सब कुछ अपकार सहन करके, शत्रु पर पूर्ण क्षमा करना।
यह क्रोध अग्नि को शीतल जल, इससे सब चित्त व्यथा हरना।।
कमठासुर ने भव-भव में भी, उपसर्ग अनेकों बार किया।
पर पाश्र्व प्रभू ने सहन किया, शांति का ही उपचार किया।।१।।
मृदुता का भाव कहा मार्दव, यह मान शत्रु मर्दनकारी।
वह दर्शन ज्ञान चरित तथा, उपचार विनय से सुखकारी।।
मद आठ जाति कुल आदी हैं, क्या उनसे सुखी हुआ कोई।
रावण का मान मिला रज में, यम नृप ने सब विद्या खोई।।२।।
ऋजु भाव कहा आर्जव उत्तम, मन वच औ काय सरल रखना।
इन कुटिल किये माया होती, तिर्यग्गति के बहु दु:ख भरना।।
नृप सगर छद्म से ग्रंथ रचा, मधुपिंगल का अपमान किया।
उसने भी कालासुर होकर, हिंसामय यज्ञ प्रधान किया।।३।।
शुचि का जो भाव शौच वो ही, मन से सब लोभ दूर करना।
निर्लोभ भावना से नित ही, सब जग को स्वप्न सदृश गिनना।।
यद्यपि रजस्वेद सहित मुनिवर, अति शुष्क मलिन तन होते हैं।
पर वे अंत:शुचि गुणधारी, नित कर्म मैल को धोते हैं।।४।।
सत्, सम्यक् और प्रशस्त वचन, कहना है सत्यधर्म सुन्दर।
अस्ति को अस्तिरूप कहना, मिथ्या अपलाप रहित सुखकर।।
वसु नृपति असत् का पक्ष लिया, सिंहासन पृथ्वी में धसका।
मरकर वह सप्तम नरक गया, है झूठ वचन सबको दुखदा।।५।।
जितना भी हो संयम पालो, थोड़ा भी संयम गुणकारी।
श्रावक भी एकदेश पालें, त्रसहिंसा के नित परिहारी।।
रावण के एक नियम से ही, सीतेन्द्र नरक में जा करके।
सम्यक् निधि देकर तृप्त किया, लक्ष्मण से बैर मिटा करके।।६।।
उत्तम तप द्वादश विध माना, बाह्याभ्यंतर के भेदों से।
अनशन ऊनोदर आदि तथा, प्रायश्चित्तादि प्रभेदों से।।
तपबल से ऋद्धि सभी प्रगटें, भविजन के बहुविध त्रास हरें।
ऋषि स्वयं तपोधन होकर भी, नि:स्पृह हो निज सुख चाह करें।।७।।
वह उत्तम त्याग कहा जग में, जो त्यागे विषय कषायों को।
शुभदान चार विध के देवे, उत्तम आदि त्रय पात्रों को।।
थोड़े में भी थोड़ा देकर, बहु धन की इच्छा मत करिये।
इच्छा की पूर्ति नहीं होगी, सागर में कितना जल भरिये।।८।।
नहीं किन्चित् भी मेरा जग में, यह ही आकिंचन भाव कहा।
बस एक अकेला है आत्मा, यह गुण अनंत का पुंज अहा।।
जिनमत के मुनिगण सब परिग्रह तज, दिग् अम्बर को धरते हैं।
बस पिच्छी और कमण्डलु ले, वे भवसागर से तिरते हैं।।९।।
यह ‘ब्रह्म’ स्वरूप कहा आतम, इसमें चर्या ब्रह्मचर्य कहा।
गुरुकुल में वास रहे नित ही, वह भी है ब्रह्मचर्य दुखहा।।
भोगों को जिनने बिन भोगे, उच्छिष्ट समझकर छोड़ दिया।
उन बालयती को मैं नित प्रति, वंदूँ प्रणमूं निज खोल हिया।।१०।।
दोहा-
धर्म कल्पतरु के निकट, मांगूं शिवफल आज।
‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी सहित, पाऊं सुख साम्राज।।११।।