नमूँ नमूँ नत शीश मैं, पंचपरमगुरुदेव।
महामंत्र वंदन करूँ, करो अमंगल छेव।।१।।
चाल-हे दीनबंधु…..
जैवंत महामंत्र मूर्तिमंत धरा में। जैवंत परमब्रह्म शब्दब्रह्म धरा में।।
जैवंत सर्वमंगलों में मंगलीक हो। जैवंत सर्वलोक में तुम सर्वश्रेष्ठ हो।।२।।
त्रैलोक्य में हो एक तुम्हीं शरण हमारे। माँ शारदा भी नित्य ही तुम कीर्ति उचारे।।
विघ्नों का नाश होता है तुम नाम जाप से। सम्पूर्ण उपद्रव नशे हैं तुम प्रताप से।।३।।
छ्यालीस सुगुण को धरें अरिहंत जिनेशा। सब दोष अट्ठारह से रहित त्रिजग महेशा।।
ये घातिया को घात के परमात्मा हुए। सर्वज्ञ वीतराग औ निर्दोष गुरु हुए।।४।।
जो अष्ट कर्म नाश के ही सिद्ध हुए हैं। वे अष्ट गुणों से सदा विशिष्ट हुए हैं।।
लोकाग्र में हैं राजते वे सिद्ध अनन्ता। सर्वार्थसिद्धि देते हैं वे सिद्ध महन्ता।।५।।
छत्तीस गुण को धारते आचार्य हमारे। चउसंघ के नायक हमें भवसिंधु से तारें।।
पच्चीस गुणों युक्त उपाध्याय कहाते। भव्यों को मोक्षमार्ग का उपदेश पढ़ाते।।६।।
जो साधु अट्ठाईस मूलगुण को धारते। वे आत्म साधना से साधु नाम धारते।।
ये पंचपरमदेव भूतकाल में हुए। होते हैं वर्तमान में भी पंचगुरु ये।।७।।
होंगे भविष्य काल में भी सुगुरु अनन्ते। ये तीन लोक तीन काल के हैं अनन्ते।।
इन सब अनन्तानन्त की मैं वंदना करूँ। शिवपथ के विघ्न पर्वतों की खण्डना करूँ।।८।।
इक ओर तराजू पे अखिल गुण को चढ़ाऊँ। इक ओर महामंत्र अक्षरों को धराऊँ।।
इस मंत्र के पलड़े को उठा ना सके कोई। महिमा अनन्त यह धरे ना इस सदृश कोई।।९।।
इस मंत्र के प्रभाव श्वान देव हो गया। इस मंत्र से अनन्त का उद्धार हो गया।।
इस मंत्र की महिमा को कोई गा नहीं सके। इसमें अनन्त शक्ति पार पा नहीं सके।।१०।।
पाँचों पदों से युक्त मंत्र सारभूत है। पैंतीस अक्षरों से मंत्र परमपूत है।।
पैंतीस अक्षरों के जो पैंतीस व्रत करें। उपवास या एकाशना से सौख्य को भरें।।११।।
तिथि सप्तमी के सात पंचमी के पाँच हैं। चौदश के चौदह नवमी के भी नव विख्यात हैं।।
इस विध से महामंत्र की आराधना करें। वे मुक्ति वल्लभापती निज कामना वरें।।१२।।
यह विष को अमृत करे, भव-भव पाप विदूर।
पूर्ण ‘‘ज्ञानमति’’ हेतु मैं, नमूँ भरो सुख पूर।।१३।।