभी-कभी आ जाता था कि भरत को मेरे द्वारा कुछ क्लेश हो गया है इसीलिए उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न होने में इतना समय लगा। मैंने अपने द्वारा रचित बाहुबली पूजन में आदिपुराण के ही आधार से जयमाला में पंक्तियाँ रखी हैं-
होता विकल्प यह कभी-कभी, मुझसे चक्री को क्लेश हुआ। अतएव अपेक्षा उनकी थी, आते ही केवलज्ञान हुआ ।
इसी प्रकार से मैंने कामदेव बाहुबली, योग चक्रेश्वर एवं बाहुबली नाटक आदि पुस्तकों में भी आगम आधार से सिद्ध किया है कि भगवान बाहुबली को शल्य नहीं थी। शल्य सहित के मन:पर्यय ज्ञान भी नहीं हो सकता है। जबकि आदिपुराण में बाहुबली के मन:पर्ययज्ञान और अनेक ऋद्धियाँ मानी हैं।
यह था उत्कट वैराग्य का उदाहरण, जिन्होंने सब कुछ जीतकर भी उसे छोड़ दिया और छोड़ा भी इस तरह से कि वापस उधर मुड़कर भी कभी न देखा। आज जब घरों में भाई-भाई का पारस्परिक झगड़ा होता है तब लोग भरत-बाहुबली का उदाहरण देकर कहने लगते हैं कि उन जैसे महापुरुषों को भी तो धन-सम्पत्ति के लिए युद्ध करना पड़ा था किन्तु कोई यह नहीं सोचता कि जीतने के बाद भी बाहुबली ने जीर्ण तृण के समान उस वैभव को छोड़कर कैसा घोर तपश्चरण किया था।
भरत-बाहुबली का यह युद्ध तो हुण्डावसर्पिणी काल का एक दोष ही था जो कि एक चक्रवर्ती का पराभव-अपमान अपने ही भाई द्वारा किया गया अन्यथा चक्रवर्ती का पराभव कभी किसी के द्वारा नहीं हो सकता है। हुण्डावसर्पिणी के ही दोष से ऋषभदेव तीर्थंकर ने तृतीयकाल के अंत में ही जन्म लिया और मोक्ष भी चले गये। भगवान बाहुबली को उनसे भी पहले निर्वाण प्राप्त हो गया था। इसके पश्चात् चतुर्थकाल के आदि से अन्त तक शेष २३ तीर्थंकर हुए हैं।
भरत चक्रवर्ती का केवलज्ञान
इसी प्रकार भक्ति के क्षेत्र में भरत चक्रवर्ती का उदाहरण है, जिन्होंने एक नहीं सैकड़ों बार भगवान की पूजा कर-करके अपने कर्मों को इतना शिथिल कर लिया था कि दीक्षा धारण करते ही अन्तर्मुहूर्त में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया था। कल्याणमंदिर स्तोत्र में श्री कुमुदचन्द्राचार्य ने कहा है-
अर्थात् जैसे जंगल में चंदन के वृक्षों में सुगंधि के कारण लिपटे हुए महाविषधर सर्प भी मोर की आवाज सुनते ही शिथिल पड़ जाते हैं क्योंकि सर्प और मयूर का जन्मजात पारस्परिक वैर है, मयूर उसके टुकड़े-टुकड़े करके मार डालता है इसीलिए साँप उसकी आवाज मात्र से डरकर अपने बंधन ढीले कर देता है।
उसी प्रकार प्राणियों के हृदय में आपकी नामरूपी मयूर वाणी का जब प्रवेश हो जाता है तो कर्मरूपी सर्पों के बंधन स्वयमेव ढ़ीले हो जाते हैं अर्थात् नष्ट होने लगते हैं। चक्रवर्ती भरत ने भी इसी प्रकार की भक्ति करके अपने कर्मबंधन ढ़ीले कर लिए थे।
पंचमकाल में मोक्ष नहीं
आज पंचमकाल है अत: इस भव से तो मोक्ष नहीं है किन्तु भक्ति के और त्याग के बल पर एक भवावतारी बनने का पुण्य अर्जित किया जा सकता है। भावसंग्रह में श्री देवसेनाचार्य ने भव्यात्माओं के लिए बड़ा सुन्दर संबोधन प्रदान किया है-
