जो निज आत्मा का भाव सभी, कर्मों के क्षय में हेतू है। बस भाव वही है भावमोक्ष, जो अक्षय सुख में हेतू है।। आत्मा से कर्म पृथक् होना, सो द्रव्य मोक्ष कहलाता है। बस इसीलिए इन तत्वों का, श्रद्धान कराया जाता है।।३७।।
आत्मा का जो परिणाम सभी कर्मों के क्षय में हेतु है उस परिणाम को ही भाव मोक्ष जानना चाहिए और आत्मा से कर्मों का पृथक् हो जाना ही द्रव्यमोक्ष कहलाता है। यद्यपि सामान्य रूप से सम्पूर्णतया कर्ममल कलंक रहित, अशरीरी आत्मा के आत्यंतिक, स्वाभाविक, अचिन्त्य, अद्भुत तथा अनुपम सकल, विमल, केवलज्ञान आदि गुणों के स्थानरूप जो एक अवस्थान्तर-भिन्न ही अवस्था है वही मोक्ष कहा जाता है, फिर भी विशेषता से वह मोक्ष दो प्रकार का होता है-भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष।
भावमोक्ष-सर्वद्रव्य, भावरूप मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन चार घातिया कर्मों के नाश का कारण जो निश्चयरत्नत्रयरूप कारण समयसार है, उस रूप आत्मा का परिणाम ही भावमोक्ष है।
द्रव्यमोक्ष – टंकोत्कीर्ण शुद्ध-बुद्ध स्वरूप एक स्वभाव के धारक परमात्मा के आयु आदि शेष चार अघातिया कर्मों का सर्वथा भिन्न हो जाना-नाश हो जाना सो द्रव्यमोक्ष है, यह अयोगकेवली नाम के चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव के अंतिम समय में होता है। सर्व कर्मों से छूट जाने पर मुक्त जीवों को वैâसा सुख होता है ? निज आत्मा रूप उपादान कारण से सिद्ध, स्वयं अतिशययुक्त, बाधा से शून्य, विशाल, वृद्धि-ह्रास से रहित, विषयों से रहित, प्रतिद्वन्द-प्रतिपक्षता से रहित, अन्य द्रव्यों की अपेक्षा से मुक्त, उपमारहित, अपार, नित्य और सर्वकाल में उत्तम तथा अनंतसार युक्त जो परमसुख है, वह इस मोक्ष से उन सिद्धों को हुआ है।
शंका –जो सुख इन्द्रियों से उत्पन्न होता है, उसी का नाम सुख है। सिद्ध जीवों के न इन्द्रियाँ हैं, न शरीर, अत: उन्हें सुख वैसे हो सकता है ?
समाधान –जो सांसारिक सुख है वह तो मधुर भोजन, स्त्री सेवन आदि पाँचों इन्द्रियों के विषयों से ही उत्पन्न होता है। वह इन्द्रिय सुख कहलाता है किन्तु सिद्धों के अतीन्द्रिय सुख होता है। लोक में भी देखा जाता है कि यदि कोई पुरुष शांतचित्त पाँचो इन्द्रियों के व्यापार से रहित होकर और आकुलतारहित बैठा है, वह अपने आपको सुखी मान रहा है। उसका वह सुख आत्मा से ही उत्पन्न हुआ है अथवा कोई अच्छे वस्त्र पहनकर या मिष्टान्न, भोजन करके अपने को सुखी मान रहा है किन्तु कोई दूसरा मनुष्य किसी मानसिक वेदना या शारीरिक वेदना से दु:खी है तो वह सुन्दर वस्त्र और सुन्दर भोजन के होने पर भी दु:खी हो रहा है। इससे विपरीत कोई आंतरिक शांति होने से सूखी रोटी और मोटे वस्त्र में भी सुख मान रहा है। इससे मालूम होता है कि बाह्य वस्तुएँ सुख का कारण न होकर सुख का कारण कुछ और ही है। वह है निराकुलता-निश्चिंतता। अतएव सुख आत्मा में ही है वहीं से उत्पन्न होता है न कि बाह्य पदार्थों से। इन्द्रिय तथा विषय आदि तो निमित्तमात्र ही हैं। इससे अतिरिक्त पाँचों इन्द्रियों से तथा मन से होने वाले विकल्पों से रहित और निर्विकल्प ध्यान में स्थित परमयोगियों के राग आदि के अभाव में जो स्वसंवेद्य सुख है, वह अपने आत्मा के अनुभव से ही उत्पन्न हुआ आत्मिक सुख है। वह अतीन्द्रिय (कथंचित्-इन्द्रियों से परे) सुख है। जब महायोगियों के निर्विकल्प ध्यान के सुख को अतीन्द्रिय माना है पुन: सिद्धों के तो समस्त भावकर्म तथा द्रव्यकर्म नष्ट हो चुके हैं, ऐसे उन मुक्त जीवों के समस्त आत्मप्रदेशों में आल्हादरूप परमानंदरूप परमसुख होता है, वह अत्यन्त अतीन्द्रिय-परम अतीन्द्रिय सुख कहलाता है।
शंका –संसारी जीवों के निरन्तर कर्मों का बंध होता रहता है और इसी प्रकार सर्वदा कर्मों का उदय भी होता रहता है। इस कारण उनके शुद्ध आत्मा के ध्यान का प्रसंग ही नहीं है, तब मोक्ष कैसे होता है ?
