हैं जीव अजीव इन्हीं दो के, सब भेद विशेष कहे जाते।
वे आस्रव बंध तथा संवर, निर्जरा मोक्ष हैं कहलाते।।
ये सात तत्त्व हो जाते हैं, इनमें जब मिलते पुण्य-पाप।
तब नव पदार्थ होते इनको, संक्षेप विधी से कहूँ आज।।२८।।
जीव और अजीव का वर्णन किया गया है। इन दो के ही विशेष भेद रूप आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष होते हैं। ये ही सात तत्व हैं अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इनमें ही पुण्य और पाप मिलाने से नव पदार्थ कहलाते हैं। उनको यहाँ संक्षेप से बताया जा रहा है- कर्मों का आना आस्रव है। उसके दो भेद हैं-भावास्रव और कर्मास्रव। उन्हीं का लक्षण-
आत्मा के जिन परिणामों से, कर्मों का आना होता है।
जिनराज कथित परिणाम वही, भावास्रव जाना जाता है।।
जो कर्मों का आना होता, वह द्रव्यास्रव कहलाता है।
आस्रव के कारण समझ जीव, सब आस्रव से छुट जाता है।।२९।।
आत्मा के जिन परिणामों-भावों से कर्म आते हैं, उन परिणामों को ही जिनेन्द्रदेव ने भावास्रव कहा है और आत्मा में कर्मों का आना ही द्रव्यास्रव है। इन्हीं का स्पष्टीकरण-
मिथ्यात्व पाँच अविरती पाँच, पंद्रह प्रमाद त्रय योग कहे।
क्रोधादि कषायें चार कहीं, सब मिलकर बत्तिस भेद लहे।।
आत्मा के इन सब भावों से, कर्मों का आस्रव होता है।
जो इन भावों से बचता है, वह द्रव्यास्रव को खोता है।।३०।।
पाँच मिथ्यात्व, पाँच अविरति, पन्द्रह प्रमाद, तीन योग और चार कषाय ये बत्तीस भेद भावास्रव के हैं। इनका विस्तार यह है कि प्रत्येक संसारी जीव चाहे मनुष्य हो या तिर्यंच, देव हो या नारकी, प्रतिक्षण उसके कुछ न कुछ भाव होते ही रहते हैं। चाहे वो भाव व्यक्त हों या अव्यक्त, स्वयं की जानकारी में हों या न भी हों, फिर भी जो भी परिणाम-भाव होते हैं वे सब भाव इन पाँच प्रत्ययों-कारणों में शामिल हो जाते हैं। इन पाँच के प्रभेद ३२ हैं अथवा मिथ्यात्व ५, अविरति १२, प्रमाद १५, कषाय २५ और योग १५ ऐसे ५±१२±१५±२५±१५·७२ भेद भी होते हैं।
एकांत – जीव नित्य ही है, अनित्य ही है, ऐसी एकांत बात पकड़ लेना एकांत मिथ्यात्व है।
विपरीत – जीवहिंसा-जीव बलि आदि से स्वर्ग मानना विपरीत मिथ्यात्व है।
विनय – सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और झूठे कल्पित देव, शास्त्र, गुरु सबको समान कहकर सबकी विनय करना विनय मिथ्यात्व है।
संशय – निर्वस्त्र दिगम्बर वेष से मुक्ति होगी या सवस्त्र इत्यादि में संशय करते रहना संशय मिथ्यात्व है।
अज्ञान – अज्ञान से ही मुक्ति मानना अज्ञान मिथ्यात्व है।
मिथ्या – असत्य या कल्पित विचारधारा को मिथ्यात्व कहते हैं। इस मिथ्यात्व के ३६३ भेद भी माने गये हैं।
अविरति ५ – हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पाँचों पापों का सेवन करना-त्याग नहीं करना अविरति है।
महाव्रती मुनि इन पापों को सर्वथा त्याग देते हैं और श्रावक इन पाँचों पापों का एकदेश त्याग करते हैं इसलिए मुनिगण महाव्रती कहलाते हैं और श्रावक अणुव्रती कहलाते हैं। ‘
प्रमाद – विकथा ४, कषाय ४, इन्द्रिय ५, निद्रा १, प्रणय-स्नेह १, ऐसे १५ हैं।
स्त्री कथा, भोजन कथा, राष्ट्र कथा और राजकथा विकथा हैं। इनमें भी कर्मों का आस्रव होता रहता है। क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। इनको वश में नहीं रखने से आस्रव होता रहता है। निद्रा और स्नेह को सभी जानते हैं। योग ३ – मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का नाम योग है। कषाय ४ – क्रोध-गुस्सा करना, मान-घमंड करना, माया-किसी को भी ठगना, लोभ-लालच करना। ये कषायें हमेशा आत्मा को कसती हैं-दु:ख देती हैं। इन्हीं के कारण यह जीव संसार में दु:ख उठा रहा है। प्रत्येक मिथ्यादृष्टि संसारी जीव के ये पाँचों ही कारण मौजूद हैं। जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनके मिथ्यात्व को छोड़कर चार कारणों से कर्म आते हैं। इनसे आगे जो अणुव्रती श्रावक हैं उनके अविरति का एकदेश त्याग हो जाने से वे विरताविरत या संयतासंयत कहलाते हैं।
चूंकि इनके त्रसहिंसा का पूर्णतया त्याग हो चुका है। जो महाव्रती मुनि हैं, सम्पूर्ण आरंभ और परिग्रह के त्यागी हैं, उनके मिथ्यात्व, अविरति दो कारणों से अतिरिक्त आगे के तीन कारण हैं। जो प्रमाद से रहित, अप्रमत्त मुनि ध्यान में लीन हैं, उनके कषाय और योग मात्र दो ही कारण हैं। महाध्यानी मुनि के दशवें गुणस्थान में कषाय का पूर्णतया नाश हो जाने से बारहवें गुणस्थान में अकषायी-क्षीणमोह महामुनि निग्र्रंथ हो जाते हैं। इसके आगे केवली भगवान के भी योग के निमित्त से आस्रव तो होता रहता है, वह टिकता नहीं है। मात्र सातावेदनीय रूप से आता है, चला जाता है, इसे ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। आज हमारे१ मिथ्यात्व और एकदेश अविरति रहित चार कारण हैं।
द्रव्यास्रव-
ज्ञानावरणादी कर्मों के, जो योग्य कहे पुद्गल जग में।
वे आते हैं उनको समझो, द्रव्यास्रव वह हो क्षण-क्षण में।।
श्री जिनवर ने द्रव्यास्रव के, हैं भेद अनेकों बतलाए।
वे आठ तथा इस सौ अड़तालिस औ असंख्य भी बतलाए।।३१।।
ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों के योग्य जो पुद्गल वर्गणाओं का आस्रव होता है, वही द्रव्यास्रव है। उसके ज्ञानावरण आदि आठ भेद हैं। इन्हीं आठ के मति ज्ञानावरण आदि १४८ भेद हो जाते हैं। इन्हीं के असंख्यात लोकप्रमाण भी भेद हो जाते हैं। इन सब आस्रव के कारणों को जानकर मिथ्यात्व, अविरति आदि से दूर हटकर अपनी आत्मा को सम्यग्दृष्टि, व्रती बनाना चाहिए।