आदि ब्रह्मा तीर्थंकर ऋषभदेव के दो रानियाँ थीं-यशस्वती और सुनन्दा। बड़ी रानी यशस्वती ने भरत, वृषभसेन आदि सौ पुत्रों को जन्म दिया, पश्चात् एक कन्या को जन्म दिया जिसका नाम ब्राह्मी रक्खा गया। सुनन्दा के कामदेव बाहुबली पुत्र हुए और एक कन्या हुई जिसका नाम सुन्दरी रक्खा गया। ये दोनों कन्यायें अपनी बालक्रीड़ा से सभी के मन को हरण करती रहती थीं। क्रम-क्रम से इन कन्याओं ने किशोरावस्था को प्राप्त कर लिया। एक समय तीर्थंकर ऋषभदेव सिंहासन पर सुख से बैठे हुए थे। ये दोनो पुत्रियाँ मांगलिक वेषभूषा में पिता के निकट पहुँचीं। विनय के साथ उन्हें प्रणाम किया। तब तीर्थंकर ऋषभदेव ने शुभ आशीर्वाद देकर उन दोनों पुत्रियों को उठाकर प्रेम से अपनी गोद में बिठा लिया। उनके मस्तक पर हाथ फेरा, हँसकर बोले— ‘‘आओ बेटी! तुम समझती होंगी कि हम आज देवों के साथ अमरवन को जायेंगे परन्तु अब तुम नहीं जा सकती क्योंकि देवलोग पहले ही चले गये।’’ इत्यादि प्रकार से कुछ क्षण हास्य-विनोद के बाद प्रभु ने कहा— ‘‘पुत्रियों! तुम दोनों शील और विनय आदि गुणों के कारण इस किशोरावस्था में भी वद्धा के समान हो। तुम दोनों का यह शरीर, यह अवस्था और यह अनुपम शील यदि विद्या से विभूषित कर दिया जाए तो तुम दोनों का यह जन्म सफल हो सकता है। इसलिए हे पुत्रियों! तुम विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो क्योंकि तुम्हारे विद्या ग्रहण करने की यही उम्र है।’’ तीर्थंकर ऋषभदेव ने ऐसा कहकर तथा बार-बार आशीर्वाद देकर अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित किया पुन: ‘सिद्धं नम:’ मंगलाचरण करके अपनी दाहिनी तरफ बैठी हुई ब्राह्मी को दाहिने हाथ से ‘‘अ आ इ ई’’ आदि वर्णमाला लिखकर लिपि लिखने का उपदेश दिया और बार्इं तरफ बैठी सुन्दरी पुत्री को बायें हाथ से १, २ ,३ आदि अंक लिखकर गणित विद्या को सिखाया। इस प्रकार ब्राह्मी पुत्री ने आदिब्रह्मा पिता के मुख से स्वर-व्यंजन युक्त विद्या सीखी, इसी कारण आज वर्णमालालिपि की ब्राह्मीलिपि कहते हैं तथा सुन्दरी ने गणित शास्त्र को अच्छी तरह से सीखा था। वाङ्मय के बिना न तो कोई शास्त्र है और न कोई कला है। व्याकरण शास्त्र, छन्द शास्त्र और अलंकार शास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहते हैं। उन दोनों पुत्रियों ने सरस्वती देवी के समान अपने पिता के मुख से संशय, विपर्यय आदि दोषों से रहित शब्द तथा अर्थपूर्ण समस्त वाङ्मय का अध्ययन किया था। उस समय स्वयंभू ऋषभदेव का बनाया हुआ एक बड़ा भारी व्याकरण शास्त्र प्रसिद्ध हुआ था। उसमें सौ से भी अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यन्त गम्भीर था। प्रभु ने अनेक अध्यायों में छन्दशास्त्र का उपदेश दिया था और उसके उक्ता, अत्युक्ता आदि छब्बीस भेद भी दिखलाये थे। अनेक विद्याओं के अधिपति भगवान ने प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, एकद्वित्रिलघुक्रिया, संख्या और अध्वयोग, छन्दशास्त्र ने इन छह प्रत्ययों का भी निरूपण किया था। प्रभु ने अलंकार संग्रह ग्रंथ में उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकारों का कथन किया था। उनके शब्दालंकार और अर्थालंकार रूप दो भागों का विस्तार के साथ वर्णन और माधुर्य, ओज आदि दश प्राण (गुणों) का भी निरूपण किया था। अनंतर ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियों की पदज्ञान-व्याकरणज्ञानरूपी दीपिका से प्रकाशित हुई समस्त विद्यायें और कलायें अपने आप ही परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो गई थीं। इस प्रकार गुरु अथवा पिता के अनुग्रह से समस्त विद्याओं को प्राप्त कर वे दोनों इतनी अधिक ज्ञानवती हो गई थीं कि साक्षात् सरस्वती भी उनमें अवतार ले सकती थी।