समाधान – जैसे कोई बुद्धिमान मनुष्य अपने शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर अपने मन में विचार करता है कि ‘यह मेरे मारने का अवसर है-इस समय यह मेरा शत्रु दुर्बल है अत: यह इसको मार डालने का उपयुक्त अवसर है।’’ ऐसा सोचकर उद्यम करके वह बुद्धिमान अपने शत्रु को मार डालता है। इसी प्रकार कर्मों की भी सदा एक रूप अवस्था नहीं रहती है। जब कर्मों का स्थितिबंध और अनुभागबंध कम-कम होता है तब कर्म लघु-हल्के रहते हैं, उस समय बुद्धिमान भव्य जीव दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय को नष्ट करने का पुरुषार्थ करता है। दर्शनमोहनीय को नष्ट करने के लिए आगम भाषा में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और कारण ये पाँच लब्धियाँ मानी गई हैं। इनमें से चार लब्धियाँ तो सामान्य हैं-भव्य अभव्य सभी जीवों के हो सकती हैं किन्तु करणलब्धि विशेष है। उसके होने पर सम्यक्त्व या चारित्र नियम से हो जाता है। अध्यात्म भाषा में निज शुद्ध आत्मा के सम्मुख जो परिणाम होता है जो कि आत्मा की निर्मल भावना विशेष रूप है, इसी निर्मल परिणामरूप विशेष खड्ग के द्वारा यह भव्य जीव कर्मों को नष्ट करने में समर्थ हो जाता है। जो अंत: कोड़ाकोड़ी प्रमाण कर्मों की स्थिति रूप तथा लता और काष्ठ के समान अनुभागरूप से कर्मों का भार हल्का हो जाने पर भी अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक भावों रूप पुरुषार्थ को कभी भी नहीं कर सकता है, वह अभव्य है, ऐसा जानना चाहिए अर्थात् करण लब्धि के ही ये तीन भेद हैं। ये दर्शनमोहनीय को नष्ट करने के लिए भी होते हैं तथा चारित्रमोहनीय को नष्ट करने के लिए भी होते हैं। ये करणलब्धिरूप भाव भव्यों के ही होते हैं, अभव्यों के नहीं। यह पुरुषार्थ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रमय रत्नत्रय ही है। इसी रत्नत्रय के बल से यह जीव कर्मों को नाश कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
शंका –अनादिकाल से मोक्ष को जाते रहने से यह जगत कभी जीवों से बिल्कुल शून्य हो जायेगा अर्थात् जीव सदा मोक्ष जाते ही रहेंगे, तो एक न एक दिन यह जगत जीवों से रहित हो ही जायेगा?
समाधान –जैसे क्रम से व्यतीत होते हुए समय भविष्यत् काल के समय हैं उनसे यद्यपि भविष्यत् काल के समयों की राशि में कमी होती है। फिर भी उस समय की राशि का अंत कभी भी नहीं होगा। इसी प्रकार मुक्ति में जाते हुए जीवों से यद्यपि जगत में जीवराशि की न्यूनता होती है तो भी उस जीवराशि का अंत कभी भी नहीं होगा। यही कारण है कि पूर्व के अतीतकाल में अनंतानंत जीव सिद्ध हो चुके हैं फिर भी इस समय जीवों की शून्यता नहीं देखी जाती है। आज भी जगत में जीव अनंतानंत ही हैं और भविष्य में भी अनंतानंत ही रहेंंगे। चूँकि संसार में यह जीव राशि अक्षय अनंत कही गई है। दूसरी बात यह है कि अभव्य जीव और अभव्य के समान ही दूरानुदूर भव्य जीव ये कभी मोक्ष जाते नहीं हैं अत: इनसे भी संसार खाली नहीं होने से सदा भरा ही रहता है। फिर जगत की शून्यता कैसे हो सकती है।
शंका –जब संसार में जीव के साथ कर्मों का संबंध अनादिकाल से है। उसकी आदि कभी नहीं थी तो पुन: उन कर्मों का अंत भी कैसे हो सकता है। जैसे कि सुमेरु पर्वत आदि अकृत्रिम वस्तुएँ अनादि हैं तो अनंत हैं। इनका अंत भी कभी नहीं माना है ?
समाधान –जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज होते रहने से बीज वृक्ष की परम्परा अनादि है, फिर भी यदि आज कोई बीज को जला दे तो पुन: उसका वृक्ष न उग सकने से उस बीज के वृक्ष की परम्परा समाप्त हो जाती है। उसी प्रकार यद्यपि जीव के साथ कर्मबंध की परम्परा अनादि है फिर भी एक बार रत्नत्रय को धारण कर ध्यानरूपी अग्नि से कर्मों के बीजभूत कार्मण शरीर को या मोहनीय कर्म को अथवा सर्व कर्मों को ही जला देने से पुन: कर्मबंध की परम्परा समाप्त हो जाती है अत: जैसे बीज की परम्परा अनादि होने पर अंत हो जाता है उसी प्रकार जीव के साथ कर्मों की बंध परम्परा अनादि होने पर उसका अंत होना माना जाता है। यह जीव और कर्म का संबंध जैसे अनादि होकर भी शांत है वैसे सुमेरु पर्वत आदि नहीं है। (ये अनादि अनंत ही हैं) इस प्रकार से यह मोक्ष पदार्थ का संक्षिप्त वर्णन हुआ है।