सम्यग्दर्शन, अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत और सल्लेखना इन गुणों को धारण करने वाले श्रावक के ग्यारह पद या स्थान होते हैं। इन्हें प्रतिमा कहते हैं। इन ग्यारह प्रतिमाओं में से किसी भी प्रतिमा में अपने पद के अनुसार चारित्र होते हुए भी पूर्व-पूर्व की प्रतिमा का चारित्र होना बहुत जरूरी है। श्रावक अपने संयम की उन्नति करता हुआ पहली से दूसरी, दूसरी से तीसरी इस प्रकार से ग्यारहवीं प्रतिमा तक चढ़ता है। इससे ऊपर चढ़कर मुनि हो जाता है। ग्यारह प्रतिमाओं के नाम-(१) दर्शन (२) व्रत (३) सामायिक (४) प्रोषधोपवास (५) सचित्तत्याग (६) रात्रिभोजन त्याग (७) ब्रह्मचर्य (८) आरंभ त्याग (९) परिग्रह त्याग (१०) अनुमति त्याग (११) उद्दिष्ट त्याग।
(१) दर्शन प्रतिमा-जो संसार शरीर भोगों से विरक्त, शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी, पंचपरमेष्ठी के चरण कमलों की शरण ग्रहण करने वाला और सच्चे मार्ग पर चलने वाला है, वह दर्शन प्रतिमाधारी कहलाता है। वह श्रावक पंच उदुम्बर और सप्तव्यसनों का तथा रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्यागी होता है।
(२) व्रत प्रतिमा-जो शल्यरहित होकर निरतिचार पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का पालन करता है, वह व्रत प्रतिमाधारी कहलाता है। इस प्रतिमा में सामायिक व्रत में दो समय सामायिक और विधिवत् देव पूजन करना आवश्यक है।
(३) सामायिक प्रतिमा-प्रतिदिन प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल इन तीनों कालों में कम से कम दो घड़ी तक विधिपूर्वक अतिचाररहित सामायिक करना सामायिक प्रतिमा कहलाती है।
(४) प्रोषधोपवास प्रतिमा-प्रत्येक महीने की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी, ऐसे चारों पर्वों में अपनी शक्ति को न छिपाकर धर्मध्यान में लीन होते हुए प्रोषध को अथवा उपवास को अवश्य करना प्रोषध प्रतिमा का लक्षण है। प्रोषध का अर्थ एक बार भोजन करना होता है। उत्कृष्ट प्रोषध प्रतिमा में सप्तमी और नवमी को एक बार शुद्ध भोजन और अष्टमी को उपवास होता है। जघन्य में अष्टमी को एक बार भोजन होता है। मध्यम में कई भेद हो जाते हैं।
(५) सचित्तत्याग प्रतिमा-कच्चे फल-फूल, बीज, पत्ते आदि नहीं खाना, इन्हें छिन्न-भिन्न करके, लवण आदि मिलाकर या गरम आदि करके प्रासुक बनाकर खाना, पानी भी प्रासुक करके पीना सचित्तत्याग प्रतिमा कहलाती है।
(६) रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा-जो दयालु श्रावक रात्रि में अन्न, खाद्य, लेह्य, पेय इन चारों आहारों का त्याग कर देता है, वह रात्रि भुक्ति त्यागी छठी प्रतिमाधारी श्रावक होता है।
(७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा-मल का बीज, मल का स्थान, दुर्गंधियुक्त ऐसे शरीर का स्वरूप समझकर कामसेवन में पूर्णतया विरक्त होकर स्त्रीमात्र का त्याग कर देना अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचर्य ग्रहण कर लेना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है।
