भोगवती नगरी के राजा कामवृष्टि की रानी मिष्टदाना के गर्भ में पापी बालक के आते ही राजा की मृत्यु हो गई और राजा के नौकर सुकृतपुण्य के हाथ में राज्य चला गया। माता ने बालक को पुण्यहीन समझकर उसका नाम ‘अकृतपुण्य’ रख दिया और परायी मजदूरी करके उसका पालन किया। किसी समय बालक सुकृतपुण्य के खेत पर काम करने के लिए चला गया। राजा ने उसे अपने स्वामी का पुत्र समझकर बहुत कुछ दीनारें दीं किन्तु उसके हाथ में आते ही अंगारे हो गर्इं। तब उसको उसकी इच्छानुसार चने दे दिये। माता ने इस घटना से देश छोड़ दिया और सीमवाक गांव के बलभद्र नामक जैन श्रावक के यहाँ भोजन बनाने का काम करने लगी। सेठ के बालकों को खीर खाते देखकर वह अकृतपुण्य भी खीर मांगा करता था। तब एक दिन सेठ के लड़कों ने बालक को थप्पड़ों से मारा। सेठ ने उक्त घटना को जानकर बहन मिष्टदाना को खीर बनाने के लिए सारा सामान दे दिया। माता ने खीर बनाकर बालक से कहा-बेटा! मैं पानी भरने जाती हूँ, इसी बीच में यदि कोई मुनिराज आवें तो उन्हें रोक लेना, मैं मुनिराज को आहार देकर तुझे खीर खिलाऊँगी। भाग्य से सुव्रत मुनिराज उधर आ गये। बालक ने कहा-मुनिराज! आप रुको, मेरी माँ ने खीर बनाई है, आपको आहार देंगी। मुनिराज के न रुकने से बालक ने जाकर उनके पैर पकड़ लिये और बोला-‘देखूँ अब कैसे जाओगे?’ उधर माता ने आकर पड़गाहन करके विधिवत् आहार दिया। बालक आहार देख-देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा था। मुनिराज अक्षीण ऋद्धिधारी थे। उस दिन खीर का भोजन समाप्त ही नहीं हुआ। तब मिष्टदाना ने सपरिवार सेठ जी को, अनंतर सारे गाँव को जिमा दिया, फिर भी खीर ज्यों की त्यों रही। अगले दिन बालक वन में गाय चराने गया था। वहाँ उसने मुनि का उपदेश सुना। रात्रि में व्याघ्र ने उसे खा लिया। आहार देखने के प्रभाव से वह अकृतपुण्य मरकर स्वर्ग में देव हो गया। पुन: उज्जयिनी नगरी के सेठ धनपाल की पत्नी प्रभावती के धन्य कुमार नाम का पुण्यशाली पुत्र हो गया। जन्म के बाद नाल गाड़ने को जमीन खोदते ही धन का घड़ा निकला। धन्यकुमार जहाँ-जहाँ हाथ लगाता, वहाँ धन ही धन हो जाता था। आगे चलकर यह धन्यकुमार नवनिधि का स्वामी हो गया और असीम धन वैभव को भोगकर पुन: दीक्षा लेकर अंत में सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद पाया। यह है आहारदानका प्रभाव! जिससे महापापी अकृतपुण्य धन्य- कुमार हो गया।
किसी समय मुनिदत्त योगिराज महल के पास एक गड्ढे में ध्यान में लीन थे। नौकरानी ने उन्हें हटाना चाहा। जब वे नहीं उठे, तब उसने सारा कचरा इकट्ठा करके मुनि पर डाल दिया। प्रात: राजा ने वहाँ से मुनि को निकालकर विनय से सेवा की। उस समय नौकरानी नागश्री ने भी पश्चात्ताप करके मुनि के कष्ट को दूर करने हेतु उनकी औषधि की और मुनि की भरपूर सेवा की। अंत में मरकर यह वृषभसेना हुई। जिसके स्नान के जल से सभी प्रकार के रोग-विष नष्ट हो जाते थे। आगे चलकर वह राजा उग्रसेन की पट्टरानी हो गई। किसी समय रानी के शील में आशंका होने से राजा ने उसे समुद्र में गिरवा दिया किन्तु रानी के शील के माहात्म्य से देवों ने सिंहासन पर बैठाकर उसकी पूजा की। देखो! नौकरानी ने जो मुनि पर उपसर्ग किये थे उसके फलस्वरूप उसे रानी अवस्था में भी कलंकित होना पड़ा और जो उसने मुनि की सेवा करके औषधिदान दिया था उसके प्रभाव से उसे ऐसे सर्वोषधि ऋद्धि प्राप्त हुई कि जिसके प्रभाव से उसके स्नान के जल से सभी के कुष्ट आदि भयंकर रोग और विष आदि दूर हो जाते थे। इसलिए औषधिदान अवश्य देना चाहिए।
जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित और गणधर आदि मुनियों द्वारा रचित शास्त्र को सच्चे शास्त्र कहते हैं। ऐसे आचार्यप्रणीत निर्दोष आगम-ग्रंथों को मुद्रण कराकर उत्तम पात्रों को देना या विद्यालय खोलना, धार्मिक शिक्षण की व्यवस्था करना आदि शास्त्रदान या ज्ञानदान कहलाता है। इस ज्ञानदान के फल से निश्चित केवलज्ञान प्राप्त होता है। उदाहरण-
कुरुमरी गाँव के एक ग्वाले ने एक बार जंगल में वृक्ष की कोटर में एक जैन ग्रंथ देखा। उसे ले जाकर उसकी खूब पूजा करने लगा। एक दिन मुनिराज को उसने वह ग्रंथ दान में दे दिया। वह ग्वाला मरकर उसी गाँव के चौधरी का पुत्र हो गया। एक दिन उन्हीं मुनि को देखकर जातिस्मरण हो जाने से उन्हीं से दीक्षित होकर मुनि हो गया। कालान्तर में वह जीव राजा कौंडेश हो गया। राज्य सुखों को भोगकर राजा ने मुनि दीक्षा ले ली। ग्वाले के जन्म में शास्त्र दान किया था, उसके प्रभाव से वे मुनिराज थोड़े ही दिनों में द्वादशांग के पारगामी श्रुतकेवली हो गये। वे केवली होकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। इसलिए ज्ञानदान सदा ही देना चाहिए।
उत्तम आदि पात्रों को धर्मानुकूल वसतिका में ठहराना अथवा नयी वसति बनवाकर साधुओं के लिए सुविधा कराना वसतिदान या अभयदान है। इस दान के प्रभाव से प्राणी निर्भय होकर मोक्षमार्ग के विघ्नों को दूर करके निर्भय मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं। उदाहरण-

एक गाँव में एक कुम्हार और नाई ने मिलकर एक धर्मशाला बनवाई। कुम्हार ने एक दिन एक मुनिराज को लाकर धर्मशाला में ठहरा दिया। तब नाई ने दूसरे दिन मुनि को निकालकर एक सन्यासी को लाकर ठहरा दिया। इस निमित्त से दोनों लड़कर मरे और कुम्हार का जीव सूकर हो गया तथा नाई का जीव व्याघ्र हो गया। एक बार जंगल की गुफा में मुनिराज विराजमान थे। पूर्व संस्कार से वह व्याघ्र उन्हें खाने को आया और सूकर ने उन्हें बचाना चाहा। दोनों लड़ते हुए मर गये। सूकर के भाव मुनिरक्षा के थे अत: वह मरकर देवगति को प्राप्त हो गया और व्याघ्र हिंसा के भाव से मरकर नरक में चला गया। देखो! वसतिदान के माहात्म्य से सूकर ने स्वर्ग प्राप्त कर लिया। विशेष-समंतभद्र स्वामी ने ज्ञानदान (शास्त्रदान) की जगह उपकरण दान और अभयदान की जगह आवासदान ऐसा कहा है। अत: इस उपकरण दान में मुनि-आर्यिका आदि को पिच्छी-कमण्डलु देना, आर्यिका-क्षुल्लिका को साड़ी, ऐलक-क्षुल्लक को कोपीन-चादर आदि देना तथा लेखनी, स्याही, कागज आदि देना भी उपकरणदान कहलाता है। अन्य ग्रंथों में दान के दानदत्ति, दयादत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति ऐसे भी चार भेद किये गये हैं। उपर्युक्त विधि से पात्रों को चार प्रकार का दान देना सो दानदत्ति है। दीन, दु:खी, अंधे, लंगड़े, रोगी आदि को करुणापूर्वक भोजन, वस्त्र औषधि आदि दान देना दयादत्ति है। अपने समान श्रावकों को कन्या, भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है। अपने पुत्र को घर का भार सौंपकर आप निश्चिन्त हो धर्माराधन करना यह अन्वयदत्ति है।
(१) दान का क्या लक्षण है?
(२) पात्र के कितने भेद हैं?
(३) नवधा भक्ति के नाम और लक्षण बताओ?
(४) अकृतपुण्य और सुकृतपुण्य कौन-कौन थे?
(५) अक्षीणऋद्धि का क्या फल है?
(६) वृषभसेना ने पूर्व जन्म में क्या-क्या पुण्य किया था जिससे औषधि ऋद्धि हुई?
(७) शास्त्रदान का क्या फल है?
(८) अभयदान का लक्षण बताओ?
(९) उपकरणदान में क्या-क्या दे सकते हैं?
(१०) सूकर और व्याघ्र कौन थे और मरकर कहाँ गये?
(११) दानदत्ति और दयादत्ति में क्या अन्तर है?
