जय स्फटिक रूपद भामिनी, श्री पद्मावती अघहारिणी।
धरणेन्द्रराज कुलयक्षिणी, दीर्घ आयुरारोग्य रक्षिणी।।
‘‘कज्जलं कुमकुमं काचं कबरी कर्णशेखरम्।
एवं पंच प्रकीत्र्यानि ककाराणि पुरन्घ्रीणाम्।।’’
अर्थात् काजल, कुमकुम, काँच, केश व कर्णपूल ये पति-पुत्रवती (सौभाग्यवती) स्त्री के पाँच ककार कहे गये हैं। सौभाग्यवती कहलाने वाली महाभाग्यवती को ऊपर कहे पाँच ककारों को जीवन के आखिर तक प्राप्ति होकर अखण्ड सौभाग्यवती कहलाकर बड़े गौरव से उसका आयुपर्यन्त यश पैâलता है। आत्म कुमकुम और संपत् कुमकुम इन व्रतों के महत्व का वर्णन श्री धरणेन्द्र देवराज की चंचल जिव्हा द्वारा भी किया जाना अति कठिन है, यह महाकल्याणकारी है। बरसाती तुच्छ नदी प्रवाह के समान क्षणभंगुर जीवन को निस्सार समझकर संसार बढ़ाना मूर्खपने है। इस भवसागर से पार होने के लिए विचारशील को यह व्रत करणीयभूत है इसलिए महिलागण इस व्रत को पालन करने में दृढ़ बनें, अबला की तरह अति कोमल न होवें। स्त्री जन्म को इसी भव में सार्थक कर लेवें, क्योंकि अगला जन्म उच्च कुल में ही होगा, ऐसा निश्चित नहीं कहा जा सकता। इसीलिए नर से नारायण बनने का यही उत्तम साधन है इसलिए जागरूक होकर उत्साह व प्रसन्नता से व्रत धारण करें, उससे दु:ख में सुख की प्राप्ति होगी। इस प्रकार रुक्मावती ने उन भट्टारक जी के मुख से व्रत का माहात्म्य, विधि और फल सुनकर अपनी दरिद्रता की बिना परवाह किये महाराज के पास व्रत लेने का मन में निश्चय किया। उसने भट्टारक जी को नमोऽस्तु करके अपने भाव व्यक्त किये। उन्होंने पंचपरमेष्ठी की साक्षी से उसको व्रत दिया। रुक्मावती महाराज से व्रत लेकर घर गई और शक्य सामग्री से व्रत शुरू किया।
उसी गाँव में रुक्मावती का गुरुदेव नाम का भाई रहता था। वह बड़ा धनाढ्य था। उसने अपने पुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार के निमित्त गाँव के सारे नागरिकों को एक सप्ताह पर्यन्त इच्छित भोजन कराकर संतुष्ट करने के भाव से घर-घर निमंत्रण दिया। मगर अपनी बहिन को निमंत्रण मात्र भी नहीं भेजा, क्योंकि वह दरिद्रा थी, अगर वह आयेगी तो देखकर लोक में निंदा होगी, यह सोचकर उसे याद तक नहीं किया। गाँव के छोटे-बड़े सब लोग खा-पीकर ताव देकर डकार लेते हुए उसी के दरवाजे के सामने से जाने लगे तब उसको एक प्रकार का आश्चर्य हुआ और सोचने लगी कि मैं और मेरा भाई एक ही हाड़, माँस, रक्त, पिंड के होते हुए देखो उसने सब लोगों को संतुष्ट किया है, मैंने उसका ऐसा क्या बिगाड़ किया है? फिर सोचा शायद कामकाज की धांधली में भूल हो गई होगी। इसलिए बेकार उस पर रोष करके मुझे मेरे सोने जैसे भाई को दोष देना ठीक नहीं। निमंत्रण नहीं भेजा तो क्या हुआ? भाई ही का तो घर है, जाने में क्या हरज है। ऐसा विचार करके वह बाल-बच्चों सहित जीमने गई। बच्चों को सामने लेकर स्त्रियों की पंगत में बैठ गई। थोड़ी देर बाद उसका भाई कौन आया, कौन रहा, यह जानने के लिए वहाँ घूम रहा था, उसका ध्यान अपनी बहिन की तरफ गया तो पास आया और गुस्से से बोला, ‘‘बहिन तू आज यहाँ कैसे आई? तेरी गरीबी के कारण ही तो मैंने तुझे जानबूझकर नहीं बुलाया, तेरे पास न अच्छे कपड़े हैं न गहने। तुझे ऐसी दरिद्र देखकर लोग मुझ पर हसेंगे। इसलिए आज तो आई सो आई मगर कल मत आना, समझी! बहिन बेचारी लज्जित होकर नीची गर्दन कर खा-पीकर बच्चों को लेकर घर गई। दूसरे दिन भी बच्चे कहने लगे-माँ! अपन आज भी मामा के यहाँ खाने को जायेंगे, यह सुनकर माँ के पेट में