सुधा— भादों की अनंत चतुर्दशी को मेरी मां ने मुझे जबरदस्ती उपवास कराया और जब मैं भूख-प्यास की बाधा से रात्रि में बहुत घबराने लगी, तब मां बोली कि बेटी! तुम यह भावना करो कि शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। आत्मा को भूख-प्यास नहीं लगती है। ऐसी भावना करने से ही तुम्हारी आत्मा का कल्याण होगा, तुम स्त्रीपर्याय से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर सकती हो, अन्यथा शरीर को सुखी बनाते रहने से तो अनंत संसार में ही रुलना पड़ेगा, तो मेरी समझ में तो आता नहीं है कि शरीर से आत्मा भिन्न कैसे है?
अध्यापिका— सुधा, तुम्हारी माँ ने बहुत ठीक कहा है। देखो! जीव का लक्षण है चेतना।
उसके दो भेद हैं— ज्ञान और दर्शन। इसलिये जानना, देखना यह आत्मा का स्वभाव है। इस आत्मा में अनंत गुण भरे हुए हैं
जैसे—अनंत-सुख, अनंतवीर्य आदि। आत्मा के जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग, शोक कुछ भी नहीं है। वह स्त्री, पुरुष, नपुंसक भी नहीं है। नारकी, तिर्यंच, देव और मनुष्य भी नहीं है, वह तो परमानंद स्वभावी है। इस देहरूपी देवालय में ऐसा भगवान आत्मा विराजमान है। किन्तु यह शरीर अत्यन्त अपवित्र, सात धातु और उपधातु से बना हुआ है, नष्ट होने वाला है, अचेतन है, ज्ञान-दर्शन से शून्य है। जन्म-मरण शरीर को होते हैं तथा स्त्री पुरुषादि अवस्थायें, मनुष्य आदि शरीर ये सब पुद्गल की पर्यायें हैं। इस प्रकार से जब यह जीव दृढ़ श्रद्धान करके बार-बार अपने स्वरूप का विचार करता है, तब शरीर से ममता घटती जाती है और वह चारित्र धारण कर कठिन से कठिन तपश्चरण करके कर्मों का नाश कर पूर्ण सुखी हो जाता है।
सुधा— बहन जी! जब देह देवालय में अपनी आत्मा ही भगवान रूप है फिर तपश्चरण करने की क्या जरूरत है ?
अध्यापिका— देखो! जैसे—दूध में घी है ऐसा जिसे विश्वास है, वह महिला उसमें जामन डालकर दही बनाती है फिर दही का बिलोना करके मक्खन निकालकर तपाकर उसका घी बना लेती है। ऐसे ही प्रत्येक जीव के शरीर में भगवान आत्मा शक्तिरूप से मौजूद है। सम्यक् चारित्र और तप के द्वारा उस आत्मा में लगे हुए कर्मोें को हटाकर आत्मा के अनंत गुणों को प्रकट कर परमात्मा बनाया जाता है। कुछ लोग संसार अवस्था में ही अपनी आत्मा को परमात्मा मानकर चारित्र नहीं धारण करते हैं वे वास्तव में मिथ्यादृष्टि हैं। संसार अवस्था में तो आत्मा शक्तिरूप से परमात्मा है, इस बात को समझने के लिये तुम नयों को अवश्य समझो।
सुधा— ये नय क्या हैं ?
अध्यापिका— अनंत गुण वाली वस्तु के एक-एक अंश को बतलाने वाले कथन को नय कहते हैं।
इसके दो भेद हैं—निश्चय और व्यवहार। निश्चय नय जीव के स्वभाव को बतलाता है। वह कहता है कि जीव शुद्ध है, अविनाशी है इत्यादि। जैसा कि ऊपर मैंने बताया है और व्यवहार—नय कहता है कि जीव अशुद्ध है, जन्म-मरण करने वाला है, संसारी है इत्यादि। जैसा कि हम लोगों को अनुभव में आ रहा है। निश्चय नय से वस्तु के सच्चे स्वरूप को समझो और व्यवहार नय से कर्म सहित संसारी अवस्था को भी जानकर कर्मों से छूटने का प्रयत्न करो। निश्चय नय जब व्यवहार की अपेक्षा करता है, तब वह सच्चा है और व्यवहार नय जब निश्चय की अपेक्षा करता है, तब वह सच्चा है, अन्यथा एक नय के हठ को पकड़ने से जीव मिथ्यादृष्टि बन जाते हैं। कहा भी है कि ‘यदि तुम जिनवचन को समझना चाहते हो तो निश्चय और व्यवहार नय में गलती मत करो, ठीक से समझो अन्यथा व्यवहार नय का आश्रय लिये बिना तीर्थ (मोक्षमार्ग और फल) का नाश हो जायेगा और निश्चय नय का आश्रय लिए बिना तत्त्व का नाश हो जायेगा।’
सुधा— अब मेरी समझ में आ गया कि आत्मा के स्वभाव को समझकर अपने से भिन्न माता, पिता, धन, कुटुम्ब, शरीर आदि से धीरे-धीरे ममत्व घटाने का और पुन: हटाने का ही प्रयत्न करना चाहिये। इनको अपने से भिन्न समझने से पुन: इनके वियोग में अपने को दु:ख नहीं होगा।
अध्यापिका— हां! तुम ने बिल्कुल ठीक समझा है। इसके लिए तुम्हें जैन ग्रंथों का खूब स्वाध्याय करना चाहिये।