एकीभाव स्तोत्र के रचयिता श्री आचार्य वादिराज वि. की ११वीं शताब्दी के महान् विद्वान थे। वादिराज यह उनकी पदवी थी, नाम नहीं। जगत् प्रसिद्ध वादियों में उनकी गणना होने से वे वादिराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपकी गणना जैन साहित्य के प्रमुख आचार्यों में की जाती है।
वादिराज स्वामी का चौलुक्य नरेश जयसिंह (प्रथम) की सभा में बड़ा सम्मान था। पूर्वकृत पापोदय से आचार्यश्री के शरीर में कुष्ट रोग हो गया। निस्पृही वीतरागी संत अपने आत्मध्यान में ही लीन रहते थे। शरीर की वेदना से उन्हें किसी प्रकार की चिंता नहीं थी किन्तु जिनधर्मद्वेषी एक दुष्ट स्वभावी विद्वान् ने राजसभा में मुनिश्री का घोर उपहास कर राजा से कहा-राजन्! तुम जैनधर्म की इतनी मान्यता करते हो, श्रेष्ठ कहकर उनके साधुओं का सम्मान करते हो पर यह नहीं जानते कि ‘‘जैन साधु कोढ़ी (कुष्ट-ग्रस्त)’’ होते हैं। राजश्रेष्ठी को यह उपहास सहन नहीं हुआ। उसने भक्तिवशात् राजा से कहा-राजन्! यह असत्य है, जैन मुनियों की काया तपाये स्वर्ण के समान सुन्दर और तेजोदीप्त होती है।
राजा ने निर्णय लिया कि प्रात: आचार्यश्री के दर्शनार्थ चला जाये। इधर राजश्रेष्ठी दौड़ता हुआ आचार्यश्री के चरणों में पहुँचा। उसने आचार्यश्री से अपनी करुण कथा कह सुनाई और कहा-प्रभो! अब जिनधर्म की रक्षा का प्रश्न है। आप जो उचित समझें करें, आचार्यश्री ने उन्हें आशीर्वाद दिया और आदिनाथ जी की भक्ति में लीन हो एकीभावस्तोत्र की रचना कर डाली। जिनभक्ति में लीन मुनिश्री जिनेन्द्र भक्ति का वर्णन करते हुए चौथे काव्य में लिखते हैं….हे भगवन्! भव्य जीवों के पुण्योदय से स्वर्ग से माता के गर्भ में आने वाले आपके द्वारा छ: माह पूर्व ही यह पृथ्वी कनकमयता को प्राप्त करा दी गई थी। हे जिनेन्द्र! ध्यानरूपी द्वार से मेरे मनरूपी मंदिर में प्रविष्ट हुए आप कुष्ट रोग से पीड़ित मेरे इस शरीर को सुवर्णमय कर रहे हो, इसमें क्या आश्चर्य है! अथवा हे जिन! जो कोई आपके दर्शन करता है, वचनरूपी अमृत का भक्तिरूपी पात्र से पान करता है तथा कर्मरूपी मन से आप जैसे असाधारण आनन्द के धाम दुर्वार काम के मदहारी व प्रासाद की अद्वितीय भूमिरूप पुरुष में ध्यान द्वारा प्रवेश करता है, उसे क्रूराकार रोग और कंटक कैसे सता सकते हैं?
जिनभक्ति के प्रसाद से रातभर में ही उनका गलित कुष्ट ग्रस्त शरीर स्वर्णवत् चमकने लगा। प्रात: राजा राजश्रेष्ठी और जिनधर्मद्वेषी सभी आचार्यश्री के दर्शनार्थ चल दिये। उसी जंगल में आ पहुँचे, जहाँ मुनिश्री ध्यान में लीन थे। उनका तेज दूर तक फैल रहा था। चमकती देहकान्ति को देखते ही राजश्रेष्ठी आनन्दविभोर हो गया। राजा ने पूछा-श्रेष्ठी, क्या ये ही आपके गुरु हैं? सेठ जी ने कहा-जी! हाँ। राजा उनके पावन चरणों में नतमस्तक हुआ और द्वेषियों की ओर कोप भरी दृष्टि से देखने लगा। सबके मन थर-थर काँपने लगे। मुनिश्री ने कहा-राजन्! यह सत्य है कि मेरे शरीर में कुष्ट था, अभी भी मेरी कनिष्ठा अंगुली में इसका प्रभाव शेष है किन्तु ‘‘जैनधर्म के सभी साधु कोढ़ी होते हैं’’ इस आक्षेप को दूर कर जिनधर्म की प्रभावना के लिए मैंने भक्ति के प्रसाद से यह रोग एक रात में दूर कर दिया है अत: इन बेचारों की कोई गलती नहीं। राजा मुनिश्री के वचनों से ऐसा सुनकर जैन दर्शन से बहुत प्रभावित हुआ। राजा ने व जिनधर्म द्वेषियों ने आचार्यश्री से क्षमा प्रार्थना की और जिनधर्म को धारणकर सम्यग्दर्शन प्राप्त किया।
इस एकीभाव स्तोत्र में छब्बीस पद्य हैं, उन काव्यों के अनुसार छब्बीस (२६) व्रत किये जाते हैं। उत्तम विधि उपवास, मध्यम अल्पाहार और जघन्य व्रत एकाशन करना है। इसमें तिथियाँ खुली हैं, जब जो तिथि सुविधाजनक हो, उसी दिन व्रत करें। व्रत के दिन स्तोत्र पाठ करें। चौबीस तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक करके पूजा करें पुन: प्रत्येक मंत्र पृथक्-पृथक् हैं, उनमें से क्रम से एक-एक जाप्य करें।