खलबची मची। उसने बच्चों को बहुत डांटा मगर वे माने नहीं, उनके हठ के कारण फिर मन में विचार किया कि वैâसा भी हो अपना भाई ही तो है, बोला तो क्या हुआ, अपनी गरीबी है तो सुनना ही पड़ेगा, मगर आज का निर्वाह तो होगा। ऐसा सोचकर दूसरे दिन भी बच्चों को लेकर भाई के घर गई और खाने को बैठी। कल की तरह आज भी भाई की सवारी पंगत में आने पर उसने उसे देखा और बोला-‘‘बहिन तू कैसी भिखारिन है? कल तुझे मना किया था तो भी आज फिर सुअरी जैसी बच्चों को लेकर आ गई? तुझे शर्म वैâसे नहीं आई? आज आई तो आई अगर कल फिर आई तो हाथ पकड़कर निकाल दूँगा।’’ उस बेचारी ने चुपचाप यह सुन लिया और खाने के बाद उठकर अपने घर चली गई। तीसरे दिन भी इसी प्रकार हुआ तब भाई को खूब गुस्सा आया और उसने उसको धक्का देकर बाहर निकाल दिया। तब उसे बहुत दु:ख हुआ,घर जाकर बहुत पूâट-पूâटकर रोई। उसके मन में विचार आया कि कौन जन्म में कौन-सा घोर पाप किया जिससे इस जन्म में मुझे घोर दरिद्रता की मार पड़ रही है। सच है अनन्त जन्मों के पाप की राशि इस दरिद्रता का मुख्य कारण है। इसकी अपेक्षा तो मुझे नरक के दु:खों से भुन जाना ही अच्छा होता, अब यह यम-यातना सही नहीं जाती, इससे तो मरण अच्छा। क्योंकि वह तो एक बार ही भुगतना पड़ता है परन्तु दरिद्रता का दु:ख जीवन पर्यन्त भोगना पड़ेगा। धिक्कार है मेरे इस जीने को! हे देवी पद्मावती! हे अम्बिका माता! तू ही मेरी सहायता कर माँ! मुझे जगत में किसी का आधार नहीं, तू तो आसरा दे माता! इस प्रकार करुण क्रन्दन करके वह खूब रोई, रोते-रोते उसे नींद आ गई। नींद में उसे स्वप्न आया। उसके रोने की ध्वनि पद्मावती देवी के कानों पर जा टकराई, महादेवी तत्काल मुकुट, कुण्डल, हार जवाहरात आदि पहनकर एक हाथ में धर्मचक्र लिए जगमगाती पोशाक पहने उसके पास आकर खड़ी हो गई और कहने लगी कि ‘‘हे महाभागे! तू दु:खी होना नहीं, बिल्कुल घबराना नहीं, तू जो आचरण कर रही है उस संपत् शुक्रवार व्रत को मैं अच्छी तरह जानती हूँ। आज तुझे दरिद्रता संबंधी महान दु:ख हुआ है तथापि तेरे कष्ट अत्यन्त तेज से युक्त हैं, कारण-
कष्टाधीन ही दैवचि, देवाधीन सुकृतफल तदाधीव।
सुज्ञावाक्याचरिता भुक्ति मुक्ति मिले तदाधीन।।
कष्टाधीन दैवयोग है। दैवाधीन ही पुण्य का फल है। इसलिए महान पुरुषों के द्वारा कथित मार्ग पर चलना चाहिए उसके आधीन संसार के भोग व मुक्ति है।
‘‘तू ध्यान दे और एक निष्ठापन से श्री जिन परमात्मा का चिन्तन कर उससे तेरा कल्याण होगा।’’ ऐसा कहकर वह देवी अदृश्य हो गई। रुक्मावती ने नींद से जागकर देखा तो वहाँ कोई नहीं दिखा। यह क्या चमत्कार है? कह कर वह उठ बैठी, मगर उसका मस्तक शून्य हो गया, उसे कुछ भी नहीं सूझा तो फिर वह श्री जिनमंदिर में जाकर शान्त चित्त से श्री पद्मावती महादेवी का मुख कमल देखने लगी। तब उसे वह मूर्ति हँसती हुई दिखाई दी। उस वक्त रुक्मावती दोनों हाथ जोड़कर विनती करने लगी कि ‘‘हे देवी! महामाते! अम्बिका! पद्मावती माता! मैं अनाथ हूँ, मैंने तुम्हारी शरण को पाया है, मुझ गरीब की रक्षा करो, मुझे सन्मार्ग पर लगावो। तुम्हारी लड़की घोर संकट में है। इस जगत में मेरा कोई रक्षक नहीं रहा। भाई-भाई कहती हुई अब कहाँ जाउँâ, मैंने तुम्हें ही अपने मन में धारण किया है।’’
