तीर्थंकर भगवन्तों को जब केवलज्ञान प्रगट हो जाता है तब अर्हंत अवस्था में उन्हें नव केवललब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। दर्शनमोहनीय के अभाव से क्षायिकसम्यक्त्वलब्धि, चारित्रमोहनीय के अभाव से क्षायिकचारित्रलब्धि, ज्ञानावरणकर्म के नाश से केवलज्ञानलब्धि, दर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शनलब्धि, अंतरायकर्म के पाँच भेदों में से क्रमश: दानान्तराय के विनाश से अनंतदानलब्धि, लाभान्तराय कर्म के क्षय से अनंतलाभलब्धि, भोगान्तराय के अभाव से अनंतभोगलब्धि, उपभोगान्तराय के नाश से अनंतउपभोगलब्धि और वीर्यान्तरायकर्म के क्षय से अनंतवीर्यलब्धि ये नव केवललब्धि स्वरूप अनंतलब्धियाँ प्रगट हो जाती हैं। इन्हीं नवकेवललब्धियों को प्राप्त करने के लिए इस व्रत को करना है। तीर्थंकर भगवन्तों की केवलज्ञान तिथि या किसी भी तिथि को अथवा अष्टमी, चतुर्दशी आदि को इस व्रत को करना है।
उत्तम विधि में व्रत के पूर्व दिन एक बार शुद्ध भोजन करके व्रत के दिन उपवास करें पुन: पारणा के दिन भी एक भुक्ति करें। व्रत के दिन चौबीस तीर्थंकर की पूजा या अर्हंत परमेष्ठी की पूजा करें। पुन: समुच्चय जाप्य करके व्रत की एक-एक जाप्य करें। नवव्रत पूर्ण होने पर तीर्थंकर भगवन्तों की कल्याणकभूमि की वंदना करें। चौबीस तीर्थंकर विधान करें तथा शक्ति के अनुसार नव-नव उपकरण मंदिर में भेंट करें।
मध्यम विधि में व्रत के दिन एक बार अल्पाहार और जघन्यव्रत में एक बार शुद्ध भोजन-एकाशन करके व्रत करना चाहिए।
समुच्चय मंत्र-
ॐ ह्रीं अर्हं नवकेवललब्धिसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:। प्रत्येक व्रत की पृथक्-पृथक् जाप्य— १. ॐ ह्रीं अर्हं क्षायिकसम्यक्त्वलब्धिसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:। २. ॐ ह्रीं अर्हं क्षायिकचारित्रलब्धिसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:। ३. ॐ ह्रीं अर्हं केवलज्ञानलब्धिसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:। ४. ॐ ह्रीं अर्हं केवलदर्शनलब्धिसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:। ५. ॐ ह्रीं अर्हं अनंतदानलब्धिसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:। ६. ॐ ह्रीं अर्हं अनंतलाभलब्धिसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:। ७. ॐ ह्रीं अर्हं अनंतभोगलब्धिसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:। ८. ॐ ह्रीं अर्हं अनंतोपभोगलब्धिसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:। ९. ॐ ह्रीं अर्हं अनंतवीर्यलब्धिसमन्वितार्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
इस व्रत का फल अर्हंत अवस्था को प्राप्त करना है। परंपरा फल संसार के अनेक प्रकार के अभ्युदय चक्रवर्ती आदि के वैभव तथा स्वर्ग के उत्तम सुखों को प्राप्त करना है। इस व्रत के प्रभाव से दरिद्रता, रोग, शोक आदि दु:ख दूर होंगे और परभव में नियम से स्वर्ग आदि के वैभव प्राप्त होंगे पुन: परंपरा से ये नव केवललब्धियाँ जहाँ प्रगट होती हैं, ऐसे परमात्मपद की प्राप्ति होगी।