समुच्चय मंत्र-ॐ ह्रीं सर्वव्याधिविनाशनसमर्थाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
प्रत्येक व्रत के पृथक्-पृथक् मंत्र-
१. ॐ ह्रीं एकीभावसदृशकर्मबंधनाशनसमर्थाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
२. ॐ ह्रीं हृदयस्थितपापान्धकारविनाशनसमर्थाय ज्योतीरूपाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
३. ॐ ह्रीं स्तोत्रमंत्रप्रभावेनदेहस्थविषमव्याधिनिष्कासनसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
४. ॐ ह्रीं गर्भावतारप्राक्पृथ्वीकनकमयकरणसमानभाक्तिकतनु-सुवर्णीकरणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
५. ॐ ह्रीं भक्तजनहृदयस्थिततत्सर्वक्लेशविनाशनसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
६. ॐ ह्रीं त्वन्नयकथापीयूषवापीमध्यनिर्मग्नभाक्तिकदु:खदावोप-तापशांतकरणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
७. ॐ ह्रीं पादन्यासस्थलस्वर्णकमलमिवत्वत्स्पृशन्ममभक्तस्य-सर्वश्रेय:प्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
८. ॐ ह्रीं भक्तिपात्र्यात्वद्वचनामृतपिबन्भाक्तिक दुर्वाररोगनिवारण-समर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
९. ॐ ह्रीं मानस्तम्भसदृश-त्वत्समीपत्वप्राप्तभाक्तिकजनमान-रोगहरणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
१०. ॐ ह्रीं त्वन्मूर्तिस्पर्शितवायुना निरवधिरोगधूलिधुन्वन्समर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
११. ॐ ह्रीं भाक्तिकजनभव-भवदु:खनिवारणसमर्थपरमदयालु-सर्वेशाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
१२. ॐ ह्रीं मणिजयमालिकया त्वन्नमस्कारमंत्रजपद्भाक्तिकगण-स्वर्गलक्ष्मीप्रभुत्वकरणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
१३. ॐ ह्रीं अनवधिस्-त्वदुत्कृष्टभक्तिकुञ्चिकानिमित्तेनमुक्ति-द्वारोद्घाटनकारणसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
१४. ॐ ह्रीं भवद्भारतीरत्नदीपेन मुक्तिपथावलोकनसामर्थ्य-प्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
१५. ॐ ह्रीं कर्मक्षोणीपिहितात्मज्योतीनिधिप्रदायकाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
१६. ॐ ह्रीं त्वद्भक्तिगंगामध्यावगाहकभक्तगणसर्वकल्मष-क्षालनसमर्थाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
१७. ॐ ह्रीं त्वद्ध्यायन्भाक्तिकस्य सोऽहमितिमतिप्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
१८. ॐ ह्रीं सप्तभंगीतरंगयुत-त्वद्वाक्समुद्रमंथनोद्भवपरमामृत-प्रापकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
१९. ॐ ह्रीं शस्त्रवसनभूषाविरहितपरमसुंदरस्वरूपाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
२०. ॐ ह्रीं भवसमुद्रपारंगतसिद्धिकान्तापतित्रैलोक्यप्रभु-स्तुतिश्लाघनाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
२१. ॐ ह्रीं भक्तिपीयूषपुष्टभव्यगणाभिमतफलप्रदपारिजाताय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
२२. ॐ ह्रीं कोपप्रसादविरहितपरमोपेक्षि-भुवनतिलकप्राभवसहिताय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
२३. ॐ ह्रीं सकलतत्त्वग्रन्थस्मरणविषयिबुद्धिप्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
२४. ॐ ह्रीं अनंतसुखज्ञानदृग्वीर्यरूपाय भाक्तिकजनपञ्चकल्याण-प्रदायकाय श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
२५. ॐ ह्रीं स्वात्माधीनसुखेच्छुकजनकल्याणकल्पद्रुमाय श्रीतीर्थंकर-परमदेवाय नम:।
२६. ॐ ह्रीं शाब्दिक-तार्किक-काव्यकृत-भव्यगणोत्कृष्टश्रीवादिराज-सूरिकृतएकीभावस्तोत्रस्वामिने श्रीतीर्थंकरपरमदेवाय नम:।
यह व्रत सर्व प्रकार के रोगों को शांत करके शरीर को आरोग्य प्रदान करने वाला है और परम्परा से आत्मा को स्वस्थ- शुद्ध करके अतीन्द्रिय मोक्षसुख प्राप्त कराने वाला है। साथ ही संसार के भी उत्तम-उत्तम सुखों को देने वाला है।