इस प्रकार कहते-कहते आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकली और बहुत देर तक प्रार्थना व भक्ति करने के बाद उसे भान हुआ कि घर में बच्चे भूख से व्याकुल होंगे, सोचकर ध्यान से उठी और घर को चली। घर आकर क्या देखती है कि उसे अपने बच्चे कामदेव के अवतार के समान दिख रहे हैं। घर में धन-धान्य की भरमार होने लग गई है। हर काम में यशवृद्धि हो रही है। जगह-जगह वैभव फेलता जा रहा है और सामने नवीन हवेली बनकर तैयार है। घर में लक्ष्मी की बाढ़ सी आई हुई है कि शायद श्रावण मास में बहने वाली नदी का प्रवाह भी उससे कम ही होगा। यहाँ-तहाँ आनन्द ही आनन्द है। सच देखा जाये तो जहाँ उसे दो वक्त खाने की भी मारामार थी वहाँ अब नये-नये पकवान की थालियाँ भरी दिखने लगी हैं। अनेक प्रकार के ऐश्वर्य प्राप्त हैं। सब तरह से घर भरपूर है, उसकी कीर्ति दूर-दूर तक पैâल गई है। यह कीर्ति सुनकर उसका भाई गुरुदेव आश्चर्य चकित हो गया। अपनी बहिन का आदर सत्कार करना चाहिए ऐसा विचार कर वह स्वयं अपनी बहिन के घर आया और बहन से बोला-‘‘बड़ी बहन! तुम कल मेरे घर खाने को आना। ना नहीं करना, तुम आओगी तब ही मैं खाना खाऊँगा, नहीं तो मैं भी खाना खाऊँगा नहीं, समझीं।’’ बहिन ने सोचा, चलो अपना भाई बड़े सम्मान से बुलाता है, अब हम श्रीमंत हुए तो एक साथ गर्व नहीं करना चाहिए। इसका इस समय अपमान करना ठीक नहीं। सिर्पâ इसको अपने किए हुए का पश्चाताप होवे और सन्मार्ग प्रवर्तक होकर अहंकार छोड़े, ऐसा विचार कर वह अच्छे-अच्छे गहने तथा बढ़िया ओढ़नी पहन उत्तम शृँगार करके सम्मान से भाई के घर गई। भाई बड़ी आस्था से राह देख रहा था, उसके आने के साथ उसे पाँव धोने को गर्म जल दिया, पाँव पोंछने को रुमाल दिया। थालीपरोसने पर दोनों बहन-भाई बड़े प्रेम से पास-पास खाने को बैठे। बैठे हुए पाटे पर उसने बदन पर से ओढ़नी उतारकर रख दी, भाई ने समझा गर्मी लगती होगी बाद में उसने शरीर पर से गहने निकालकर रखे, भाई ने सोचा अपनी कोमल बहिन को बोझा लगता होगा सो खाना खाने के वक्त तक के लिए निकाला है। परन्तु उसकी बहिन ने पहला चावल का ग्रास उठाया और ओढ़नी पर रखा। जलेबी उठाई और मोती के वंâगन पर रखी। पूरण पोली उठाई और हार पर रखी, भाजी उठाई और वंâठी पर रखी। लाडू उठाया और भुजबंध पर रखा। यह देखकर भाई ने पूछा-बड़ी बहन! तुम यह क्या कर रही हो? तो बहिन ने शान्त मुद्रा से कहा मैं जो करती हूँ वह ठीक है, जिनको तुमने खाने को बुलाया है उनको मैं खाना दे रही हूँ। उसकी कुछ समझ में नहीं आया, फिर उसने विनती की कि बहिन अब तो तुम खाना खावो। तब बहिन ने कहा कि हे भाई साहब! आज खाना मेरा नहीं है, इस लक्ष्मी बहन का है। मेरा खाना मैं पहले ही खा चुकी हूँ। ऐसा सुनते ही भाई के मन में पश्चाताप हुआ। उसने बहन के पाँव पकड़े और बीती हुई गलती की क्षमा मांगी। बहिन भी उस समय बहुत दु:खी हुई और दोनों आपस में गले मिले और बाद में दोनों आनंद से खाने को बैठे, मन में जो शल्य था उसे निकाल दिया। जिनकी कृपा के प्रसाद से अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई उन पद्मावती माताजी की दोनों कुल के छोटे बड़े सभी कुटुम्बीजन सेवा करने लगे और अपनी अगणित सम्पत्ति का उपयोग अनेक व्रत उद्यापन, चतुर्विध संघ को दान, जिनमंदिर जीर्णोद्धार, जिनवाणी प्रचार, सिद्धक्षेत्र यात्रा आदि धर्म कार्यों में करने लगे। सहस्रनाम मंत्र का क्रम से कुमकुम अर्चन करने लगे। इन सब परिणामों को देखकर वहाँ के राजा ने भी भक्ति में दृढ़ होकर जिनधर्म की खूब ठाठबाट से प्रभावना की। बाद में थोड़े ही समय में सर्व कुटुम्बीजनों ने राजा सहित जिन दीक्षा धारण कर घोर तप किया और वे चतुर्गति का नाशकर अन्त में मोक्ष गये।