इस विधि से ये छह भेद रूप, जो द्रव्य कहे परमागम में।
वे जीव अजीवों के प्रभेद, से ही माने जिनशासन में।।
इनमें से कालद्रव्य वर्जित, जो पाँच द्रव्य रह जाते हैं।
वे ही अर्हंतदेव भाषित, पंचास्तिकाय कहलाते हैं।।२३।।
मूल में द्रव्य के जीव और अजीव ये दो ही भेद हैं। इसी में अजीव के पाँच भेद होने से द्रव्य के जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह भेद हो जाते हैं। इन छहों द्रव्यों में काल द्रव्य को छोड़कर पाँच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। ग्रंथकार स्वयं अस्तिकाय का लक्षण बतलाते हैं-
जिस हेतू से ये ‘सन्ति’ हैं, इस हेतू से ही ‘अस्ति’ कहे।
इस विध श्रीजिनवर कहते हैं, ये विद्यमान ही सदा रहें।।
ये बहुप्रदेशयुत काय सदृश, इसलिए ‘काय’ माने जाते।
दोनों पद मिलकर ‘अस्तिकाय’, संज्ञा से ये जाने जाते।।२४।।
ये द्रव्य ‘सन्ति’ अर्थात् विद्यमान हैं इसलिए इन्हें ‘अस्ति’ अर्थात् ‘हैं’ ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव कहते हैं और जिस हेतु से ये काय-शरीर के समान बहुत प्रदेशी हैं उसी हेतु से ये काय इस नाम को प्राप्त हैं अत: ये पाँच द्रव्य ‘अस्तिकाय’ इस सार्थक नाम वाले हैं। यद्यपि इन पाँचों द्रव्यों में संज्ञा, लक्षण तथा प्रयोजन आदि से परस्पर में भेद है फिर भी अस्तित्व की अपेक्षा से अभेद है अर्थात् अस्तित्व की दृष्टि से सभी द्रव्य एक रूप ही हैं। इसी अस्तित्व को न समझकर ही ब्रह्माद्वैत आदि ‘अद्वैत’ मतों की स्थापना हो गई है। प्रत्येक द्रव्य में सामान्य और विशेष ऐसे दो प्रकार के गुण माने गये हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण हैं और ज्ञान, दर्शन, रूप, रस आदि विशेष गुण हैं। शुद्ध जीवास्तिकाय में सिद्धत्व लक्षण शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है, केवलज्ञान आदि विशेष गुण हैं और इसी शुद्ध मुक्त जीव में अस्तित्व आदि सामान्य गुण हैं। ऐसे ही सिद्धजीव में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भी होते हैं। उनमें अव्याबाध, अनंतसुख आदि अनंत गुणों की प्रगटता रूप कार्य समयसार का उत्पाद हुआ है। रागादि विभाव रहित परम स्वास्थ्यरूप कारण समयसार का विनाश हो गया है और कार्य-कारण समयसार दोनों के आधारभूत परमात्म द्रव्यरूप से वो ही आत्मा ध्रौव्य स्थिर रूप हैं। ये तीनों एक ही समय में होते हैं। जैसे-गुण, पर्याय और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य लक्षण से सहित सिद्ध जीवों का अस्तित्व है, वैसे ही संसार अवस्था में अशुद्ध गुण, पर्याय और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से सहित सम्पूर्ण जीव समूह का भी अस्तित्व है। ऐसे ही सभी द्रव्यों का भी अस्तित्व है अत: शुद्ध-अशुद्ध सभी द्रव्यों में अस्तित्व गुण समान रूप से पाया जाता है। इस कारण छहों द्रव्य अस्तिरूप हैं किन्तु काय का लक्षण काल द्रव्य में घटित न होने से उसे छोड़कर शेष पाँच द्रव्य कायरूप हैं अत: पाँच द्रव्य ही ‘अस्तिकाय’ कहलाते हैं। बहुत से प्रदेशों का प्रचय जिसमें पाया जाए, उसे ही काय संज्ञा है। किसमें कितने प्रदेश हैं, अब इसे स्पष्ट करते हैं-
इक जीव धर्म व अधर्म में, माने प्रदेश हैं असंख्यात।
नभ में अनंत होते प्रदेश, औ लोकाकाश में असंख्यात।।
पुद्गल में त्रिविध प्रदेश कहे, जो संख्य असंख्य अनंते भी।
बस काल में एक प्रदेश कहा, नहिं काय नाम है अत: सही।।२५।।