अर्थात् जितने कर्मों को चतुर्थकाल में एक हजार वर्ष की तपस्या से नष्ट किया जाता था आज उतने कर्मों को एक वर्ष में नष्ट किया जा सकता है इसका कारण यही बताया है कि पंचमकाल में हीन संहनन है, शारीरिक शक्ति कमजोर है, चित्त चंचल है, शरीर अन्न का कीड़ा है फिर भी आश्चर्य की बात है कि जिनलिंग को धारण करने वाले महापुरुष आज भी इस पृथ्वी तल पर विहार कर रहे हैं।
इसी प्रकार पहले जिस भक्ति के बल पर इन्द्र, चक्रवर्ती आदि महान् पुण्य अर्जित करते थे वैसे ही आज भी भगवान के श्रीचरणों की पूजा से आप लोग भी असीम पुण्य संचित कर सकते हैं। मैंने स्वयं अनुभव किया है कि जिस समय मैं बड़े-बड़े विधानों की पूजाओं को लिखा करती थी उस समय इतनी तन्मयता हो जाती कि कोई भी दर्शन के लिए आता-जाता किन्तु मुझे कुछ पता नहीं चलता।
बाद में लोगों की शिकायतें सुनकर ज्ञात होता कि वे लोग दर्शन करने आये थे किन्तु उपयोग की एकाग्रता के कारण मैं आशीर्वाद भी न दे सकी।
भक्ति का स्वरुप
भक्ति की एकाग्रता वास्तव में मात्र अनुभवगम्य ही आनंद है, उसे वचनों के द्वारा किसी के समक्ष प्रगट नहीं किया जा सकता। भक्तों का नमस्कार स्वीकार करना, उन्हें आशीर्वाद देना तो दूर की बात है, विधानों के रचनाकाल में तो मुझे ऐसी अनुभूति होती थी कि मैं साक्षात् ही अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना कर रही हूँ। अपनी शारीरिक अस्वस्थता में अभी भी मुझे वही भक्ति संबल प्रदान करती है। भक्ति ही एक दिन निवृत्ति का रूप धारण कर
लेती है। मोक्षमार्ग के इन दोनों सूत्रों से गृहस्थधर्म और मुनिधर्म परिलक्षित होता है। अनादिकाल से ये दोनों ही धर्म चले आये हैं। मुनियों को छठे-सातवें गुणस्थान तक पंचपरमेष्ठी की भक्ति करने हेतु आचार्यों ने निर्देश दिये हैं जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने भी अपनाया था। कुछ लोगों की ऐसी धारणा है कि दिगम्बर साधुओं को भगवान के दर्शन की क्या आवश्यकता है?
वे तो स्वयं भगवान की प्रतिकृति होते हैं किन्तु यह उनकी मान्यता गलत है। मूलाचार आदि ग्रंथो में भी स्थविरकल्पी मुनियों के लिए जिनेन्द्रभक्ति का स्थान-स्थान पर निर्देश किया है, भगवान का अभिषेक देखते समय अभिषेक वंदना, नाम की क्रिया में सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु, शांतिभक्ति पढ़ने की विधि बताई है, तीनों काल की सामायिक भी मंदिर में जिनप्रतिमा के समक्ष ही करने के लिए कहा है। आहार के लिए उठते समय भी आप देखते हैं कि भगवान के दर्शन करके ही आचार्य अथवा साधुगण मंदिर से चर्या को निकलते हैं।
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने कभी भी भगवान के दर्शन किये बिना आहार नहीं किया। उसी परम्परा का निर्वाह करते हुए हम लोग भी सदैव जिनप्रतिमा के दर्शन करके ही आहार को उठते हैं।
जब तक आप निवृत्ति-पूर्णत्याग रूप मुनिधर्म को धारण नहीं कर सकते तब तक देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति को जीवन में प्रधानता से पालन करें तभी कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। पंचमकाल के अंत तक भक्ति और निवृत्ति दोनों मार्ग अविच्छिन्न रूप से चलेंगे यह श्रद्धान रखते हुए पदानुसार कर्तव्य का पालन करो यही मेरा कहना है।