जय जय श्रीबाहुबली भगवन्, जय जय त्रिभुवन के शिखामणी।
जय जय महिमाशाली अनुपम, जय जय त्रिभुवन के विभामणी।।
जय जय अनंत गुणमणिभूषण, जय भव्य कमल बोधन भास्कर।
जय जय अनंत दग ज्ञानरूप, जय जय अनंत सुख रत्नाकर।।१।।
तुम नेत्र युद्ध जल मल्ल युद्ध, में चक्रवर्ति को जीत लिया।
चक्री ने छोड़ा चक्ररत्न, उसने भी तुम पद शरण लिया।।
फिर हो विरक्त भरताधिप की, अनुमति ले जिनदीक्षा लेकर।
प्रभु एक वर्ष का योग लिया, ध्यानस्थ खड़े निश्चल होकर।।२।।
नि:शल्य ध्यान का ही प्रभाव, सर्वावधिज्ञान प्रकाश मिला।
मनपर्यय विपुलमती ऋद्धी से, अतिशय ज्ञान प्रभात खिला।।
तप बल से अणिमा महिमादिक, विक्रिया ऋद्धियाँ प्रकट हुर्इं।
आमौषधि सर्वौषधि आदिक, औषधि ऋद्धी भी प्रकट हुर्इं।।३।।
क्षीरस्रावी घृत मधुर अमृत, स्रावी रस ऋद्धी प्रगटी थीं।
अक्षीण महानस आलय क्या, संपूर्ण ऋद्धियाँ प्रकटी थीं।।
वे उग्र-उग्र तप करते थे, फिर भी दीप्ती से दीप्यमान।
वे तप्त घोर औ महाघोर तप, तपते फिर भी शक्तिमान।।४।।
इन ऋद्धी से नहिं लाभ उन्हें, फिर भी इंद्रादिक नमते थे।
खग आकर प्रभु की ऋद्धी से, निज रोग निवारण करते थे।।
सर्पों ने वामी बना लिया, प्रभु के तन पर चढ़ते रहते।
बिच्छू आदिक बहु जंतु वहाँ, प्रभु के तन पर क्रीड़ा करते।।५।।
बासंती बेल चढ़ी तन पर, पुष्पों की वर्षा करती थीं।
मरकत मणिसम सुंदर तन पर, बेलें अति मनहर दिखती थीं।।
सब जात विरोधी जीव वहाँ, आपस में प्रेम किया करते।
हाथी नलिनीदल में जल ला, प्रभु पद में चढ़ा दिया करते।।६।।
प्रभु एक वर्ष उपवास पूर्ण कर, शुक्लध्यान के सम्मुख थे।
उस ही क्षण भरताधिप ने आ, पूजा की अतिशय भक्ती से।।
होता विकल्प यह कभी-कभी, मुझसे चक्री को क्लेश हुआ।
इस हेतु अपेक्षा उनकी थी, आते ही केवलज्ञान हुआ।।७।।
तत्क्षण सुरगण ने गंधकुटी, रच करके अतिशय पूजा की।
भरतेश्वर भक्ती में विभोर, बहुविध रत्नों से पूजा की।।
प्रभु ने दिव्यध्वनि से जग को, उपदेशा पुण्य विहार किया।
फिर शेष कर्म का नाश किया, औ मुक्ती का साम्राज्य लिया।।८।।
धन्य धन्य बाहूबली, योगचक्रेश्वर मान्य।
पूर्ण ‘ज्ञानमति’ हेतु मैं, नमूँ नमूँ जग मान्य।।९।।
श्रवणबेलगुल तीर्थ पर, सत्तावन फूट तुंग।
श्री बाहुबलि मूर्ति को, नमत लहें भवि पुण्य।।१०।।