इच्छामि भंत्ते! देवसियं आलोचेउं। तत्थ-
दंसण-वय-सामाइय-पोसह-सच्चित्त-रायभत्ते य।
बंभारंभ-परिग्गह-अणुमण-मुद्दिट्ठ देसविरदे य।।१।।
पंचुंबर—सहियाइं सत्त वि वसणाइं जो विवज्जेइ।
सम्मत्त—विसुद्धमई सो दंसण—सावओ भणियो।।२।।
पंच य अणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि।
सिक्खावयाइं चत्तारि जाण विदियम्मि ठाणम्मि।।३।।
जणवयण—धम्म—चेइय—परमेट्ठि—जिणालयाणं णिच्चं पि।
जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु।।४।।
उत्तम—मज्झ—जहण्णं तिविहं पोसह—विहाण—मुद्दिट्ठं।
सगसत्तीए मासम्मि चउसु पव्वेसु कायव्वं।।५।।
जं वज्जिजदि हरिदं तय—पत्त—पवाल—कंद—फल—बीयं।
अप्पासुगं च सलिलं सच्चित्त—णिव्वत्तिमं ठाणं।।६।।
मण—वयण—काय—कदकारिदाणुमोदेिंह मेहुणं णवधा।
दिवसम्मि जो विवज्जदि गुणम्मि सो सावओ छट्ठो।।७।।
पुव्वुत्त—णवविहाणं णि (वि) मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो।
इत्थिकहादि—णिवित्ती सत्तम—गुणबंभचारी सो।।८।।
जंकि पि गिहारंभं बहु थोवं वा सया विवज्जेदि।
आरंभ—णिवित्तमदी सो अट्ठम—सावओ भणिओ।।९।।
मोत्तूण वत्थमित्तं परिग्गहं जो विवज्जदे सेसं।
तत्थ वि मुच्छं ण करदि वियाण सो सावओ णवमो।।१०।।
पुट्ठो वापुट्ठो वा णियगेिंह परेिंह सग्गिह—कज्जे।
अणु—मणणं जो ण कुणदि वियाण सो सावओ दसमो।।११।।
णवकोडीसु विसुद्धं भिक्खा—यरणेण भुंजदे भुंजं।
जायण—रहियं जोग्गं एयारस सावओ सो दु।।१२।।
एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो।
वत्थेयधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ।।१३।।
तव—वय—णियमा—वासय—लोचं कारेदि पिच्छ गिण्हेदि।
अणुवेहा— धम्मझाणं करपत्ते एयठाणम्मि।।१४।।
इत्थ मे जो कोई देवसिओ अइचारो अणाचारो तस्स भंते! पडिक्कमामि पडिक्कमंत्तस्स मे सम्मत्तमरणं समाहिमरणं पंडियमरणं वीरियमरणं दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
इति श्री गौतमगणधरवाण्यां चतुर्थोऽध्याय:।।४।।
हे भगवन्! दिन भर हुये, दोष विशोधन हेत।
करता आलोचन विधी, श्रद्धा भक्ति समेत।।१।।
दर्शन व्रत सामायिक प्रोषध, सचित्तत्याग निशिमुक्ति त्यजी।
ब्रह्मचर्य व आरम्भ परिग्रह अनुमति उद्दिष्टत्यागि ये देशव्रती।।१।।
जो पंच उदुंबुर फल तजता, अरु सप्त व्यसन को तजता है।
सम्यक्त्व शुद्धमति वह श्रावक, दर्शनप्रतिमायुत होता है।।२।।
अणुव्रत सुपाँच गुणव्रत त्रय अरु, शिक्षाव्रत चार कहे जाते।
इन बारहव्रत को व्रतप्रतिमा-धारी श्रावक धारण करते।।३।।
जिनवचन धर्म प्रतिमा जिनगृह परमेष्ठी पाँच इनको नित ही।
जो त्रय कालिक वंदन करते उनके सामायिक प्रतिमा ही।।४।।
उत्तम मध्यम जघन्य त्रयविध भाषित प्रोषध निजशक्ति से।
प्रति महिने चारों पर्वों में करते वे प्रोषध व्रत धरते।।५।।
जो हरित छाल पत्ते कोंपल फल कंद बीज को हैं तजते।
प्रासुक कर हरित व जल लेते वे सचित्त त्याग प्रतिमा धरते।।६।।
मन वचन काय कृत कारित अनुमति नवविध से जो मैथुन को।
दिन में तजते वे भव्य दिवा—मैथुन विरती प्रतिमाधर हों।।७।।
इन नवविध भी मैथुन को जो, तजकर ब्रह्मचर्य पूर्ण धरते।
स्त्री विकथादि रहित होकर, वे सप्तम प्रतिमाधारी बनते।।८।।
जो अल्प बहुत या कुछ भी गृह, आरम्भ सदा हैं तज देते।
आरंभ त्याग अष्टमप्रतिमाधारी वे ही श्रावक होते।।९।।
जो वस्त्रमात्र परिग्रह रखकर अवशेष परिग्रह तजते हैं।
जो है उसमें निंह ममत करें, वे नवमी प्रतिमा धरते हैं।।१०।।
जो स्वपर जनों द्वारा पूछे या निंह पूछे गृह कार्यों में।
अनुमति निंह देते वे अनुमतित्यागी प्रतिमाधारी श्रुत में।।११।।
नवकोटिशुद्ध याचनारहित आहार योग्य परघर में जो।
भिक्षावृत्ति से ग्रहण करें ग्यारहवीं प्रतिमाधारी वो।।१२।।
उद्दिष्टत्यागप्रतिमाधारी उत्तम श्रावक दो विध जानो।
कौपीन दुपट्टाधर क्षुल्लक कौपीनमात्र ऐलक मानो।।१३।।
तप व्रत नियमावश्यक व लोच करते ऐलक पिच्छी धरते।
करपात्राहारी एक बार अनुप्रेक्षा धर्मध्यान करते।।१४।।
इनमें जो कुछ भी दिनभर में अतिचार अनाचार दोष हुये।
(इनमें जो कुछ पन्द्रह दिन में अतिचार अनाचार दोष हुये)
हे भगवन्! उसका प्रतिक्रमण करता हूँ शोधन हेतु लिये।।१।।
प्रतिक्रम करते हुए मेरा प्रभु! सम्यक्त्वमरण व समाधिमरण।
हो पंडितमरण व वीर्यमरण जिससे नहिं होवे पुनर्जनम।।२।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे मम बोधिलाभ होवे।
हो सुगतिगमन व समाधिमरण, मम जिनगुण संपत्ती होवे।।३।।
इति श्री गौतमगणधरवाण्यां चतुर्थोऽध्याय:।।४।।