अिंरजय- गुरुदेव! दूसरे भाग में हमने पढ़ा है कि पुरुरवा भील भी मांसादि का त्याग करने से पहले स्वर्ग में देव हो गया है, सो पहले स्वर्ग का नाम क्या है?
मुनिराज— हां सुनो! मध्यलोक के ऊपर सात राजू में स्वर्ग आदि हैं। पहले सोलह स्वर्गों के नाम सुनो।
सौधर्म-ईशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लांतव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत और आरण-अच्युत। ये दो-दो स्वर्ग एक साथ ऊपर-ऊपर हैं। इन स्वर्गों के देवों में इन्द्र, सामानिक आदि भेद पाये जाते हैं।
अर्थात् कोई देव राजा के समान इन्द्र हैं, कोई देव उनके परिवार के हैं, कोई देव उनके वाहन-हाथी बनते हैं, इस प्रकार का भेदभाव है अत: इन सोलह स्वर्गों को कल्प कहते हैं। इन स्वर्गों के ऊपर नव ग्रैवेयक हैं, उनके नाम-सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुभद्र, विशाल, सुमन, सौमन और प्रीतिकर। इनके ऊपर नव अनुदिश हैं, उनके नाम-अर्चि, अर्चिमाली, वैर, वैरोचन, सोम, सोमरूप, अंक, स्फटिक और आदित्य। इनके ऊपर पाँच अनुत्तर हैं, उनके नाम-विजय, वैजयन्त, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि।
नव अनुदिश और पाँच अनुत्तरों में सम्यग्दृष्टि महामुनि जन्म लेते हैं। चार अनुत्तर के देव तो मनुष्य के दो भव लेकर मोक्ष चले जाते हैं और सर्वार्थसिद्धि के देव नियम से एक भवावतारी ही होते हैं। देशव्रती तिर्यंच, श्रावक, वस्त्रधारी आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक आदि सोलह स्वर्ग के ऊपर नहीं जा सकते हैं। मुनि ही नवग्रैवेयक में जन्म लेते हैं।
अिंरजय—क्या स्वर्ग में व्यापार आदि करना पड़ता है ?
मुनिराज—नहीं, वहाँ तो तमाम कल्पवृक्ष हैं, उनसे सब उत्तम-उत्तम सम्पत्ति प्राप्त होती है।
देवों के वैभव का तो ठिकाना ही नहीं है। वहां तो तमाम सम्पत्ति अपने आप मिल जाती है, मांगने की जरूरत ही नहीं है। वहां उपपाद शय्या पर ४८ मिनट के भीतर ही भीतर में सोलह वर्ष के युवक के समान सुन्दर शरीर बन जाता है। वहां के शरीर में मल, मूत्र, हड्डी, चर्बी, खून, पसीना आदि नहीं है तथा रोग भी नहीें होते हैं।
अिंरजय—वहाँ पर कुछ दु:ख भी हैं या नहीं ?
मुनिराज—हाँ! वहाँ के सभी सुखों को भोगकर आयु पूरी होने के बाद नियम से मरना पड़ता है और मध्यलोक में माता के गर्भ में आना पड़ता है, यह सबसे बड़ा दु:ख है तथा मिथ्यादृष्टि देव अपने से बड़े देवों के वैभव को देखकर प्राय: ईष्र्या किया करते हैं। देवों में यह मानसिक दु:ख है।
अिंरजय—फिर ऐसी देवगति किस काम की, जहाँ से मरकर मनुष्य होना पड़े?
मुनिराज—इतना ही नहीं, बहुत से मिथ्यादृष्टि देव मरने के छह महीने पहले से ही बहुत दु:खी होते हैं। पुन: वे मरकर एकेन्द्रिय तक हो जाते हैं। हां! वहां के सम्यग्दृष्टि देव नियम से मनुष्य ही होते हैं और वे जल्दी से कर्म नाश कर मुक्त हो जाते हैं।
अिंरजय—पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में भगवान् की दीक्षा के समय मुझे एक बार लौकांतिक देव बनाया था। वे लौकांतिक देव कहां रहते हैं ?
मुनिराज—वे पांचवे स्वर्ग के ऊपर के भाग में रहते हैं। नियम से एक (मनुष्य) भव पाकर मोक्ष चले जाते हैं। लोक-संसार का अंत करने वाले होने से इनका यह लौकांतिक नाम सार्थक है। ये देव ब्रह्मचारी हैं, इसलिये देवर्षि मानकर अन्य देव भी इनकी पूजा करते हैं।
अिंरजय—तो क्या देवों के भी स्त्रियाँ होती हैं ?
मुनिराज—हां! एक-एक देव के हजारों देवांगनायें होती हैं। सोलह स्वर्ग के ऊपर देवांगनायें नहीं हैं, इसलिये ऊपर के देव भी ब्रह्मचारी रहते हैं, वे सब अहमिंद्र हैं, वहाँ राजा-प्रजा के समान भेद नहीं है, वे सब बहुत सुखी हैं।
अिंरजय—सिद्धशिला कहाँ है ?
मुनिराज—सर्वार्थसिद्धि के ऊपर सिद्धशिला है। वह सफेद है, छत्राकार है। उसके भी कुछ ऊपर लोक के बिल्कुल अंत में सभी सिद्ध भगवान विराजमान हैं। वे अनंतानंत काल तक अपने अनंत सुख का अनुभव करते रहेंगे। उन सिद्धों का नाम लेते ही अनंतो पापों का पुंज नष्ट हो जाता है, ऐसे सिद्धों को हमारा बारम्बार नमस्कार होवे।