(८) आरंभ त्याग प्रतिमा-हिंसा के कारण नौकरी, खेती, व्यापार आदि गृहकार्यसंबंधी सब तरह की क्रियाओं का त्याग करने वाला श्रावक आरंभ- त्यागी प्रतिमाधारी कहलाता है। इस प्रतिमा में दान, पूजन आदि धर्म कार्य संंबंधी आरंभ कार्य कर सकते हैं। घर में रहकर भी धर्म साधन कर सकते हैं, घर छोड़कर भी कर सकते हैं।
(९) परिग्रह त्याग प्रतिमा-दस प्रकार के बाह्य परिग्रह को पाप का कारण समझकर त्याग कर देना परिग्रह त्याग प्रतिमा कहलाती है। इस प्रतिमा का धारी अपने लिए कुछ आवश्यक वस्त्र या बर्तन रख लेता है। घर का त्याग कर संघ में या धर्मशाला आदि में रहता है। श्रावक के द्वारा निमंत्रण आने पर शुद्ध भोजन करता है।
(१०) अनुमति त्याग प्रतिमा-जो खेती, व्यापार, विवाह आदि गृहकार्य संबंधी किसी भी कार्य में अनुमोदना या सम्मति नहीं देता है वह अनुमति त्यागी कहलाता है। इस प्रतिमा का धारी भी संघ में या जिनमंदिर आदि में रहता है। श्रावक द्वारा बुलाने पर शुद्ध भोजन करके आता है और धर्म-ध्यान में तत्पर रहता है।
(११) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-जो अपने घर को छोड़कर मुनियों के संघ में जाकर गुरु के पास दीक्षा लेकर तपश्चरण करता है और भिक्षावृत्ति से आहार ग्रहण करता है, निमंत्रण से भोजन नहीं करता है, खंड वस्त्र धारण करता है, वह उद्दिष्ट त्यागी प्रतिमाधारी कहलाता है। इस ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के दो भेद हैं-क्षुल्लक और ऐलक। क्षुल्लक एक लंगोटी और खंड वस्त्र (चादर) रखते हैं। सिर और दाढ़ी मूँछ की हजामत वैंची से या उस्तरा से करा लेते हैं अथवा केशलोंच भी कर लेते हैं। पिच्छी आदि उपकरण से स्थान आदि का प्रतिलेखन करते हैं, एक बार बैठकर पाणिपात्र या थाली में भोजन करते हैं। भिक्षावृत्ति से भोजन करते हैं अथवा गुरुओं के आहारार्थ निकल जाने पर उनके पीछे-पीछे आहार के लिए चले जाते हैं। ऐलक एक लंगोटी मात्र रखते हैं, नियम से केशलोंच करते हैं और करपात्र में आहार लेते हैं। इतना ही इन दोनों में अंतर है। विशेष – ऐलक के बाद लंगोटी को भी त्याग करके तिलतुषमात्र परिग्रह को भी नहीं रखने वाले मुनि कहलाते हैं। ये २८ मूलगुणधारी साधु या आचार्य, उपाध्याय भी होते हैं। महिलाओं में ग्यारहवीं प्रतिमाधारी क्षुल्लिका कहलाती है। ग्यारह प्रतिमा के अनन्तर आर्यिकाएं होती हैं। इनकी चर्या मुनियों के समान है, अन्तर इतना है कि ये दो साड़ी मात्र परिग्रह रखती हैं और बैठकर आहार करती हैं, अत: वे उपचार से महाव्रती कहलाती हैं। यद्यपि इनके पास साड़ी रहती है और ऐलक के पास एक लंगोटी मात्र है फिर भी ऐलक लंगोटी छोड़ सकता है किन्तु छोड़ता नहीं है। वह उपचार से भी महाव्रती नहीं हो सकता है। अतएव ऐलक आर्यिका से पद में छोटा माना जाता है और वह आर्यिकाओं को वंदामि करता है। पहली प्रतिमा से छठी प्रतिमाधारीपर्यंत जघन्य श्रावक हैं। सातवीं से नवमीं तक मध्यम तथा दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। पहली प्रतिमा से ही श्रावकों को भोजन में केश, चिंवटी आदि आ जाने से अन्तराय करना चाहिए।