एक जीव द्रव्य में, धर्मद्रव्य में और अधर्मद्रव्य में असंख्यात प्रदेश होते हैं। एक जीव में असंख्यात प्रदेश हैं यदि वे फैल जावें तो लोकाकाश प्रमाण हो जाए किन्तु संसार अवस्था में कर्म से सहित जीव को जितना छोटा या बड़ा शरीर मिलता है उतने ही प्रमाण में संकुचित होकर या विस्तृत होकर रहते हैं, शरीर से बाहर नहीं जाते हैं। आगम में सात प्रकार के समुद्घात कहे हैं। उन प्रसंगों में आत्मा से बाहर भी प्रदेश चले जाते हैं तथा इसी में एक केवली समुद्घात है उसकी अपेक्षा से जीव के प्रदेश पूरे लोकाकाश में फैल जाते हैं। आकाश द्रव्य में अनंत प्रदेश हैं अर्थात् आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश दो भेद हैं। उनमें से लोकाकाश में एक जीव के बराबर असंख्यात प्रदेश हैं और अलोकाकाश में अनंत प्रदेश हैं। मूर्तिक पुद्गल द्रव्य में संख्यात, असंख्यात और अनंत ऐसे तीनों प्रकार के प्रदेश हैं। काल द्रव्य का एक प्रदेश होता है इसीलिए वह ‘काय’ नहीं कहलाता है। तात्पर्य यही है कि कालद्रव्य एकप्रदेशी होने से ‘काय’ नहीं है इसीलिए वह द्रव्य तो है किन्तु अस्तिकाय नहीं है। इस बात से यह शंका सहज ही हो जाती है कि पुद्गल का परमाणु भी ‘एक प्रदेशी है’ उसे भी ‘काय’ नहीं कहना चाहिए। उसी के समाधान में आचार्य कहते हैं-
जो एकप्रदेशी भी अणु है, वह कारण बहु स्वंधों का।
उपचार विधी से कहलाता, वह बहुत प्रदेशी जो होगा।।
इसलिए काय संज्ञा अणु की, सर्वज्ञदेव बतलाते हैं।
पर कालद्रव्य में बहुप्रदेश, की शक्ती भी नहिं पाते हैं।।२६।।
अणु-परमाणु यद्यपि एक प्रदेश वाला है फिर भी वह अनेक प्रदेशी स्कंधों का कारण है अर्थात् आगे द्व्यणुक, त्र्यणुक आदि होकर अनेक प्रदेशी स्कंध बन सकता है इसीलिए वह अणु भी उपचार से बहुप्रदेशी माना जाता है अत: यह अणु भी ‘काय’ संज्ञक होने से अस्तिकाय है किन्तु काल द्रव्य कभी भी दो आदि बहुत प्रदेश वाला नहीं हो सकता है, यही कारण है कि वह ‘अस्ति’ तो है किन्तु ‘काय’ नहीं है। अब प्रदेश का लक्षण और उसकी योग्यता को बतलाते हैं-
इस जितने मात्र नभस्तल को, अविभागी इक पुद्गल अणु ने।
रोका है उतने नभ को ही, इक प्रदेश संज्ञा दी प्रभु ने।।
ऐसा जो एक प्रदेश कहा, वह युगपत् सब परमाणू को।
ठहरा सकता है अपने में, तुम जानो इतना क्षम उसको।।२७।।
जितने मात्र आकाश को एक अविभागी पुद्गल के परमाणु ने रोका है उतने मात्र को तुम ‘प्रदेश’ जानो। वह प्रदेश सभी परमाणु को ठहराने में समर्थ हो सकता है। तात्पर्य यह है कि आकाश के एक प्रदेश में असंख्यात और अनंत परमाणुओं का स्कंध भी रह सकता है। ऐसी आकाश में अवकाश देने की योग्यता विद्यमान है, तभी तो असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनंतानंत जीव और उनसे भी अनंतगुणे पुद्गल रह रहे हैं। कहा भी है-
एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा।
सिद्धेहिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण।।
एक निगोदिया जीव के शरीर में द्रव्य प्रमाण से अतीतकाल के सब सिद्धों से भी अनंतगुणे जीव देखे गये हैं और निगोदिया जीव की अवगाहना बहुत ही छोटी मानी गई है। उदाहरणस्वरूप सुई की नोक के अग्रभाग पर अनंत निगोदिया जीव रह जाते हैं। उपसंहार-इस प्रकार द्रव्यसंग्रह ग्रंथ के प्रथम अधिकार में छहों द्रव्य और पाँच अस्तिकाय का वर्णन किया गया है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय हैं, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेव का उपदेश है।