चन्दनामती- पूज्य माताजी! वंदामि, मैं नंदीश्वर द्वीप के बारे में आपसे कुछ प्रश्न करना चाहती हूँ।
श्री ज्ञानमती माताजी- पूछो, मैं आगम के आधार से नंदीश्वरद्वीप के बारे में बताऊँगी।
चन्दनामती- प्रत्येक अष्टान्हिका पर्व में लोग नंदीश्वर द्वीप की पूजा करते देखे जाते हैं सो अष्टान्हिका पर्व का नंदीश्वर द्वीप के साथ भला क्या संबंध है?
श्री ज्ञानमती माताजी- नंदीश्वर द्वीप मध्यलोक के असंख्यात द्वीपों में आठवां द्वीप है, वहाँ मनुष्य तो जा नहीं सकते अत: चारों निकाय के देवगण वहाँ जाते और पूजा आदि करते हैं। अष्टान्हिका पर्व प्रारंभ होते ही वे नियमपूर्वक आठों दिन वहाँ पूजा करने जाते हैं। अष्टान्हिका पर्व का असली नाम तो ‘नंदीश्वर पर्व’ ही है क्योंकि इन दिनों में नंदीश्वर द्वीप के चैत्यालयों की ही विशेषरूप में पूजन होती है। आठ दिन का पर्व होने से इसे अष्टान्हिका पर्व भी कहते हैं।
चन्दनामती- यह नंदीश्वर पर्व कब से प्रारंभ हुआ है?
श्री ज्ञानमती माताजी-यह अनादिनिधन पर्व है। इसे न तो किसी ने शुरू किया है और न ही इसका कभी अंत होगा।
चन्दनामती- अभी आपने कहा कि वहाँ मनुष्य नहीं जा सकते हैं, ऐसा क्यों?
श्री ज्ञानमती माताजी- क्योंकि मनुष्य की गमन सीमा ढाई द्वीप तक ही है। उससे आगे नहीं, आप लोग अठाई पूजा में पढ़ते हैं-
हमें शक्ति सो नाहिं इहां करि थापना।
पूजें जिनगृह प्रतिमा है हित अपना।।
चन्दनामती- पूज्य माताजी! क्या स्वर्गों में भी यहाँ के समान कार्तिक, फाल्गुन आदि महीने तथा दिन और रात होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- नहीं, वहाँ के सूर्य-चन्द्रमा अपने-अपने स्थान पर स्थिर हैं अत: वहाँ महीने एवं रात-दिन आदि का विभाग नहीं है।
चन्दनामती – तब उनका आठ दिन अष्टान्हिका पर्व में नंदीश्वरद्वीप में पूजन का कैसे क्रम चलता है?
श्री ज्ञानमती माताजी – रात-दिन का विभाग तो नंदीश्वरद्वीप में भी नहीं है परन्तु तिथियाँ भी तो अनादिनिधन हैं अत: यहाँ की उन तिथियों की व्यवस्था के अनुसार ही अष्टान्हिका का पर्व शुरू होते ही चारों निकाय के देव नंदीश्वर द्वीप में पहुँच जाते हैं और रात-दिन के भेद से रहित वहाँ अखण्ड पूजा करते हैं। जैसा कि मैंने इन्द्रध्वज विधान में नंदीश्वर पूजा की जयमाला में तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के आधार से लिखा भी है-
रों निकाय के देव मिले,
आठों दिन पूजा करते हैं।
रात्री दिन भेद रहित वहं पे
सु अखंडित अर्चा करते हैं।।
चन्दनामती- देवों का वहाँ पर पूजन का क्रम कैसा चलता है?