१ जगद्गुरु ऋषभदेव ने इसी प्रकार अपने एक सौ पुत्रों को भी सर्वविद्या और कलाओं में पारंगत कर दिया था। इसके बाद आदिप्रभु ऋषभदेव असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन ६ कर्मों द्वारा प्रजा को आजीविका के उपाय बतलाकर प्रजापति, ब्रह्मा, विधाता, स्रष्टा आदि नामों से पुकारे गये थे। एक समय नीलांजना के नृत्य को देखते हुए प्रभु को वैराग्य प्राप्त हो गया और स्वयंबुद्ध हुए प्रभु लौकांतिक देवों के द्वारा स्तुति को प्राप्त करके स्वयं ‘‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’’ मंत्रोच्चारण– पूर्वक मुनि बन गये। छह महीने का योग धारण कर लिया। उसके बाद जब चर्या के लिए निकले, तब किसी को भी आहार विधि का ज्ञान न होने से प्रभु को छह महीने तक आहार नहीं मिला। अनंतर हस्तिनापुर में राजा श्रेयांसकुमार को जातिस्मरण द्वारा आहार विधि का ज्ञान हो जाने से यहाँ उन्होंने वैशाख सुदी तीज के दिन प्रभु को इक्षुरस का आहार दिया था। दीक्षा के अनंतर एक हजार वर्ष तक तपश्चरण करने के बाद तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव को पुरिमतालपुर के बाहर उद्यान में केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। उसी समय देवों ने समवसरण की रचना कर दी। पुरिमताल नगर के स्वामी वृषभसेन२ समवसरण के प्रभु का दर्शन करके दैगम्बरी दीक्षा लेकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये। उसी क्षण सात ऋद्धियों से विभूषित और मन:पर्ययज्ञान से सहित हो गये। उसी समय सोमप्रभ, श्रेयांस आदि राजा भी दीक्षा लेकर भगवान के गणधर हुए थे। ब्राह्मी की दीक्षा—भरत की छोटी बहन ब्राह्मी गुरुदेव की कृपा आर्यिका दीक्षा लेकर वहाँ समवसरण में सभी आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी३ स्वामिनी हो गईं। बाहुबली की बहन सुन्दरी ने भी उसी समय आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। हरिवंशपुराण में सुन्दरी आर्यिका४ को ब्राह्मी के साथ गणिनीरूप में माना है। उस काल में अनेक राजाओं ने तथा राजकन्याओं ने दीक्षा ली थी। भगवान के साथ जो चार हजार राजा दीक्षित हो भ्रष्ट हो गये थे उनमें मरीचिकुमार को छोड़कर शेष सभी ने समवसरण में दीक्षा ले ली थी। उसी काल में भरत को एक साथ तीन समाचार मिले—पिता को केवलज्ञान की प्राप्ति, आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति और महल में पुत्ररत्न की प्राप्ति। भरत ने पहले समवसरण में पहुँचकर भगवान ऋषभदेव की पूजा की, अनंतर चक्ररत्न की पूजा कर पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। बाद में दिग्विजय के लिए प्रस्थान कर दिया। भगवान ऋषभदेव के समवसरण में चौरासी गणधर थे। चौरासी हजार मुनि, ब्राह्मी आदि तीन लाख, पचास हजार आर्यिकायें थीं। दृढ़व्रत आदि तीन लाख श्रावक और सुव्रता आदि पाँच लाख श्राविकायें थीं। इस प्रकार भगवान के समवसरण में जितनी भी आर्यिकायें थीं, सबने गणिनी ब्राह्मी आर्यिका से ही दीक्षा ली थी। जैसा कि सुलोचना के बारे में भी आया है। जयकुमार के दीक्षा लेने के बाद सुलोचना५ ने भी ब्राह्मी आर्यिका से दीक्षा ले ली। आज जो किवदन्ती चली आ रही है कि ब्राह्मी-सुंदरी ने पिता से पूछा— ‘‘पिताजी! इस जगत में आपसे बड़ा भी कोई है क्या?’’ तब पिता ऋषभदेव ने कहा—हाँ बेटी, जिसके साथ हम तुम्हारा विवाह करेंगे उसे हमें नमस्कार करना पड़ेगा, उसके पैर छूना पड़ेगा। इतना सुनकर दोनों पुत्रियों ने यह निर्णय किया कि हमें ब्याह नहीं करना है, हम ब्रह्मचर्यव्रत ले लेंगी। यह किवदन्ती बिल्कुल गलत है। किसी भी दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थ में यह बात नहीं आई है। तीर्थंकरों का स्वयं का विवाह होता है तो भी वे अपने स्वसुर को नमस्कार नहीं करते यहाँ तक कि वे अपने माता-पिता को भी नमस्कार नहीं करते थे। तीर्थंकर शांतिनाथ चक्रवर्ती थे। उनके ९६००० रानियों की पुत्रियाँ भी होंगी, सभी कुमारिकायें ही नहीं रहीं होंगी। विवाह के बाद जमाई के चरण छूना जरूरी नहीं है। भरत चक्रवर्ती आदि सम्राट भी अपनी कन्या को विवाहते थे किन्तु वे जमाई आदि किसी के पैर नहीं छूते थे प्रत्युत सब लोग उन्हीं के चरण छूते थे अत: यह किवदन्ती गलत है। ब्राह्मी-सुन्दरी ने स्वयं विवाह नहीं किया था। दूसरी किवदन्ती यह है कि जब बाहुबली ध्यान में खड़े थे, उन्हें केवलज्ञान नहीं हुआ, तब ब्राह्मी सुन्दरी ने जाकर सम्बोधन किया—भैया! गज से उतरो। यह भी गलत है क्योंकि भगवान को केवलज्ञान होते ही ब्राह्मी सुन्दरी ने दीक्षा ले ली थी। तभी भरत को चक्ररत्न की प्राप्ति हुई थी। बाद में भरत ने ६० हजार वर्ष तक दिग्विजय किया है। इसके बाद भरत-बाहुबली का युद्ध होकर बाहुबली ने दीक्षा ली है। वहाँ भी भरत के नमस्कार करते ही बाहुबली को केवलज्ञान प्रगट हुआ, ऐसी बात है, न कि ब्राह्मी-सुन्दरी के सम्बोधन की। अत: प्रत्येक व्यक्ति को भगवान ऋषभदेव, भरत-बाहुबली एवं ब्राह्मी-सुन्दरी से संबंधित जानकारियों के लिए आदिपुराण का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।