जीवादी तत्त्वों की श्रद्धा, करना सम्यक्त्व कहाता है।
वह आत्मा का ही है स्वरूप, जो निज में निज को पाता है।।
जिसके होने पर निश्चित ही, संशय आदिक से रहित ज्ञान। सम्यक् हो जाता है उसको, सम्यग्दर्शन समझो महान।।४१।।
जिसके होने पर ज्ञान दुरभिप्राय रहित समीचीन हो जाता है, ऐसा जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है जो कि आत्मा का स्वरूप ही है अर्थात् सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है, उसके पूर्व नहीं। वीतराग सर्वज्ञदेव के द्वारा कहे हुए शुद्ध जीवादि तत्त्वों का चल, मलिन, अगाढ़ दोष रहित जो श्रद्धान है, रुचि है, निश्चय है वही सम्यग्दर्शन है। वही ‘तत्व यही है, ऐसा ही है’ इस प्रकार की निश्चयबुद्धि रूप होता है। इस सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। वह सम्यग्ज्ञान संशय, विमोह और विभ्रम से रहित होता है। सामने किसी सूखे ठूंठ को देखकर दूर से न पहचान कर ‘यह पुरुष है या ठूंठ’ ऐसे चलायमान ज्ञान को संशय कहते हैं। सीप के टुकड़े में चांदी के ज्ञान की तरह जो विपरीत ज्ञान है, वह विमोह है तथा चलते हुए पैर में तृण का स्पर्श हो जाने पर ‘यह क्या है ?’ जो ऐसा अनिर्णीत ज्ञान है वह विभ्रम या अनध्यवसाय कहलाता है, ज्ञान के ये तीन दोष हैं। इनसे रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्दर्शन के प्रगट होते ही ये तीनों दोष निकल जाते हैं, इस हेतु से वह पूर्व का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान बन जाता है। इसका उदाहरण प्रसिद्ध है- गौतम, अग्निभूति और वायुभूति नाम के तीन ब्राह्मण थे। ये पाँच-पाँच सौ ब्राह्मण शिष्यों के उपाध्याय थे। चार वेद, ज्योतिष्क, व्याकरण आदि छह अंग, मनुस्मृति आदि अठारह स्मृतिशास्त्र, भारत आदि अठारह पुराण और मीमांसा, न्याय आदि इन सभी लौकिक शास्त्रों को यद्यपि जानते थे फिर भी उनका ज्ञान सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञान ही था। ये तीनों ही जब वर्धमान स्वामी तीर्थंकरदेव के समवसरण में पहुँचे, वहाँ मानस्तंभ के दर्शन से ही मान के गलित हो जाने पर आगमभाषा में दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के उपशम, क्षय हो जाने से और अध्यात्म भाषा में अपनी शुद्ध आत्मा के अभिमुख परिणाम से कालादि लब्धि के मिल जाने पर मिथ्यात्व नष्ट हो गया, उसी समय उनका मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान हो गया। इसके बाद ‘जयति भगवान्’ इत्यादि चैत्यभक्ति पढ़कर नमस्कार करके उसी क्षण जैनेश्वरी दीक्षा लेकर केशलोंच के अनंतर ही मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय इन चार ज्ञान और सात ऋद्धियों से सम्पन्न होकर ये तीनों ही भगवान के गणधर हो गये। इनमें से श्री गौतमस्वामी प्रथम गणधर थे, इन्होंने भव्य जीवों के उपकार हेतु द्वादशांग श्रुत की रचना की है। अनंतर ये तीनों ही निश्चयरत्नत्रय की भावना से मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं। इनके पन्द्रह सौ ब्राह्मण शिष्य भी जैनेश्वरी दीक्षा लेकर यथासंभव स्वर्ग-मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं किन्तु अभव्यसेन मुनि ग्यारह अंग का पाठी होते हुए भी सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञानी हो रहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व के माहात्म्य से ज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम और ध्यान आदि मिथ्यारूप भी समीचीन हो जाते हैं और सम्यक्त्व के अभाव में विषमिश्रित दूध के समान सभी ज्ञान, चारित्र आदि मिथ्या ही रहते हैं। वह सम्यग्दर्शन पच्चीस मल दोष रहित होना चाहिए। देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और समयमूढ़ता ये तीन मूढ़ता हैं। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और रूप इन आठों का आश्रय लेकर घमण्ड करना मद है। इन आठ के भेद से मद के भी आठ भेद हो जाते हैं। मिथ्यादेव, मिथ्यातप, मिथ्याशास्त्र तथा इनके तीनों के आराधक ये छह अनायतन कहलाते हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ शंकादि दोष हैं। इस प्रकार ३ मूढ़ता, ८ मद, ६ अनायतन और ८ शंकादि दोष ये पच्चीस मल दोष हैं, ये सम्यक्त्व को मलिन करने वाले हैं, सरागसम्यग्दृष्टि के लिए ये छोड़ने योग्य हैं, यही सराग सम्यक्त्व ही व्यवहार सम्यक्त्व कहलाता है। इस सराग सम्यक्त्व के द्वारा ही वीतराग नाम का निश्चय सम्यक्त्व साध्य है। वह शुद्धोपयोग नामक वीतराग चारित्र के साथ ही होता है। व्यवहार सम्यग्दर्शन से ही निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त किया जाता है। इन दोनों में साध्य-साधन भाव है। सम्यग्दर्शन से पूर्व यदि आयु बंध नहीं हुआ है तो उस सम्यग्दृष्टि के भले ही व्रत, चारित्र नहीं हैं तो भी वह मरकर नरक, तिर्यंचगति में जन्म नहीं लेता है, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदी नहीं होता है, नीच कुल में जन्म नहीं लेता है, विकृत अंग वाला नहीं होता है, अल्पायु और दरिद्री भी नहीं होता है तथा भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में भी जन्म नहीं लेता है। स्वर्गों में भी प्रकीर्णक, आभियोग्य-वाहनदेव और किल्विषक देवों में भी जन्म नहीं लेता है और यदि पहले से नरक, तिर्यंच या मनुष्य की आयु बांध ली है बाद में सम्यक्त्व-क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है तो वह नरकों में से पहले नरक में ही जाता है। तिर्यंचों में भोगभूमि का तिर्यंच होता है और मनुष्यों में भी भोगभूमि का मनुष्य ही होता है इसलिए सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर विदेहक्षेत्र में कर्मभूमि का मनुष्य नहीं हो सकता है यह नियम है। इस प्रकार यहाँ सम्यक्त्व का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।