अिंरजय-हे गुरुदेव! पहले भाग में हमने पढ़ा था कि सुभौम चक्रवर्ती मरकर सातवें नरक गया है, सो यह सातवाँ नरक कहाँ है ? और इसका क्या नाम है ? लोग कहते हैं कि नरक में दु:ख ही दु:ख हैं, सो क्या यह सही बात है ?
मुनिराज- हाँ अिंरजय! मैं तुम्हें सब स्पष्टतया बतलाता हूँ। यह पुरुषाकार लोक चौदह राजू ऊँचा है। नीचे तल भाग में पूर्व-पश्चिम से सात राजू चौड़ा है, ऊपर घटते-घटते बीच में एक राजू चौड़ा रह गया है। पुन: ऊपर बढ़ते हुए साढ़े तीन राजू की ऊँचाई पर पाँच राजू चौड़ा है। आगे पुन: घटते-घटते लोक के अंत में एक राजू चौड़ा रह जाता है। यह उत्तर दक्षिण में सर्वत्र सात राजू मोटा है। बीच में एक राजू चौड़ी और मोटी तथा चौदह राजू लम्बी त्रसनाली है। इस त्रसनाली के बाहर केवल स्थावर जीव ही हैं, त्रस नहीं।
अिंरजय-राजू क्या है ?
मुनिराज-असंख्यातों योजनों का एक राजू होता है। अधोलोक सात राजू प्रमाण ऊँचा है। नीचे एक राजू ऊँचाई तक निगोदिया जीवों का स्थान है। छह राजू में सात नरक हैं। ये नरक भूमियाँ नीचे-नीचे हैं।
इनके नाम- (१) रत्नप्रभा(२) शर्वराप्रभा, (३) बालुकाप्रभा (४) पंकप्रभा (५) धूमप्रभा (६) तम:प्रभा और (७) महातम:प्रभा।
इनके दूसरे नाम-(१) घम्मा (२) वंशा (३) मेघा (४) अंजना (५) अरिष्टा (६) मधवी और (७) माधवी हैं।
इन पृथ्वियों के बीच-बीच में बहुत सा अन्तराल है, सातों नरकों में ८४ लाख बिल हैं। ये चूहे आदि के बिल के समान औंधे मुख वाले हैं। इनमें जन्म लेते ही प्राणी धड़ाम से नीचे गिरता है।
अिंरजय—भगवन्! जन्म लेते ही गिरने से उसे बहुत चोट लगती होगी?
मुनिराज—अरे बेटा! वहाँ के दु:खों का वर्णन ही नहीं किया जा सकता है। जन्म लेकर वहाँ की भूमि के स्पर्श से ही इतना दु:ख होता है जैसे हजारों बिच्छुओं ने एक साथ डंक मारा हो। फिर तत्काल ही नारकी उसे करोंत से चीरने, भाले से मारने, अग्नि में पकाने आदि के दु:ख देने लगते हैं।
अिंरजय—तब तो वे बहुत जल्दी मर जाते होेंगे ?
मुनिराज—नहीं-नहीं! वहाँ पर बहुत लम्बी आयु होती है। जब तक वह पूरी न हो जावे, तब तक वे मर नहीं सकते हैं। उनके शरीर के तिल-तिल टुकड़े हो जाने के बाद भी पारे के समान मिलकर पुन: शरीर बन जाते हैं। उनकी वहाँ कोई भी रक्षा करने वाला नहीं है। वे हाय-हाय करते हुए अपने किये हुए पापों का फल भोगते रहते हैं। देखो बालकों! इन नरकों के दु:खों से डरकर कभी भी पापकर्म नहीं करना चाहिए।