श्री ज्ञानमती माताजी- पूर्वाण्ह में दो प्रहर तक कल्पवासी देव पूर्व दिशा में, भवनवासी देव दक्षिण में, व्यन्तरवासी देव पश्चिम दिशा में और ज्योतिषी देव उत्तर दिशा में पूजा करते हैं। पुन: अपराण्ह में सबकी दिशाएं बदल जाती हैं तब दो प्रहर तक कल्पवासी देव दक्षिण में, भवनवासी पश्चिम में, व्यन्तरवासी उत्तर में और ज्योतिषी देव पूर्व दिशा में पहुँचकर पूजा करते हैं। अनंतर पूर्वरात्रि में दो प्रहर तक कल्पवासी देव पश्चिम में, भवनवासी देव उत्तर में, व्यंतर देव पूर्व में और ज्योतिषी देव दक्षिण में पूजा करते हैं। तत्पश्चात् पिछली रात्रि में दो प्रहर तक कल्पवासी उत्तर में, भवनवासी देव पूर्व में, व्यंतर देव दक्षिण में और ज्योतिषी देव पश्चिम में पूजा करते हैं। इस प्रकार ये चारों निकाय के देव अष्टमी से पूर्णिमा तक पूर्वाण्ह, अपराण्ह, पूर्वरात्रि और पश्चिम रात्रि में दो-दो प्रहर (छह-छह घण्टे तक) प्रदक्षिणा क्रम से पूजा करते हैं। यह रात-दिन प्रहर तिथि आदि का हिसाब तो यहाँ के अनुसार बतलाया है। वहाँ तो मात्र २-२ प्रहर के क्रमानुसार प्रदक्षिणा करते हुए वे देव २४ घण्टे में चारों दिशा के जिनबिम्बों की पूजा कर लेते हैं।
चन्दनामती- उन देवों द्वारा लाई गई पूजन सामग्री भी विलक्षण ही होती होगी?
श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ उनकी तो सारी सामग्री ही कल्पवृक्षों द्वारा लाई गई दिव्य होती है। जैसा कि तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में बताया है कि वहाँ जाने वाले सभी इन्द्र-देवगण अलग-अलग तरह के फलों आदि के गुच्छे लेकर जाते हैं। उनके अपने-अपने वाहन भी रहते हैं जिन पर सवार होकर वे नंदीश्वर द्वीप में जाते हैं। इन्द्रध्वज विधान की एक जयमाला में मैंने इस प्रकरण को भी लिया है-
सौधर्म इन्द्र ऐरावत इभ, चढ़कर श्रीफल कर लाते हैं।
ईशान इन्द्र हाथी पर चढ़, गुच्छे सुपारि के लाते हैं।।
सानत्कुमार सुरपति मृगपति, पर चढ़ आमों के गुच्छे ले।
माहेन्द्र श्रेष्ठ घोड़े पर चढ़, केलों को अच्छे अच्छे लें।।
यह तो दिव्य फलों का वर्णन है जिन्हें ले जाकर वे भगवान के समक्ष चढ़ाते हैं इसके अतिरिक्त अभिषेक एवं अष्टद्रव्य की पूजन सामग्री भी लाते हैं जिसके द्वारा नंदीश्वर द्वीप में महाभिषेकपूर्वक महापूजा करते हैं।
चन्दनामती- नंदीश्वर द्वीप में ५२ चैत्यालय किस क्रम से बने हुए हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- सबसे पहले तो नंदीश्वर द्वीप का ही विस्तार जानना आवश्यक है जो कि गोलाकार से एक सौ त्रेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है। इस द्वीप से पूर्व दिशा में ठीक बीचों बीच ‘अंजनगिरि’ नाम का एक पर्वत है। यह चौरासी हजार योजन विस्तृत और इतना ही ऊँचा गोल है तथा इन्द्रनील मणि से निर्मित है। आज भी नंदीश्वर द्वीप की रचनाएँ तो कई जगह बनी हुई हैं। उनमें इन्हें लोग काले रंग का दर्शाते हैं। नीले रंग का बनाना चाहिए। इस अंजनगिरि के चारों ओर चार दिशाओं में चार द्रह हैं, इन्हें बावड़ी भी कहते हैं। ये बावड़ियाँ एक लाख योजन विस्तृत चौकोन हैं, खाई एक हजार योजन है। जैसा कि पूजा में कहा भी है-
