जय जय तीर्थंकर धर्म चक्रधर, जय प्रभु समवसरण स्वामी।
जय जय त्रिभुवन त्रयकाल एक, क्षण में जानो अंतर्यामी।।
जय सब विद्या के ईश आप की, दिव्यध्वनी जो खिरती है।
वह तालु ओष्ठ कंठादिक के, व्यापार रहित ही दिखती है।।१।।
अठरह महाभाषा सातशतक, क्षुद्रक भाषामय दिव्य धुनी।
उस अक्षर अनक्षरात्मक को, संज्ञी जीवों ने आन सुनी।।
तीनों संध्या कालों में वह, त्रय त्रय मुहूर्त स्वयमेव खिरे।
गणधर चक्री अरु इंद्रो के, प्रश्नों वश अन्य समय भि खिरे।।२।।
भव्यों के कर्णों में अमृत, बरसाती शिव सुखदानी है।
चैतन्य सुधारस की झरणी, दु:खहरणी यह जिनवाणी है।।
जन चार कोश तक इसे सुने निज निज के सब कत्र्तव्य गुने।
नित ही अनंत गुण श्रेणि रूप, परिणाम शुद्ध कर कर्म हने।।३।।
छह द्रव्य पाँच हैं अस्तिकाय, अरु तत्त्व सात नवपदार्थ भी।
इनको कहती ये दिव्य ध्वनि, सबजन हितकर शिवमार्ग सभी।।
आनन्त्य अर्थ के ज्ञान हेतु, जो बीज पदों का कथन करे।
अतएव अर्थकर्ता जिनवर उनकी ध्वनि मेघ समान खिरे।।४।।
उन बीजपदों में लीन अर्थ प्रतिपादक बारह अंगों को।
गणधर गुरु गूँथे अतएव ग्रंथकर्ता माने वंदूँ उनको।।
जिन श्रुत ही महातीर्थ उत्तम, उसके कर्ता तीर्थंकर हैं।
ये सार्थक नाम धरें जग में, इससे तिरते भवसागर हैं।।५।।
जय जय प्रभुवाणी कल्याणी, गंगाजल से भी शीतल है।
जय जय शमगर्भित अमृतमय, हिमकण से भी अति शीतल है।।
चंदन अरु मोतीहार चंद्रकिरणों से भी शीतलदायी।
स्याद्वादमयी प्रभु दिव्यध्वनी, मुनिगण को अतिशय सुखदायी।।६।।
वस्तू में धर्म अनंत कहे, उन एक एक धर्मों को जो।
यह सप्तभंगि अद्भुत कथनी, कहती है सात तरह से जो।।
प्रत्येक वस्तु में विधि निषेध, दो धर्म प्रधान गौण मुख से।
वे सात तरह से हों वर्णित, नहिं भेद अधिक अब हो सकते।।७।।
प्रत्येक वस्तु है अस्तिरूप, अरु नास्तिरूप भी है वो ही।
वो ही है उभयरूप समझो, फिर अवक्तव्य भी है वो ही।।
वो अस्तिरूप अरु अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव्य भंग धरे।
फिर अस्तिनास्ति अरु अवक्तव्य, ये सात भंग हैं खरे खरे।।८।।
इस सप्तभंगमय सिंधू में, जो नित अवगाहन करते हैं।
वे मोह राग द्वेषादि रूप, सब कर्म कालिमा हरते हैं।।
वे अनेकांतमय वाक्य सुधा, पीकर आतमरस चखते हैं।
फिर परमानंद परमज्ञानी, होकर शाश्वत सुख भजते हैं।।९।।
मैं निज अस्तित्व लिये हूँ नित, मेरा पर में अस्तित्व नहीं।
मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हूँ, पुद्गल से मुझ नास्तित्व सही।।
इस विध निज को निज के द्वारा, निज में ही पाकर रम जाऊँ।
निश्चयनय से सब भेद मिटा, सब कुछ व्यवहार हटा पाऊँ।।१०।।
भगवन्! कब ऐसी शक्ति मिले, श्रुतदृग से निजको अवलोकू।
फिर स्वसंवेद्य निज आतम को, निज अनुभव द्वारा मैं खोजूँ।।
संकल्प विकल्प सभी तज के, बस निर्विकल्प मैं बन जाऊँ।
फिर केवल ‘ज्ञानमती’ से ही, निजको अवलोकुं सुख पाऊँ।।११।।
सब भाषामय दिव्य ध्वनि, वाङ्मय गंगातीर्थ।
इसमें अवगाहन करूँ, बन जाऊँ जग तीर्थ।।१२।।