एक इक चार दिश चार शुभ बावड़ी,
एक इक लाख योजन अमल जल भरी।
इन वापिकाओं में स्वच्छ जल भरा हुआ है तथा जलचर जीव भी इनमें नहीं रहते हैं। बावड़ियों के अंदर एक हजान योजन विस्तार वाले बड़े-बड़े कमल खिले हुए हैं।
चन्दनामती- इन बावड़ियों के क्या नाम हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी-पूर्व दिशा की बावड़ी का नाम नंदा है, दक्षिण दिशा में नन्दवती पश्चिम में नन्दोत्तरा और उत्तर में नन्दिघोषा नाम की बावड़ियाँ हैं। इन वापियों के चारों तरफ चार वन-उद्यान हैं जो कि एक लाख योजन लम्बे और पचास हजार योजन चौड़े हैं। इनमें पूर्व दिशा के वन का नाम ‘अशोकवन’ है, दक्षिण दिशा में सप्तच्छद (सहतूत) वन है, पश्चिम में चंपक (चम्पा) वन और उत्तर में आम्रवन हैं।
चन्दनामती- वर्तमान में जहाँ-जहाँ भी नन्दीश्वर द्वीप की रचनाएँ बनी हैं वहाँ कहीं भी ये वन तो बने नहीं हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी-हाँ, वे रचनाएँ तो मात्र ५२ चैत्यालयों को दर्शाने हेतु ही लोग सफेद बना लेते हैं किन्तु आगम में तो बड़ा सुन्दर और रोचक वर्णन आता है। जैसे कि वनों में ही प्रत्येक वन के नाम सहित चैत्यवृक्ष हैं जिनमें जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाएं विराजामन हैंं यह तो एक बावड़ी संबंधी ४ वन मैंने बताए, इसी प्रकार पूर्व दिशा की चारों बावड़ियों से संबंधित ४-४ वन हैं अत: एक दिशा में १६ वन और उनमें सोलह ही चैत्यवृक्ष समझना चाहिए। चार वापिकाओं के मध्य भाग में १-१ ‘दधिमुख’ पर्वत हैं जो कि दही के समान सपेद रंग वाले हैं। ये पर्वत दश हजार योजन ऊँचे तथा इतने ही योजन विस्तृत गोल हैं। वापियों के दोनों कोणों पर ‘रतिकर’ नाम के पर्वत हैं जो स्वर्णमय हैं। ये पर्वत भी एक हजार योजन विस्तृत और ऊँचे हैं। इस प्रकार पूर्व दिशा संबंधी एक अंजनगिरि, चार दधिमुख और आठ रतिकर ऐसे १३ पर्वत हैं। इन सभी पर्वतों के शिखर पर उत्तम रत्नमय एक-एक जिनेन्द्र मंदिर बने हुए हैं। इसी तरह दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में भी एक समान रचना है अत: कुल मिलाकर नन्दीश्वर द्वीप में ५२ अकृत्रिम जिनालय हैं। वन के चैत्यवृक्षों में स्थित प्रतिमाओं की इसमें गणना नहीं की गई है। इनमें प्रत्येक जिनमंदिर १०० योजन लम्बे ५० योजन चौड़े और ७५ योजन ऊँचे हैं। प्रत्येक मंदिर में १०८-१०८ गर्भगृह हैं और प्रत्येक गर्भ गृह में ५०० धनुष ऊँची पद्मासन जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। इन मंदिरों में नाना प्रकार के मंगल घट, धूप घट, स्वर्णमालाएं, मणिमालाएं अष्ट मंगलद्रव्य आदि शोभायमान हैं। नन्दीश्वर द्वीप का यह संक्षिप्त वर्णन मैंने बतलाया है इसका विशेष वर्णन तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में देखना चाहिए।
चन्दनामती- पूज्य माताजी! आपसे यह करणानुयोग संबंधी चर्चा करके काफी ज्ञान लाभ प्राप्त हुआ। आपके श्रीचरणों में वंदामि करके मैं अपनी लेखनी को यहीं विराम देती हूँ।